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इस जनजाति के लोग [[मार्गशीर्ष मास]] में [[दशहरा|दशहरे]] के दिन तथा [[फाल्गुन मास]] में [[लोहा]] गलाने में प्रयुक्त यंत्रों की [[पूजा]] करते हैं। इनका भोजन मोटे अनाज और सभी प्रकार का माँस है। अगरिया [[सूअर]] का माँस विशेष चाव से खाते हैं। इनमें गुदने गुदवाने का भी रिवाज है। [[विवाह]] में वधु शुल्क का प्रचलन है। यह किसी भी [[सोमवार]], [[मंगलवार]] या [[शुक्रवार]] को संपन्न हो सकता है। समाज में [[विधवा विवाह]] की स्वीकृति है। अगरिया लोग उड़द की [[दाल]] को पवित्र मानते हैं और विवाह में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है।
 
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प्राचीन काल में जिस तरह [[असुर]], [[कोल जनजाति|कोलों]] के क्षेत्रों में लुहार का कार्य संपन्न करते रहे, उसी भाँति अगरिया [[गोंड|गोंडों]] के क्षेत्र के आदिवासी लुहार हैं। ऐसा समझा जाता है कि असुरों और अगरियों, दोनों को ही [[आर्य|आर्यों]] के आने से पूर्व ही लोहा गलाने का राज स्वतंत्र रूप से प्राप्त था। अगरिया प्राचीन काल से ही [[लौह अयस्क]] को साफ करके लौह धातु का निर्माण कर रहे हैं। लोहे को गलाने के लिए अयस्क में 49 से 56 प्रतिशत धातु होना अपेक्षित माना जाता है, किंतु अगरिया इससे कम प्रतिशत वाली [[धातु]] का प्रयोग करते रहे हैं। वे लगभग 8 कि.ग्रा. अयस्क को 7.5 कि.ग्रा. चारकोल में मिश्रित कर भट्टी में डालते हैं तथा पैरों द्वारा चलित धौंकनी की सहायता से तीव्र आंच पैदा करते हैं। यह चार घंटे तक चलाई जाती है। इसके बाद आंवा की [[मिट्टी]] के स्तर को तोड़ दिया जाता है और पिघले हुए धातु पिंड को निकालकर हथौड़ी से पीटा जाता है। इससे शुद्ध [[लोहा]] प्राप्त होता है तथा प्राप्त धातु से खेतों के औजार, कुल्हाड़ियाँ और हंसिया इत्यादि तैयार किए जाते हैं।
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प्राचीन काल में जिस तरह [[असुर]], [[कोल जनजाति|कोलों]] के क्षेत्रों में लुहार का कार्य संपन्न करते रहे, उसी भाँति अगरिया [[गोंड|गोंडों]] के क्षेत्र के आदिवासी लुहार हैं। ऐसा समझा जाता है कि असुरों और अगरियों, दोनों को ही [[आर्य|आर्यों]] के आने से पूर्व ही लोहा गलाने का राज स्वतंत्र रूप से प्राप्त था। अगरिया प्राचीन काल से ही [[लौह अयस्क]] को साफ़ करके लौह धातु का निर्माण कर रहे हैं। लोहे को गलाने के लिए अयस्क में 49 से 56 प्रतिशत धातु होना अपेक्षित माना जाता है, किंतु अगरिया इससे कम प्रतिशत वाली [[धातु]] का प्रयोग करते रहे हैं। वे लगभग 8 कि.ग्रा. अयस्क को 7.5 कि.ग्रा. चारकोल में मिश्रित कर भट्टी में डालते हैं तथा पैरों द्वारा चलित धौंकनी की सहायता से तीव्र आंच पैदा करते हैं। यह चार घंटे तक चलाई जाती है। इसके बाद आंवा की [[मिट्टी]] के स्तर को तोड़ दिया जाता है और पिघले हुए धातु पिंड को निकालकर हथौड़ी से पीटा जाता है। इससे शुद्ध [[लोहा]] प्राप्त होता है तथा प्राप्त धातु से खेतों के औजार, कुल्हाड़ियाँ और हंसिया इत्यादि तैयार किए जाते हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.mpinfo.org/mpinfonew/hindi/factfile/jansahriyal.asp |title=मध्य प्रदेश की जनजाति|accessmonthday=28 अक्टूबर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
  
 
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14:10, 29 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

अगरिया मध्य प्रदेश की जनजाति है, जो प्रदेश के मंडला और शहडोल में पाई जाती है। यह जनजाति छत्तीसगढ़ राज्य के ज़िलों में भी पाई जाती है। अगरिया लोगों का प्रमुख देवता 'लोहासुर' है, जिसका निवास धधकती हुई भट्टियों में माना जाता है। ये लोग अपने देवता को काली मुर्गी की भेंट चढ़ाते हैं।

रीति-रिवाज

इस जनजाति के लोग मार्गशीर्ष मास में दशहरे के दिन तथा फाल्गुन मास में लोहा गलाने में प्रयुक्त यंत्रों की पूजा करते हैं। इनका भोजन मोटे अनाज और सभी प्रकार का माँस है। अगरिया सूअर का माँस विशेष चाव से खाते हैं। इनमें गुदने गुदवाने का भी रिवाज है। विवाह में वधु शुल्क का प्रचलन है। यह किसी भी सोमवार, मंगलवार या शुक्रवार को संपन्न हो सकता है। समाज में विधवा विवाह की स्वीकृति है। अगरिया लोग उड़द की दाल को पवित्र मानते हैं और विवाह में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है।

व्यवसाय

प्राचीन काल में जिस तरह असुर, कोलों के क्षेत्रों में लुहार का कार्य संपन्न करते रहे, उसी भाँति अगरिया गोंडों के क्षेत्र के आदिवासी लुहार हैं। ऐसा समझा जाता है कि असुरों और अगरियों, दोनों को ही आर्यों के आने से पूर्व ही लोहा गलाने का राज स्वतंत्र रूप से प्राप्त था। अगरिया प्राचीन काल से ही लौह अयस्क को साफ़ करके लौह धातु का निर्माण कर रहे हैं। लोहे को गलाने के लिए अयस्क में 49 से 56 प्रतिशत धातु होना अपेक्षित माना जाता है, किंतु अगरिया इससे कम प्रतिशत वाली धातु का प्रयोग करते रहे हैं। वे लगभग 8 कि.ग्रा. अयस्क को 7.5 कि.ग्रा. चारकोल में मिश्रित कर भट्टी में डालते हैं तथा पैरों द्वारा चलित धौंकनी की सहायता से तीव्र आंच पैदा करते हैं। यह चार घंटे तक चलाई जाती है। इसके बाद आंवा की मिट्टी के स्तर को तोड़ दिया जाता है और पिघले हुए धातु पिंड को निकालकर हथौड़ी से पीटा जाता है। इससे शुद्ध लोहा प्राप्त होता है तथा प्राप्त धातु से खेतों के औजार, कुल्हाड़ियाँ और हंसिया इत्यादि तैयार किए जाते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मध्य प्रदेश की जनजाति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 अक्टूबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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