उत्तरा -सुमित्रानन्दन पंत

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उत्तरा -सुमित्रानन्दन पंत
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कवि सुमित्रानन्दन पंत
मूल शीर्षक उत्तरा
प्रकाशन तिथि 1949 ई.
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार काव्य संकलन
विशेष 'उत्तरा' का आरम्भ, 'युगविषाद', 'युगसन्धि', 'युगसंघर्ष' जैसी रचनाओं से होता है जिनमें कवि अपनी पीढ़ी के संघर्षों से उत्पन्न घनीभूत पीड़ा को वाणी देता है।

उत्तरा सुमित्रानंदन पंत का दसवाँ काव्य-संकलन है। इसका प्रकाशन समय 1949 ई. है। उत्तरा को 'स्वर्णधूलि' और 'स्वर्णकिरण' का ही भाव प्रसार कहना उपयुक्त होगा क्योंकि इसमें भी कवि ने चेनतावादी अरविन्द दर्शन को मूलाधार माना है।

संकलन की विशेषताएँ

इस संकलन की 75 रचनाओं में कवि की भावधारा का रूप प्रायः वही है जो उपर्युक्त दो संकलनों में मिलता है, परंतु भावभूमि अधिक व्यापक, सुस्पष्ट और परिमार्जित हो गयी है तथा अभिव्यंजना भी सहज, प्रासादिक एवं विविध है। 'उत्तरा' की प्रस्तावना में कवि ने अरविन्द-दर्शन के ऋण को स्वीकार करने के साथ अपनी नयी मनोभूमिका विश्लेषण भी किया है और अपने नवीन जीवन-तंत्र की व्याख्या भी प्रस्तुत की है जो भौतिक और आध्यात्मिक जीवन-पद्धतियों के समीकरण एवं परिष्करण में विश्वास रखता है। कवि इस भूमिका में भारतीय दर्शन के प्रति एक नया दृष्टिकोण सामने लाता है-

भारतीय दर्शन भी आधुनिक भौतिक दर्शन (मार्क्सवादी) की तरह सत्य के प्रति एक उपनयन (एप्रोच) मात्र है, किंतु अधिक परिपूर्ण, क्योंकि वह पदार्थ, प्राण (जीवन), मन तथा चेतना (स्पिरिट), रूपी मानव, सत्य के समस्त धरातलों का विश्लेषण तथा संश्लेषण कर सकने के कारण उपनिषत् (पूर्ण एप्रोच) बन गया है।

  • इस चिंतन को आगे बढ़ाकर कवि गाँधीवादी विचारधारा को विश्वचिंतन का अनिवार्य अंग मानता है। पंत के विचार में -

भारत का दान विश्व को राजनीतिक तंत्र या वैज्ञानिक तंत्र का दान नहीं हो सकता, वह संस्कृत और विकसित मनोयंत्र की ही भेंट होगी। इस युग के महापुरुष गांधीजी अहिंसा को एक व्यापक सांस्कृतिक प्रतीक के ही रूप में दे गये हैं, जिसे हम मानव-चेतना का नवनीत, अथवा विश्वमानवता का एकमात्र सार कह सकते हैं।"

इस प्रकार कवि गांधीवाद के सत्य अहिंसा के सिद्धांतों को अंत: संगठन (संस्कृति) के दो अनिवार्य उपादान मानता है, परंतु सत्य की व्यवस्था में उसने दो भेद माने हैं- एक ऊर्ध्व अथवा आध्यात्मिक और दूसरा समदिक जो हमारे नैतिक और सामाजिक आदर्शों के रूप में विकासोन्मुख होता है। इस योजना के द्वारा कवि को अपने नये राजनीतिक और गांधीवाद के साथ रखने की सुविधा प्राप्त हुई है। फलत: वह मानव-विकास के अंतर्वहिश्चेतनास्रोतों को अधिक व्यापक और संतुलित चिंतन दे सका है। 'उत्तरा' की कविताएँ इसी मनोभूति का काव्यचित्र हैं। उनमें चिंतन की अपेक्षा ग्रहण, आस्वादन और आनन्द ही अधिक उभरा है। इसी में उनकी विशिष्टता भी समझी जा सकती है।

नये युग की गीता

'उत्तरा' के गीत नये युग की गीता है। इन गीतों में सद्य: स्वतंत्र भारत की अंतरात्मा के पुनर्निर्माण की चेतना स्पष्ट है। गीतों की भूमि बौद्धिक वाद-विवाद को प्रश्रय नहीं देती। कवि का मन अतर्क्य, अचिंत्य है। वह क्रांतदर्शी है। नये भू-मन की अनिवार्यता के प्रति उसका दृढ़ विश्वास है और वह उसका अभिनन्दन करना चाहता है। उसकी आस्था है कि इस नये परिवर्तन को पहले कवि ही अपने मन में मूर्तिमान करेगा। इसीलिए उसके कई गीतों में उसकी भावसाधना के स्वरूप को वाणी मिली है। यहाँ वह नवजीवन का शिल्पी कलाकार बन जाता है जिसका प्रत्येक प्रहार प्रस्तर के उर में छिपी नवमानवता को उत्कीर्ण करने में समर्थ है।

  • 'स्वप्नक्रांत' शीर्षक रचना में वह अपने उत्तरदायित्व का प्रकाशन इन शब्दों में करता है-

"स्वप्न-भार से मेरे क्न्धे,
झुक पड़ते भूपर,
कलांत भावना के पग डगमग,
कँपते उर में नि:स्वर।
ज्वालगर्भ शोणित का बादल,
लिपता धराशिखर पर उज्ज्वल,
नीचे, छाया की घाटी में जगता क्रन्दन मर्मर।"

  • इसी प्रकार 'युगसंघर्ष' में:

"गीतक्रांत रे इस युग के कवि का मन,
नृत्यमत्त उसके छन्दों का यौवन।
वह हँस-हँसकर चीर रहा तम के धन,
मुरली का मधुरव कर भरता गर्जन।
नव्य चेतना से उसका उर ज्योतित,
मानव के अंतवैभव से विसामित।
युगविग्रह में उसे दीखती बिंबित,
विगत युगों की रुद्ध चेतना सीमित।"

  • 'जीवनदान','स्वप्न-वैभव','अवगाहन','भू-स्वर्ग','गीताविभव','नव-पावक','अनुभूति','काव्यचेतना' और 'गीतविहग' शीर्षक रचनाओं में कवि की अपने प्रति जागरूकता और आस्था ही प्रकट होती है। उसका विश्वास है कि वह नयी चेतना का अग्रदूत है। वह कहता है-

"मैं रे केवल उन्मन मधुकर,
भरता शोभा स्वप्निल गुंजन,
कल आयेंगे उर तरुण भृंग,
स्वर्णिम मधुकण करने वितरण (नवपादक)।"

इन रचनाओं में हम कवि को केवल उद्गाता के रूप में ही नहीं पाते, वह नये यज्ञ का अध्वर्यु भी बन जाता है। सामान्यत: यह आरोप लगाया जाता है कि पंत का चेतनावाद उनकी मौलिक प्रेरणा नहीं है, परंतु कवि ने अरविंदवाद की भूमिका पर किस प्रकार आस्था, प्रेम, उल्लास और सौन्दर्य के नये-नये रंगों की रंगोली बनायी है, इसकी ओर आलोचकों का ध्यान ही नहीं जाता। विचार, धर्म और दर्शन काव्य के क्षेत्र से बहिष्कृत नहीं किये जा सकते। देखना यह है कि उनमें कवि के स्वप्न बन जाने की सामर्थ्य है या नहीं अथवा वे कवि की कल्पना और भावुकता को गर्भित करने में सफल हैं या नहीं। पंत की रचनाओं में दिव्य जीवन की दार्शनिक और ऊहात्मक अभिव्यक्ति नहीं हुई है। वे भावप्रवण कवि की प्रत्यक्षानुभूति और संकल्पसिद्धि के उल्लास से ओत-प्रोत हैं। उनमें बहिरंतर-रूप को कल्पना,भावना, सौन्दर्य और भावयोग को विषय बनाया गया है। अत: इन रचनाओं को हम अरविन्दवाद का काव्यसंस्करण अथवा भावात्मक परिणति भी मान सकते हैं।

पीढ़ी का संघर्ष

'उत्तरा' का आरम्भ, 'युगविषाद', 'युगसन्धि', 'युगसंघर्ष' जैसी रचनाओं से होता है जिनमें कवि अपनी पीढ़ी के संघर्षों से उत्पन्न घनी भूत पीड़ा को वाणी देता है। इस मनोभाव से कवि का शीघ्र ही त्राण हो जाता है और वह चित्सत्ता के प्रति विनत होकर प्रार्थी होता है-

"ज्योतिद्रवित हो, हे घन।
छाया संशय को तुम,
तृष्णा करती गर्जन,
ममता विद्युत-नर्तन,
करती उर में प्रतिक्षण।
करुणा-धारा में झर स्नेह-
अश्रु बरसा कर,
व्यथा-भार उरका हर,
शांत करो आकुल मन।" (अंतर्व्यथा)

वह प्रार्थना उसके मन में जागरण के नये द्वार खोल देती है। स्वयं कवि नव मानव का प्रतीक बन जाता है और 'अग्निचक्षु' कहकर अपना अभिवादन करता है। इस नव मानव को घेरकर ही उसके नव-मानववादी सपने मँडराते हैं। 'उत्तरा' में इन नये सपनों को मुक्त छोड़ दिया गया, किसी बौद्धिक तंत्र में नहीं बाँधा गया। इसी से उनमें भावोद्वेलन की अपार शक्ति है। 'भू-जीवन', 'भू-यौवन', 'भू-स्वर्ग' और 'भू-प्रांगण' शीर्षक रचनाओं में उत्तर पंत भावजगत की जिस मधुरिमा को वाणी देते हैं, वह अंतर्राष्ट्रीय ही नहीं, सार्वभौमिक है क्योंकि उसका उत्स मानव की अंतरात्मा है। पंत की इस नयी विचारणा को भू-वाद कहा गया है और स्वयं उन्होंने भूमिकाओं और निबन्धों में अपने इस नये जीवन-दर्शन को तंत्र की व्यवस्था देने की चेष्टा की है परंतु कविता में जो मनोमय स्वप्न-सृष्टि इस विचारणा से जाग्रत है उसकी अपनी सार्थकता है। वह चिर नवीन जीवननैषणा के सौरभ से गन्धमधुर बन गयी है। कवि ने कुछ रचनाओं में जैसे- 'जागरण-गान','उद्धोधन' आदि में भारत के तारुण्य को इस 'असिधारव्रत' के लिए ललकारा है जो मनोदधि का मंथन कर वृद्ध धरा पर नये चेतना-स्वर्ग का निर्माण करने में समर्थ है। उससे मानव को देवोत्तर और भारतभू को स्वर्गभू बनाने की चुनौती दी है।

प्रकृति-काव्य

'उत्तरा' का प्रकृति-काव्य भी एक नयी सुषमा से ओतप्रोत है जो 'स्वर्णकिरण' की प्रकृति चेतना की परिणति है परंतु उसमें भावना और सौन्दर्य चेतना के जो शत-शत कमल खिले हैं, वे अपनी प्रतिभा में स्वयं पंत के प्रौढ़ व्यक्तित्व और उनकी अंत: साधना का जैसा बहुमुखी, सार्थक और समर्थ प्रकाशन है वैसा कदाचित कोई दूसरा संकलन नहीं। कवि का विषादग्रस्त मन अनेक विचारविवर्तों और भाववर्तों में खुलकर नव जागरण की दिपशिखा में बदल जाता है। युग के गरलका आकण्ठ पान कर उसने नीलकंठ शिव की भाँति नवचेतना का वरदान ही बिखेरा है। इस आंतरिक और अध्यात्मिक साधना की परिपूर्णता और उत्कर्षमयता का प्रतीक वे प्रकृति रचनाएँ हैं जो मानव-चेतना के रूपांतर को ही नया रूप रंग देती हैं।

अध्यात्म चेतना का महागीत

इसमें सन्देह नहीं कि 'गुंजन' की भाँति ही 'उत्तरा' भी कवि की अंतर्मुखी सौन्दर्यसाधना और अध्यात्म चेतना की महागीति है। उसकी स्फुट रचनाओं में अतिमानसी ऊर्ध्व-चेतना और अधिमानसी-चेतना के सारे सरगम दौड़ गये हैं। कुछ आत्मा के अकुंठित और अपरिमेय सौन्दर्य एवं उल्लास के नाते ही मनोरम हो उठा है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 48।

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