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*इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।  
 
*इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।  
 
*देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।  
 
*देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।  
*पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में [[मेंहदी]] से स्वस्तिक चिह्व बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।<ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक">{{cite web |url=http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=806 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=लेक्स पेराडाइस |language=हिन्दी }}</ref>  
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*पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में [[मेंहदी]] से स्वस्तिक चिह्व बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।<ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक">{{cite web |url=http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=806 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=लेक्स पेराडाइस |language=[[हिन्दी]] }}</ref>  
 
*कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाजे पर, [[वेद|वेदों]]-[[पुराण|पुराणों]] में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और आभूषणों में सजने लगा है।
 
*कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाजे पर, [[वेद|वेदों]]-[[पुराण|पुराणों]] में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और आभूषणों में सजने लगा है।
 
*स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, [[अग्निदेव|अग्नि]], [[इन्द्र]], [[वरुण देवता|वरुण]] एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।  
 
*स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, [[अग्निदेव|अग्नि]], [[इन्द्र]], [[वरुण देवता|वरुण]] एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।  
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स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।
 
स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।
  
[[अमरकोश]] में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी [[दिशा|दिशाओं]] में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या '''वसुधैव कुटुम्बकम्''' की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।<ref>{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2058038.cms?prtpage=1 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स |language=हिन्दी}}</ref>
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[[अमरकोश]] में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी [[दिशा|दिशाओं]] में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या '''वसुधैव कुटुम्बकम्''' की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।<ref>{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2058038.cms?prtpage=1 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
  
 
==स्वस्तिक का आकृति==
 
==स्वस्तिक का आकृति==

11:39, 8 मार्च 2011 का अवतरण

स्वस्तिक
Swastika
  • स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिन्ह और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिन्ह अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है।
  • अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है।
  • किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं।
  • किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या जमीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
  • इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।
  • देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
  • पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में मेंहदी से स्वस्तिक चिह्व बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।[1]
  • कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाजे पर, वेदों-पुराणों में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और आभूषणों में सजने लगा है।
  • स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।
  • स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। इसके अपमान व गलत प्रयोग से बचना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा, चिन्ता रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति भी दिलाता है।
  • ज्योतिष में इस मांगलिक चिन्ह को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वास्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।
  • हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्रु शमन करता है। स्वास्तिक 27 नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिन्ह नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।

स्वस्तिक का अर्थ

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिन्ह ही मानते हैं । किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है --- शुभ और "अस्ति" का --- होना । संस्कृ्त व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है -- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो" ।

स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिन्ह 'स्वस्तिक' कहा गया है।

स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम सवालों के एक जवाब के रूप में किया जाता है। शायद इसलिए भी यह निशान मानव जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दर, श्रेयस्कर, अस् अर्थात् उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश हो, वह स्वस्तिक है।

स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।

अमरकोश में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।[2]

स्वस्तिक का आकृति

स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। ( या स्वास्तिक बनाने के लिए धन चिन्ह बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वास्तिक बन जाता है। ) रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक (घडी की सूई चलने की दिशा) कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरूष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।

ऊं एवं स्वास्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। स्वस्तिक चिह्व की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल की प्रतीक माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल और केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह ॐ का ही विकृत रूप है। इन रेखाओं को आचार्य अभिनव गुप्त ने नाद ब्रह्म अथवा अक्षर ब्रह्म का परिचायक माना है। नाद के पश्यंती, मध्यमा तथा बैखरी-तीन रूप हैं। अत:स्वस्तिक ब्रह्म का प्रतीक है।

श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिन्ह (+) जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।

प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि किले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीके से निर्मित किलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा किले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण किले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है । परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे । ऎसी मजबूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए किले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था । यहाँ स्वस्तिक किला / दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था ।

स्वस्तिक की ऊर्जा

स्वस्तिक का आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिन्हों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है -- बोविस । इस यंत्र का आविष्कार जर्मन और फ्रांस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है। ऊं (70000 बोविस) चिन्ह से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में है। इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर, गुरूद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफ़ी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं, कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों, मन्दिरों, पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिन्हों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।

लाल रंग का स्वस्तिक

लाल रंग का स्वस्तिक

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिन्ह व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्व

वेदों में स्वस्तिक चिह्न के बनावट की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्व को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रुप है। स्वस्तिक में बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सूर्य को समस्त देव शक्तियों का केंद्र और भूतल तथा अन्तरिक्ष में जीवनदाता माना गया है। स्वस्तिक को सूर्य की प्रतिमा मान कर इन्हीं विशेषताओं के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत करने का उपक्रम किया जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का सुदर्शन चक्र माना गया है। उसमें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है। विष्णु की चार भुजाओं की संगति भी कहीं-कहीं सुदर्शन चक्र के साथ बिठाई गई है। स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-चक्र का भी प्रतीक माना गया है। सूर्य का प्रतीक सदैव विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर मंडल हैं। वह भगवान विष्णु का महान सुदर्शन चक्र है जो समस्त लोक की सृजनात्मक एवं चालक सर्वोच्च सता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के रूप में माना गया है जो विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाकर सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल, यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-स्थल। इससे सिद्ध होता है कि स्वस्तिक सृजनात्मक है। स्वस्तिक शास्त्रीय दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।

वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं ज्योतिर्लिंग का सूचन तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।

ॐ को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिन्ह ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।

स्वस्तिक को इण्डो-यूरोपीय प्राचीन देवता, वायु देवता, अग्नि पैदा करने का यंत्र नारी और पुरूष का मिलन, नारी, गणपति एवं सूर्य का प्रतीक माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस प्रकार स्वस्तिक छोटा-सा प्रतीक है, पर उसमें विराट सम्भावनाएं समाई हैं। हम उसका महत्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा करें, यही उचित है।

स्वस्ति मंत्र

स्वस्तिक में भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरूआत की जाती है। यह मंत्र है -

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥

महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो। इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।

स्वस्तिक की प्राचीनता

उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में 7000 साल पुराने स्वस्तिक

स्वस्तिक आर्यत्व का चिन्ह माना जाता है। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई॰ सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।[3] स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।[4] स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।[5] और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।[5] शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिन्ह मिलता है।[6] `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिन्ह अलंकरण का चिन्ह एवं अलंकरण का चिन्ह माना है।

ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिला लेखों, रामायण, हरवंश पुराण महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। भारत में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त पुरावशेषों में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हजार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिन्ह का प्रयोग करती थी। सिन्धु-घाटी सभ्यता के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में हाथी स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है। पश्चिम भारत के अनेक गुहा-मंदिरों यथा -- कुंडा, कार्ले, जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। साँची, भरहुत और अमरावती के स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, उदयगिरि की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। मत्स्य पुराण में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। पाणिनी की व्याकरण में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। पाली भाषा में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

ईसा पूर्व में स्वस्तिक आकृति के दायें और बायें पक्ष से आदमी लापरवाह थे। उस समय इस रहस्यमय आकृति की गंभीरता से लोग बेखबर थे। तब यह धार्मिक रूप से दो सिद्धान्तों के विकास और विनाश को दर्शाता था। स्वस्तिक का महत्व समाज और धर्म दोनों ही स्थानों में है। भारतवर्ष में एक विशाल जनसमूह स्वस्तिक निशान का उपयोग करता है। कोई इसे सजाने के तौर पर तो कोई इसका उपयोग धर्म और आत्मा को जोड़कर करता है। दक्षिण भारत में जहां इसका उपयोग दीवारों और दरवाजों को सजाने में किया जाता है, वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में इस आकृति को तंत्र-मंत्र से जोड़कर देखा जाता है। भारत के पूर्वी क्षेत्रों में इस आकृति को एक पवित्र धार्मिक चिह्न के रूप में माना जाता है।

विश्वव्यापी प्रभाव

विभिन्न धर्मों में स्वस्तिक

हमारे मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक एक ऐसा चिह्व है, जो अत्यन्त प्राचीन काल से लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है। भारत में तो इसकी जडें गहरायी से पैठी हुई हैं ही, विदेशों में भी इसका काफ़ी अधिक प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान है कि व्यापारी और पर्यटकों के माध्यम से ही हमारा यह मांगलिक प्रतीक विदेशों में पहुँचा। भारत के समान विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक चिह्व माना गया। इसके नाम अवश्य ही अलग-अलग स्थानों में, समय-समय पर अलग-अलग रहे। स्वस्तिक संस्कृत का शब्द है। स्वस्तिक शब्द स्वस्ति से बना है। यह हम सभी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। संभवत:यहीं से विश्व के अनेक देशों में स्वस्तिक का विस्तार हुआ होगा। स्वस्तिक शब्द का प्रयोग पश्चिमी देशों में भी होता है। विभिन्न देशों में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न है। स्वस्तिक चिह्न का डिजाइन इजिप्सन क्रास, चाइनीज ताउ, रोसीक्रूसियंस और क्रिश्चियन क्रास से मिलता जुलता है। विभिन्न आकृतिओं से मिलने वाला यह चिह्न हर युग में अपना अलग-अलग महत्व भी रखता है। सनातन धर्म और जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म, हर धर्म और युग में अपनी महत्ता के साथ स्वस्तिक उपस्थित है।

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियाँ मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद, रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री' लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और स अक्षर अंकित किया जाता है जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।

स्वास्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। आर्य धर्म और उसकी शाखा-प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मो में उसकी समान मान्यता है। बौद्ध और जैन लेखों से सम्बन्धित प्राचीन गुफाओं में भी यह प्रतीक मिलता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वास्तिक का प्रयोग होता रहा है। महात्मा बुद्ध की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्व मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्व हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में बौद्ध धर्म के प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही जापान में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हुए मिले हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को मन जी कहते हैं और धर्म-प्रतीकों में उसका समावेश करते हैं। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिन्ह मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में हेरंब तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। मिस्र में सभी देवताओं के पहले कुमकुम से क्रॉस की आकृति बनाई जाती है। वह एक्टोन के नाम से पूजित है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ईरान, यूनान, मिश्र, मैक्सिको और साइप्रस में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्व हैं। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में अपोलो देवता की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्व बना हुआ है। टर्की में ईसा से 2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। एथेन्स में शत्रागार के सामने यह चिह्व बना हुआ है। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्व देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि ईसाई धर्म के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में चीनी राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी। तिब्बती स्वस्तिक को अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है। [1]

बेल्जियम में नामूर संग्रहालय में एक ऐसा उपकरण है जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिन्ह बने हुए हैं तथा उन चिन्हों के बीच में एक स्वस्तिक चिन्ह भी है। इटली के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्व हैं। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिन्ह हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक चिन्ह मिलते हैं। स्वस्तिक को सुख और सौभाग्य का प्रतीक मानते हैं। वे आज भी इसे अपने आभूषणों में धारण करते हैं। जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की नाजी पार्टी के लोग स्वस्तिक के निशान को बहुत ही महत्वपूर्ण एवं संभावनाओं से भरा हुआ माध्यम मानते थे। जर्मनी के तानाशाह एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिन्ह (वामावर्त स्वस्तिक) अपनी सेना के प्रतीक रूप में और ध्वज में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिन्ह अंकित था। उल्टा स्वास्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई।

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण

वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं। स्वस्तिक चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर। चारों दिशाओं के देव पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण, उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं का बोध कराती हैं। ईशान, अग्नि, नेऋत्य, वायव्य। स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक की चारों दिशाएँ से चार युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग की जानकारी मिलती है। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।

स्वस्तिक की चार भुजाओं में जिन धर्म के मूल सिद्धांतों का बोध होता है। समवसरण में भगवान का दर्शन चतुर्थ दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य। उपवन भूमि में चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन होते हैं। चार अनुयोग- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग। चार निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ। मुख्य चार प्राण- इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास। चार संज्ञा- आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप। चार गतियाँ- देव, मनुष्य, तिर्यन्च, नरक।

प्राचीन काल में जिन वास्तु नियमों को विद्वानो ने लिख गए हैं उनका महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। परन्तु कई कारणों से इन नियमों को पालन न करने की सूरत में घर में किसी न किसी तरह का वास्तु दोष आ ही जाता है। इन वास्तु दोषों के निवारण के उपाय किसी प्रशिक्षित वास्तु विशेषज्ञ से कराने चाहिए। लेकिन फौरी तौर पर एक स्वस्तिक प्रयोग बता रहें हैं जिससे वास्तु की समस्या का कुछ हद तक निवारण हो सकता है।

वास्तु दोष को दूर करने के लिए बनाया गया स्वस्तिक 6 इंच से कम नहीं होना चाहिए। घर के मुख्य़ द्वार के दोनों ओर जमीन से 4 से 5 फुट ऊपर सिंदूर से यह स्वस्तिक बनाऐं। घर में जहां भी वास्तु दोष है और उसे दूर करना संभव न हो तो वहां पर भी इस तरह का स्वस्तिक बना दें। जिस भी दिशा की शांति करानी हो उस दिशा में 6" x 6" का तांबे का स्वस्तिक यंत्र पूजन कर लगा देना चाहिए। इस यंत्र के साथ उस दिशा स्वामी का रत्न भी यंत्र के साथ लगा दें। नींव पूजन के समय भी इस तरह के यंत्र आठों दिशाओं व ब्रह्म स्थान पर दिशा स्वामियों के रत्न के साथ लगा कर गृहस्वामी के हाथ के बराबर गड्ढा खोद कर, चावल बिछा कर, दबा देना चाहिए। पृथ्वी में इन अभिमंत्रित रत्न जड़े स्वस्तिक यंत्र की स्थापना से इनका प्रभाव काफ़ी बड़े क्षेत्र पर होने लगता है। दिशा स्वामियों की स्थिति इस प्रकार है- ब्रह्म स्थान-माणिक, पूर्व-हीरा, आग्नेय-मूंगा, दक्षिण-नीलम, नैऋत्य-पुखराज, पश्चिम-पन्ना, वायव्य-गोमेद, उत्तर-मोती, इशान-स्फटिक।

विधि :-- शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90 डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनाएँ। केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है।

स्वस्तिक चिन्ह लगभग हर समाज में आदर से पूजा जाता है क्योंकि स्वस्तिक के चिन्ह की बनावट ऐसी होती है, कि वह दसों दिशाओं से सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ खींचता है। इसीलिए किसी भी शुभ काम की शुरुआत से पहले पूजन कर स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है। ऐसे ही शुभ कार्यो में आम की पत्तियों को आपने लोगों को अक्सर घर के दरवाजे पर बांधते हुए देखा होगा क्योंकि आम की पत्ती ,इसकी लकड़ी ,फल को ज्योतिष की दृष्टी से भी बहुत शुभ माना जाता है। आम की लकड़ी और स्वास्तिक दोनों का संगम आम की लकड़ी का स्वस्तिक उपयोग किया जाए तो इसका बहुत ही शुभ प्रभाव पड़ता है। यदि किसी घर में किसी भी तरह वास्तुदोष हो तो जिस कोण में वास्तु दोष है उसमें आम की लकड़ी से बना स्वास्तिक लगाने से वास्तुदोष में कमी आती है क्योंकि आम की लकड़ी में सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करती है। यदि इसे घर के प्रवेश द्वार पर लगाया जाए तो घर के सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। इसके अलावा पूजा के स्थान पर भी इसे लगाये जाने का अपने आप में विशेष प्रभाव बनता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक (हिन्दी) लेक्स पेराडाइस। अभिगमन तिथि: 8 अक्टूबर, 2010
  2. आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 8 अक्टूबर, 2010
  3. एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24
  4. यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72
  5. 5.0 5.1 दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242
  6. दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394

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