"गुरु गोबिन्द सिंह" के अवतरणों में अंतर

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==आस्था की परीक्षा ==
 
==आस्था की परीक्षा ==
सिक्खों को सुदृढ़ सैन्य आधार प्रदान करना गोबिंद सिंह की महानतम उपलब्धि थी। एक मान्यता के अनुसार, एक सुबह प्रार्थना के बाद वह सिक्ख समूह के समक्ष समाधि लगाकर बैठे। अचानक वह उठे और उन्होंने कहा कि 'मेरे कृपाण को एक शीश चाहिए। कौन आगे बढ़कर पंथ के लिए अपना बलिदान देगा?' भीड़ में भय, घबराहट और अविश्वास की लहर दौड़ गई। अंतत: एक व्यक्ति आगे आया और गुरु के साथ तंबू के अंदर चला गया कुछ देर बाद गोबिंद सिंह रक्तरंजित कृपाण लेकर बाहर आए और स्वेच्छा से बलिदान करने वाले अन्य व्यक्ति को पुकारा। यह प्रक्रिया पाँच लोगों के स्वेच्छा से आगे आने तक चलती रही। उसके बाद सभी पाँचों जीवित बाहर आ गए। गोबिंद तो केवल उनकी आस्था की परीक्षा ले रहे थे। उन्हें पंज पियारा (पाँच प्रिय) की उपाधि दी गई और उन्होंने मिलकर सिक्ख सैन्य बिरादरी का केंद्र बनाया, खालसा, जिसकी स्थापना 1699 में हुई।
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सिक्खों को सुदृढ़ सैन्य आधार प्रदान करना गोविंद सिंह की महानतम उपलब्धि थी। एक मान्यता के अनुसार, एक सुबह प्रार्थना के बाद वह सिक्ख समूह के समक्ष समाधि लगाकर बैठे। अचानक वह उठे और उन्होंने कहा कि 'मेरे कृपाण को एक शीश चाहिए। कौन आगे बढ़कर पंथ के लिए अपना बलिदान देगा?' भीड़ में भय, घबराहट और अविश्वास की लहर दौड़ गई। अंतत: एक व्यक्ति आगे आया और गुरु के साथ तंबू के अंदर चला गया कुछ देर बाद गोविंद सिंह रक्तरंजित कृपाण लेकर बाहर आए और स्वेच्छा से बलिदान करने वाले अन्य व्यक्ति को पुकारा। यह प्रक्रिया पाँच लोगों के स्वेच्छा से आगे आने तक चलती रही। उसके बाद सभी पाँचों जीवित बाहर आ गए। गोविंद तो केवल उनकी आस्था की परीक्षा ले रहे थे। उन्हें पंज पियारा (पाँच प्रिय) की उपाधि दी गई और उन्होंने मिलकर सिक्ख सैन्य बिरादरी का केंद्र बनाया।
  
 
==सिक्खों में युद्ध का उत्साह==
 
==सिक्खों में युद्ध का उत्साह==

11:25, 13 जून 2010 का अवतरण

कुछ ज्ञानियों द्वारा कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है,

"जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।"

परिचय

गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई॰ को पटना (बिहार) में हुआ था। इनका मूल नाम गोविंद राय था। यह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, खालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद राय से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद् थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख कानून को और सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखने की प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला।

दशम गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेगबहादुर जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था। "मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।"

गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुगलों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब जबरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।

गोविंद का बचपन

खिलौनों से खेलने की उम्र में गोविंद जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोविंद बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोविंद एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे । वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गूजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोविंद से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,

"उसकी गरीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूंगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"

औरंगज़ेब से तेग बहादुर की बातचीत

जब गोविंद आठ-नौ साल के थे तब उनके पिता तेग बहादुर आनंदपुर साहिब चले गये। गुरु तेग बहादुर का प्रभाव उन दिनों काफ़ी बढ़ रहा था वहीं दूसरी ओर औरंगज़ेब हिदुओं पर कहर बरपा रहा था। कुछ कश्मीरी पंडित तेग बहादुर की शरण में औरंगज़ेब से बचने के लिए आनंद पुर साहिब आये। तेग बहादुर औरंगज़ेब से इस विषय में बातचीत करने के लिए दिल्ली पहुँचे लेकिन औरंगज़ेब ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। औरंगज़ेब ने उनसे कहा,

"तेग बहादुर, अब तुम मेरे रहमो-करम पर हो। अगर तुम सच्चे संत हो तो हमें कोई चमत्कार करके दिखाओ, वरना अपना ईमान छोड़ दो।"

गुरु तेग बहादुर ने कहा,

"मेरी गर्दन में एक ताबीज बंधा है, जिसके कारण तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"

यह सुनते ही गुरु तेग बहादुर का सर औरंगज़ेब के इशारे पर काट दिया गया। यह घटना 11 नवम्बर 1675 ई॰ में दिल्ली के चांदनी चौक में हुई थी। जब तेग बहादुर जी की गर्दन में बंधा ताबीज़ खोलकर देखा गया तो उसमे लिखा था -

"मैंने अपना सिर दे दिया, धर्म नहीं।"

तेग बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर ९ वर्ष की आयु में 'गुरु गोविंद राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोविंद राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढाया। उनका नारा था- सत्य ही ईश्वर है।[1]

आस्था की परीक्षा

सिक्खों को सुदृढ़ सैन्य आधार प्रदान करना गोविंद सिंह की महानतम उपलब्धि थी। एक मान्यता के अनुसार, एक सुबह प्रार्थना के बाद वह सिक्ख समूह के समक्ष समाधि लगाकर बैठे। अचानक वह उठे और उन्होंने कहा कि 'मेरे कृपाण को एक शीश चाहिए। कौन आगे बढ़कर पंथ के लिए अपना बलिदान देगा?' भीड़ में भय, घबराहट और अविश्वास की लहर दौड़ गई। अंतत: एक व्यक्ति आगे आया और गुरु के साथ तंबू के अंदर चला गया कुछ देर बाद गोविंद सिंह रक्तरंजित कृपाण लेकर बाहर आए और स्वेच्छा से बलिदान करने वाले अन्य व्यक्ति को पुकारा। यह प्रक्रिया पाँच लोगों के स्वेच्छा से आगे आने तक चलती रही। उसके बाद सभी पाँचों जीवित बाहर आ गए। गोविंद तो केवल उनकी आस्था की परीक्षा ले रहे थे। उन्हें पंज पियारा (पाँच प्रिय) की उपाधि दी गई और उन्होंने मिलकर सिक्ख सैन्य बिरादरी का केंद्र बनाया।

सिक्खों में युद्ध का उत्साह

गोबिंद सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर कदम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुनर्संगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चो पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ कदम उठाये।

  • पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
  • दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।

उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं, और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिंद सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए। बाद में उनकी पत्नी, मां और पिता भी संघर्ष की भेंट चढ़ गए। वह स्वयं भी एक पश्तो क़बीलाई के हाथों उसके पिता की मौत के प्रतिशोधस्वरूप मारे गए। गोबिंद सिंह ने स्वयं को अंतिम गुरू घोषित किया। उसके बाद से पवित्र पुस्तक आदिग्रंथ को ही सिक्ख गुरू होना था। गुरू गोबिंद सिंह आज भी सिक्खों के मन में वीरता के आदर्श और सिक्ख सैनिक संत के रूप में अंकित हैं।

इतिहास

गुरु गोविन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। गुरु गोविन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इस महान शख्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, गुरु गोविन्द सिंह जी को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा यानि खालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है- मानस की जात सभैएक है। गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा था। गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है- "पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरो रूप है खास, खालसा में हो करो निवास।"

जहाँ शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेब को फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने कुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लड़ाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।

एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोविंद सिंह एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने 52कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं- जफरनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गुरु गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं- आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरू मानियहु ग्रंथ। गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है- मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

==खालसा पंथ== 

खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।

  • एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
  • दूसरी सांसारिकता की।

वीरता व बलिदान की मिसालें

  • परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत।
  • दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध।
  • पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी
  • दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना।
  • दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना।

इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर गुरु गोविंदसिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने खालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि "हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।"

अजफरनामा

गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, "चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।" अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।

मृत्यु

गुरु गोविंदसिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन् 1708 ई॰ में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी। आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंदसिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।

  1. 'सत् श्री अकाल'