छायावाद

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'द्विवेदी युग' के पश्चात हिन्दी साहित्य में कविता की जो धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'छायावाद' की कालावधि सन 1917 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में 'छायावाद' इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को 'छायावादी युग' कहा जाने लगा था। 1916 ई. के आस-पास हिन्दी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार इन सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया। 'छायावाद' शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया। इस युग की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ थे।

क्या है छायावाद?

'छायावाद' के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है, जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्राय: एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। 'छायावाद' के मूल में भी यही नियम काम कर रहा है। इससे पूर्व 'द्विवेदी युग' में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया। प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा, तभी 'छायावाद' का जन्म हुआ और कविता 'इतिवृत्तात्मकता' को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी।

हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई.) के आसपास एक विशेष काव्य धारा का प्रवर्तन हुआ, जिसे 'छायावाद' की संज्ञा दी गई है। यह नामकरण किस आधार पर तथा किसके द्वारा किया गया, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। जहाँ तक 'छाया' और 'वाद' का सम्बन्ध है, छायावाद काव्य के स्वरूप या उसके लक्षणों से इनका कोई मेल नहीं है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विश्वास था कि बंगला में आध्यात्मिक प्रतीकवादी रचनाओं को 'छायावाद' कहा जाता था। अत: हिन्दी में भी इस प्रकार की कविताओं का नाम 'छायावाद' चल पड़ा, किंतु हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस मान्यता का खंडन करते हुए कहा है कि- "बंगला में छायावाद नाम कभी चला ही नहीं"।

छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग

हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं- 'श्रीशारदा' और 'सरस्वती' में क्रमश: सन 1920 और 1921 में मुकुटधर पांडेय और सुशील द्वारा दो लेख 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। अत: कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन 1920 से या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि मुकुटधर पांडेय ने ही इनका सर्वप्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे कि पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिये किया था। किंतु आगे चलकर वही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है। एक ओर जयशंकर प्रसाद लिखते हैं- "मोती के भीतर छाया और तरलता होती है, वैसे ही कांति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति की भंगिमा पर निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ अनुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएं हैं। अपने भीतर से पानी की तरह आन्तर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमय होती है।"

दूसरी ओर महादेवी वर्मा भी प्रसाद के स्वर में स्वर मिलाती हुई कहती हैं- "सृष्टि के बाह्याकार पर इतना लिखा जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अभिव्यक्ति के लिए रो उठा। स्वछंद छंद में चित्रित उन मानव अनुभूतियों का नाम छाया उपयुक्त ही था और मुझे तो आज भी उपयुक्त लगता है।" जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की इन उक्तियों में कोई तर्क नहीं है। जयशंकर प्रसाद जिन गुणों का आख्यान कर रहे हैं, उसके आधार पर तो इस कविता का नाम 'प्रकाश', 'चमक' या 'कांति' होना चाहिए था, या महादेवी वर्मा द्वारा परिगणित विशेषता को लेकर इसे अनुभूति भावुकता आदि किसी नाम से पुकारा जाना चाहिए था, किंतु वास्तविकता यह है कि नामकरण के सम्बन्ध में पूर्वजों के आगे किसी का वश नहीं चलता। कविता की तो बात ही क्या, स्वयं कवियों को भी कुछ ऐसे नाम विरासत में मिले हैं कि उन्हें उपनाम ढूंढने को विवश होना पड़ा है। अत: 'छायावाद' नाम को लेकर ज्यादा ऊहापोह करना अनावश्यक है।[1]

परिभाषाएँ

'छायावाद' का नामकरण भले ही बिना सोचे समझे कर दिया गया हो, किंतु परिभाषाओं की दृष्टि से यह बड़ा सौभाग्यशाली है। विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढंग से छायावाद की इतनी अधिक और विचित्र परिभाषाएँ दी हैं कि उन्हें पढ़कर चाहे 'छायावाद' समझ में आये या न आये, पाठक के मस्तिष्क पर अवश्य 'छायावाद' छा जाता है। 'छायावाद' अपने युग की अत्यंत व्यापक प्रवृत्ति रही है। फिर भी यह देख कर आश्चर्य होता है कि उसकी परिभाषा के संबंध में विचारकों और समालोचकों में एकमत नहीं हो सका।[2] विभिन्न विद्वानों ने 'छायावाद' की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ की हैं-

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'छायावाद' को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो 'रहस्यवाद' के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। 'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में है।... 'छायावाद' एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।" दूसरे अर्थ में उन्होंने 'छायावाद' को चित्र-भाषा-शैली कहा है।
  • महादेवी वर्मा ने 'छायावाद' का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि- "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है। अन्यत्र वे लिखती हैं कि- "छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्-गीथ है"।
  • डॉ. राम कुमार वर्मा ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में कोई अंतर नहीं माना है। 'छायावाद' के विषय में उनके शब्द हैं- "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं- "छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है। परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।"
  • आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का मंतव्य है- "मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से 'छायावाद' की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। 'छायावाद' की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है- एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि 'छायावाद' आधुनिक हिन्दी-कविता की वह शैली है, जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढ़ंग पर प्रकाशित करते हैं।"
  • शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में गहरा संबंध स्थापित करते हुए कहा है- "जिस प्रकार 'मैटर ऑफ़ फैक्ट' (इतिवृत्तात्मक) के आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है।"
  • गंगाप्रसाद पांडेय ने 'छायावाद' पर इस प्रकार से प्रकाश डाला है- "छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। विश्व की किसी वस्तु में एक अज्ञात सप्राण छाया की झांकी पाना अथवा उसका आरोप करना ही 'छायावाद' है। जिस प्रकार छाया स्थूल वस्तुवाद के आगे की चीज है, उसी प्रकार रहस्यवाद 'छायावाद' के आगे की चीज है।"
  • जयशंकर प्रसाद ने 'छायावाद' को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है- "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे 'छायावाद' के नाम से अभिहित किया गया।"
  • डॉ. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं।
  • डॉ. नगेन्द्र 'छायावाद' को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं और साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि- "छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव पर अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए, उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है। उनके विचार से, युग की उदबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में 'छायावाद' के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे 'छायावाद' को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं।
  • डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक "छायावाद" में विश्वसनीय तौर पर दिखाया कि 'छायावाद' वस्तुत: कई काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह उस "राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति" है, जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।

उपर्युक्त परिभाषाओं से 'छायावाद' की अनेक परिभाषाएँ स्पष्ट होती हैं, किंतु एक सर्वसम्मत परिभाषा नहीं बन सकी। उपरिलिखित परिभाषाओं से यह भी व्यक्त होता है कि 'छायावाद' स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफी समीप है। उपर्युक्त परिभाषाओ को समन्वित करते हुए यह कहा जा सकता है कि "संसार के प्रत्येक पदार्थ में आत्मा के दर्शन करके तथा प्रत्येक प्राण में एक ही आत्मा की अनुभूति करके इस दर्शन और अनुभूति को लाक्षणिक और प्रतीक शैली द्वारा व्यक्त करना ही 'छायावाद' है।" आधुनिक काल के 'छायावाद' का निर्माण भारतीय और यूरोपिय भावनाओं के मेल से हुआ है, क्योंकि उसमें एक ओर तो सर्वत्र एक ही आत्मा के दर्शन की भारतीय भावना है और दूसरी ओर उस बाहरी स्थूल जगत के प्रति विद्रोह है, जो पश्चिमी विज्ञान की प्रगति के कारण अशांत एवं दु:खी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छायावाद और हिन्दी काव्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 अक्टूबर, 2013।
  2. छायावाद क्या है (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 अक्टूबर, 2013।

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