अम्बा

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Disamb2.jpg अम्बा एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अम्बा (बहुविकल्पी)

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अम्बा काशीराज इन्द्रद्युम्न की तीन कन्याओं में ज्येष्ठ थी। भीष्म ने अपने दो सौतले छोटे भाईयों- विचित्रवीर्य और चित्रांगद के विवाह के लिए काशीराज की पुत्रियों का अपहरण किया था। भीष्म के पराक्रम के कारण अम्बा उन पर मुग्ध थी और उनसे विवाह करना चाहती थी। किन्तु भीष्म आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अत: यह विवाह सम्पन्न न हो सका। अपहरण की घटना के पूर्व अम्बा का विवाह शाल्व के साथ होना निश्चित हो चुका था। परन्तु इस घटना के कारण उन्होंने भी अम्बा से विवाह करना अस्वीकार कर दिया। प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर अम्बा ने कठिन तपस्या की और शिव का वरदान प्राप्त कर आगामी जन्म में शिखण्डी के रूप में अवतीर्ण होकर अर्जुन के द्वारा भीष्म को जर्जर कराकर बदला लिया। भीष्म इस वास्तविकता से अवगत थे।

कथा

भीष्म (देवव्रत) को अपने सौतेले भाई विचित्रवीर्य का विवाह करना था। इसके लिए वे क्षत्रिय-कन्याओं की खोज में थे। इसी बीच काशिराज की कन्याओं के स्वयंवर की खबर मिली। ठीक समय पर वे काशिराज के यहाँ पहुँचे और समवेत राजमण्डली को परास्त करके उन कन्याओं को लाकर उन्होंने माता सत्यवती के सुपुर्द कर दिया। कन्याओं का नाम अम्बा, अम्बिका, और अम्बालिका था। अम्बा सबसे बड़ी थी। उसने शाल्व को वरमाला पहनाने का निश्चय कर रखा था। हस्तिनापुर में पहुँचकर उसने अपना उक्त अभिप्राय प्रकट करके कहा कि मैं दूसरे को हृदय से वरण कर चुकी हूँ, अतएव विचित्रवीर्य के साथ मेरा विवाह करना अनुचित है।

शाल्व द्वारा तिरस्कार

भीष्म और सत्यवती ने उदारता दिखलाकर अम्बा को शाल्व के पास जाने की आज्ञा दे दी। किंतु जब वह शाल्व के पास पहुँची तो उसने इसे ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि तुम तो भीष्म के यहाँ से आई हो तुममें कुछ दोष देखकर ही उन्होंने तुम्हें त्याग दिया है। अम्बा ने शाल्व को सच्चा हाल समझाने की बड़ी चेष्टा की, किंतु कुछ फल नहीं हुआ। बेचारी की ज़िन्दगी बरबाद हो गई। अब वह भीष्म के यहाँ भी न जा सकती थी। जाती तो वे लोग कहते कि दूसरे पुरुष पर आसक्तरमणी को अपनी गृहिणी बनाने का दायित्व कौन ले। अंत में वह बड़ी दुखी होकर वन में ऋषियों के पास पहुँची। उन लोगों ने सब हाल सुनकर उसको ढाँढ़स बँधाया। एक दिन उसकी भेंट उसके नाना राजर्षि होत्रवाहन से हो गई। उनकी सलाह मानकर अम्बा महात्मा परशुराम जी की शरण में गई। उन्होंने अपने मित्र की नातिन के दु:ख से दुखी होकर भीष्म के साथ घोर युद्ध किया। इस युद्ध में भीष्म ने बड़ा पराक्रम प्रकट किया। परशुराम जी से उन्होंने धनुर्वेद सीखा इस नाते वे परशुराम जी के शिष्य थे। इस संबंध का निर्वाह उन्होंने उचित रीति से किया। युद्ध आरम्भ करने से पहले उन्होंने गुरु के चरणों की वन्दना करके उनसे युद्ध के लिए अनुमति ली और आशीर्वाद प्राप्त किया तथा क्षत्रिय-धर्म की ओर देखकर डटकर युद्ध किया। बड़ा विकट संग्राम हुआ। कोई किसी से हार नहीं मानता था। अंत में अपने पितरों की आज्ञा मानकर परशुराम को युद्ध बन्द करना पड़ा। यह विजय पाकर भी भीष्म ने किसी प्रकार का अभिमान प्रकट न करके गुरु की वन्दना ही की थी।

अम्बा द्वारा तपस्या

अब अम्बा ने परशुराम जी के उपदेश से अपनी मनोरथ-सिद्धि के लिए, महादेव जी की आराधना करना आरम्भ कर दिया। आशुतोष ने प्रसन्न होकर उसे भीष्म के वध करने का वरदान दे दिया। बस, अम्बा ने एक चिता बनाकर अपनी देह को भस्म कर दिया। इसके अनंतर वह राजा द्रुपद के यहाँ कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। उसका नाम 'शिखण्डिनी' था। आगे चलकर वह 'स्थूणकर्ण' नामक यक्ष से पुरुषत्व का विनिमय करके शिखण्डी नाम से प्रसिद्ध हुई। अंत में इसी को युद्ध में भीष्म का वध करने में सफलता मिली।

दृष्टिकोण

अम्बा ने अपने हाथों आपत्ति मोल ली। यदि वह शाल्व की चिंता छोड़ देती तो कौरवों के रनिवास से उसे कौन हटा सकता था। पर कष्ट यहाँ भी रहता। उसकी दोनों बहनों पर जैसी बीती वह प्रकट ही है। भीष्म को अपनी विपत्ति का मूल कारण मानकर वह उन्हें अपना शत्रु समझती थी। उनसे बदला लेने के लिए उससे जितने उपाय बन पड़े, उन सबको उसने किया। इतने बड़े महात्मा परशुराम जी तक को इस झगड़े में घसीटा और सफलता न पाने पर भी उसने आशा नहीं छोड़ी। कठोर तपस्या द्वारा पार्वतीपति को प्रसन्न कर उनसे वरदान माँगा। वह चाहती तो भीष्म का वध की क्षमता माँगने के बदले अपने कल्याण का साधन कर लेती, किंतु उसे तो बदला लेना था। इसके आगे उसकी दृष्टि में मोक्ष का भी कुछ महत्त्व न था। इसी को लगन कहते हैं। जिसमें ऐसी लगन होती वह सब कुछ कर लेता है। इतनी तपस्या करने पर भी अम्बा को दूसरे जन्म में पुरुष-शरीर नहीं मिला। पहले कन्या होकर तब विनिमय में पुरुष-शरीर मिला।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 61 |

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