गंगेशोपाध्याय

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गंगेशोपाध्याय एक दार्शनिक है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में गंगेशोपाध्याय का स्थान मूर्धन्य विचारकों में माना जाता है। उनके द्वारा 'तत्वचिंतामणि' नामक ग्रन्थ उनकी अमर एवं महानतम कृति है। इस ग्रन्थ के साथ ही भारतीय तर्कशास्त्र का नवयुग प्रारम्भ होता है और इसके अध्ययन के बिना भारतीय दर्शन का ज्ञान अधूरा माना जाता है।

जन्म

गंगेशोपाध्याय का जन्म मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका जन्म स्थान बिहार में दरभंगा से 12 मील दक्षिण पूर्व कमला नदी के तट पर स्थित 'करियों' ग्राम माना जाता है। गंगेश के जन्म काल के विषय में अनेक विवाद हैं, परन्तु सामान्यत: यह माना जाता है कि उनका जन्म ईसवी 12वीं शताब्दी के अंतिम चरण अथवा 13वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुआ होगा।

ग्रन्थ

गंगेशोपाध्याय ने 'तत्वचिंतामणि' में ज्ञान मीमांसा एवं तर्कशास्त्र का व्यवस्थित विवेचन किया है। यह ग्रन्थ चार खंडों में विभाजित है, जिनके शीर्षक क्रमश: 'प्रत्यक्ष', 'अनुमान', 'उपमान' एवं 'शब्द' हैं। गंगेश ने अपने दर्शन को 'नव्यन्याय' कहा है और इस प्रकार प्राचीन न्याय से, जिसका स्रोत गौतम द्वारा रचित 'न्यासूत्र' है, अपने दर्शन का भेद किया है।

गंगेशोपाध्याय के सिद्धांत

गंगेश द्वारा प्रणीत नव्यन्याय सिद्धांतों की दृष्टि से उतना मौलिक नहीं है, जितना चिन्तन एवं विश्लेषण पद्धति की दृष्टि से। गंगेश की चिन्तन पद्धति की नवीनता उनकी विषयों की प्रतिपादन शैली तथा उनके व्यवस्थित निरूपण में है। अपने पूर्व आचार्यों की तुलना में वे शब्दों की परिभाषा करने में अत्यन्त सावधानी एवं सूक्ष्मता बरतते हैं। प्राचीन न्याय की तुलना में गंगेश ने 'तत्वचिंतामणि' में प्रमाणों (यथार्थ ज्ञान के कारणों) के विवेचन को विशेष महत्त्व दिया। उन्होंने शब्दों की परिशुद्ध परिभाषा करने पर बल दिया तथा इस प्रयोजन की पूर्ति एवं सूक्ष्म विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए नवीन तार्किक शब्दावली की रचना की। किन्तु प्रमाणों के विचार के साथ साथ प्रमेय (यथार्थ ज्ञान के विषय) के सम्बन्ध में अपना पक्ष स्पष्ट करना आवश्यक था, क्योंकि दोनों (प्रमाण एवं प्रमेय) परस्पर सापेक्ष हैं। इस दृष्टि से गंगेश सहित न्याय के सभी आचार्यों ने वैशेषिक तत्व दर्शन को कुछ परिवर्तनों के साथ स्वीकार किया, क्योंकि वह पूर्णत: वास्तववादी एवं बहुतत्ववादी होने के कारण न्याय की वास्तववादी ज्ञानमीमांसा के लिए सर्वथा उपयुक्त था।

पदार्थों के परिशुद्ध लक्षण (परिभाषा) करने तथा दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए गंगेश ने नवीन प्रणालीतंत्र का प्रयोग किया। यहाँ पर हम उनमें प्रयुक्त कुछ सिद्धांतों का संकेत मात्र करेंगे। प्रथम सिद्धांत है कि प्रत्येक लक्षण का तीन दोषों से रहित होना आवश्यक है। वे दोष हैं 'अव्याप्ति', 'अतिव्याप्ति' एवं 'असम्भव'। यदि लक्षण लक्ष्य से कम व्यापक है तो वह अव्याप्ति दोष से ग्रस्त है, यदि वह लक्ष्य से अधिक व्यापक है तो वह अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त है और यदि लक्षण लक्ष्य पर लागू ही न हो तो वह असम्भव दोष से ग्रस्त है। एक परिशुद्ध लक्षण को इन तीनों दोषों से मुक्त होना चाहिए। दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत जिस पर गंगेश ने विशेष बल दिया, लाघव का सिद्धांत है। इसके अनुसार यदि सरल एवं न्यूनतम अवधारणाओं की संख्या बढ़ा कर जटिलता को बढ़ाना दर्शन का दोष है। गंगेश ने अपने अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन इसी कसौटी के आधार पर किया है। तीसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है अन्यथासिद्धि का। वे पदार्थ जो किसी कार्य के कारणों के साथ नियमित रूप से रहते हैं, किन्तु वास्तव में कार्य की उत्पत्ति में प्रयोजक नहीं हैं अन्यथासिद्धि कहलाते हैं। ऐसे पदार्थों का विश्लेषण कर उनको कारण कोटि से अलग करना एक समीचीन दर्शन के लिए आवश्यक है।  

प्रमाण मीमांसा

'तत्वचिंतामणि' में गंगेश ने न्याय दर्शन में स्वीकृत चार प्रमाणों- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द का चार खंडों में विस्तृत विवेचन किया है, जिसका अतिसंक्षिप्त निरूपण नीचे किया जा रहा है।

प्रत्यक्ष

प्रत्यक्ष खंड के प्रारम्भ में सर्वप्रथम ज्ञान के प्रामाण्य अथवा यथार्थता का विचार किया गया है। इस सम्बन्ध में दो प्रश्न उठाये गए हैं-

  1. ज्ञान के प्रामाण्य का क्या हेतु है।
  2. प्रामाण्य का ज्ञान कैसे होता है।

गंगेश के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य ज्ञान के सामान्य कारणों से अतिरिक्त एक विशेष कारण गुण की अपेक्षा करता है, अन्यथा सत्य एवं मिथ्या ज्ञान में भेद ही नहीं रह जायेगा। उसी प्रकार ज्ञान का प्रामाण्य भी ज्ञान के साथ ही ज्ञात नहीं होता, बल्कि एक अन्य ज्ञान की अपेक्षा करता है। यदि ऐसा न होता तो हमें किसी ज्ञान के विषय में संदेह न होता। अत: यह मानना होगा कि ज्ञान के प्रामाण्य का ज्ञान उसके द्वारा प्रेरित प्रवृत्ति की सफलता के आधार पर अनुमान द्वारा होता है। उपर्युक्त सिद्धांत को भारतीय दर्शन में 'परत:प्रामाण्यवाद' कहा जाता है। इसके विरुद्ध मीमांसकों का 'स्वत:प्रामाण्यवाद' का सिद्धांत है, जिसका गंगेश ने खंडन किया है।

प्राचीन न्याय में प्रत्यक्ष का लक्षण 'इन्द्रिय तथा अर्थ (विषय) के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान' किया गया है। गंगेश दर्शाते हैं कि यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त है, क्योंकि स्मृति तथा अनुमान जो प्रत्यक्ष नहीं है, इसके अंतर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। स्मृति एवं अनुमान पूर्व प्रत्यक्ष पर आधारित हैं और इस प्रकार परोक्ष रूप से वे भी इन्द्रिय तथा अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान हो जाएंगे। इस दोष के निवारण के लिए गंगेश प्रत्यक्ष का लक्षण 'साक्षात्कारित्व' करते हैं। यह लक्षण प्रत्यक्ष को स्मृति तथा अनुमान से, जो साक्षात्ज्ञान नहीं हैं, अलग करता है। प्रत्यक्ष खंड में ही गंगेश ने 'तत्वमीमांसा' से सम्बन्धित दो महत्त्वपूर्ण पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध किया है। वे हैं : समवाय तथा अभाव। समवाय प्रत्यक्ष में प्रदत्त दो ऐसी वस्तुओं के बीच का घनिष्ठ सम्बन्ध है, जो एक दूसरे से पृथक् नहीं किए जा सकते और जिनमें एक आश्रय और दूसरा आश्रित है। उदहराणार्थ, द्रव्य एवं गुण, द्रव्य एवं क्रिया, व्यक्ति एवं जाति, इत्यादि के बीच का सम्बन्ध। प्रत्यक्ष सिद्ध होने के कारण इस सम्बन्ध को स्वतंत्र पदार्थ मानना आवश्यक है। उसी प्रकार अभाव को भी अतिरिक्त पदार्थ मानना आवश्यक है, क्योंकि भाव पदार्थों के समान अभाव की भी यथार्थ प्रतीति होती है। इन दोनों पदार्थों के सम्बन्ध में अन्य मतों द्वारा जो आपत्तियां उठाई गई हैं, उनका गंगेश ने युक्ति पूर्ण उत्तर दिया है। गंगेश ने प्रत्यक्ष के विभिन्न प्रकारों का भी विस्तृत विवेचन किया है, जिसका इस संक्षिप्त विवरण में विचार करना संभव नहीं है।  

अनुमान

गंगेशोपाध्याय ने अनुमान प्रमाण तथा उससे उत्पन्न ज्ञान अनुमिति के विश्लेषण को अत्यधिक महत्त्व दिया है। प्रत्येक अनुमिति के तीन अनिवार्य अंग होते हैं- हेतु, साध्य एवं पक्ष। उदाहरणार्थ, 'पर्वत पर अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है', इस अनुमिति में धूम हेतु है, अग्नि साध्य है तथा पर्वत पक्ष है। पर्वत पर से उठते हुए धूम का प्रत्यक्ष होने पर 'पर्वत पर अग्नि है', यह अनुमिति होती है। स्पष्ट है कि यह अनुमिति धूम एवं अग्नि के बीच नियत सहचार सम्बन्ध के ज्ञान पर निर्भर है। इस सम्बन्ध को 'व्याप्ति' कहते हैं, जिसके ज्ञान के बिना अनुमिति असम्भव है। इस सम्बन्ध में मुख्यत: दो प्रश्न उठते हैं-

  1. व्याप्ति का लक्षण क्या है।
  2. व्याप्ति का ज्ञान कैसे होता है।

गंगेश ने व्यापति के अनेक पूर्व-प्रवृत्त लक्षणों का विचार करने के बाद उन्हें इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि वे अव्यापति दोष से ग्रस्त हैं, क्योंकि केवलान्वयी-अनुमिति में ये व्याप्तियाँ सम्भव नहीं हो सकतीं। केवलान्वयी-अनुमिति उसको कहते हैं, जिसमें हेतु एवं साध्य ऐसे पदार्थ होते हैं, जो सार्वभौम अथवा सर्वव्यापी हों। उदाहरणार्थ, 'घट अभिधेय (शब्द वाक्य) है, क्योंकि वह प्रमेय (यथार्थ अनुभव का विषय) है', यह अनुमिति। इसमें हेतु 'प्रमेयतत्व' तथा साध्य 'अभिधेयत्व' न्याय के अनुसार ऐसे धर्म हैं, जो सभी पदार्थों में रहते हैं और इस कारण इनका अभाव असिद्ध है। अत: व्याप्ति का कोई लक्षण जिसमें हेतु अथवा साध्य का अभाव समाविष्ट हो उक्त केवलान्वयी में संभव नहीं हो सकेगा। इसी कारण गंगेश ने पूर्व प्रदत्त व्याप्ति के लक्षणों को जिनमें हेतु अथवा साध्य का अभाव किसी न किसी रूप में समाविष्ट था अस्वीकृत कर दिया और व्याप्ति का नवीन लक्षण प्रस्तुत किया, जिसको 'सिद्धांतलक्षण' कहा जाता है। इस लक्षण की विशेषता यह है कि इसमें हेतु अथवा साध्य का अभाव समाविष्ट नहीं होता और इस कारण वह केवलान्वयी में भी लागू हो सकता है।

गंगेश द्वारा प्रदत्त व्याप्ति का लक्षण इस प्रकार है : हेतु का ऐसे साध्य के साथ एक अधिकरण (आश्रय) में रहना जो उस अधिकरण में रहने वाले अभाव का प्रतियोगी न हो। प्रतियोगी उस वस्तु को कहते हैं, जिसका अभाव विचार में लिया जा रहा हो। यहाँ पर हेतु के अधिकरण में रहने वाले अभाव से तात्पर्य सामान्याभाव से है न कि विशेषाभाव से। उदाहरणार्थ, धूम में अग्नि की व्याप्ति है, क्योंकि धूम ऐसे अग्नि के साथ एक अधिकरण में रहता है, जो उसमें रहने वाले किसी भी सामान्याभाव (घटाभाव-पटाभाव इत्यादि) का प्रतियोगी नहीं है। किसी विशेष स्थल के धूम के साथ किसी विशेष अग्नि का अभाव भले ही रहता हो, परन्तु अग्नि का सामान्याभाव (अग्निमात्र का अभाव) नहीं रहता। इसलिए धूम में अग्नि की व्याप्ति है। व्याप्ति का उपर्युक्त लक्षण सभी दोषों से रहित होने के कारण न्याय की परम्परा में सर्वमान्य है।

ज्ञान

व्याप्ति के सम्बन्ध में दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि व्याप्ति का ज्ञान कैसे होता है। गंगेश के अनुसार हेतु एवं साध्य के बीच सहचार दर्शन के साथ साथ व्यभिचार दर्शन का अभाव व्याप्ति के ज्ञान में कारणीभूत होता है। उदाहरणार्थ, धूम में अग्नि की व्याप्ति है, क्योंकि धूम सर्वदा अग्नि के साथ रहता है और अग्नि के अभाव में नहीं रहता। इसी आधार पर धूम का प्रत्यक्ष होने पर अग्नि की अनुमिति होती है। परन्तु प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त प्रकार से धूम-विशेष एवं अग्नि-विशेष के बीच व्याप्ति का ग्रहण होने पर भी सभी धूम तथा सभी अग्नि के बीच व्याप्ति का निश्चय कैसे होगा, क्योंकि हमारा प्रत्यक्ष सीमित है और बिना सार्वभौम व्याप्ति ज्ञान के अनुमिति सम्भव नहीं होगी। इस समस्या के समाधान के लिए गंगेश 'सामान्यलक्षणा' नामक आलौकिक प्रत्यक्ष का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। जब हमें किसी विशेष धूम तथा विशेष अग्नि का प्रत्यक्ष होता है, तब उसके साथ ही उनमें स्थित सामान्य धर्म 'धूमत्व' तथा 'अग्नित्व' का भी प्रत्यक्ष होता है। इन सामान्य धर्मों के माध्यम से हमें सभी धूम तथा सभी अग्नि का आलौकिक प्रत्यक्ष होता है। यही आलौकिक प्रत्यक्ष धूम एवं अग्नि के बीच सार्वभौम व्याप्ति ग्रहण का आधार है और इसी कारण धूम के प्रत्यक्ष होने पर अग्नि की निश्चित अनुमिति सम्भव होती है। गंगेश ने अनुमान प्रमाण का प्रयोग ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए भी किया है। अनुमान खंड के अंत में गंगेश ने हेतु के दोषों का भी विशद विवेचन किया है, जिसके कारण अनुमिति अयथार्थ होती है।  

उपमान

गंगेश ने उपमान को स्वतंत्र प्रमाण सिद्ध किया है। उपमान उस प्रमाण को कहा जाता है, जिसके आधार पर किसी संज्ञा के उसके वाच्य पदार्थ के साथ सम्बन्ध का ज्ञान होता है। इसके एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। किसी व्यक्ति को 'गवय' शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं है और उसको अपने मित्र से ज्ञात होता है कि 'गवय' जंगल में रहने वाले एक प्राणी का नाम है, जो गाय के सदृश होता है। तदुपरान्त जब वह जंगल में जाता है तो वहाँ गाय के सदृश एक प्राणी को देखकर उसे अपने मित्र के कथन का स्मरण होता है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यह गवय है। इस ज्ञान को उपमिति कहते हैं तथा इसका स्रोत (प्रमाण) उपमान कहलाता है। इस प्रमाण को प्रत्यक्ष अथवा अनुमान के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता है, क्योंकि न तो इसमें इन्द्रियसन्निकर्ष मात्र प्रयोजक है और न व्याप्ति ज्ञान ही। उपमिति में सादृश्य ज्ञान तथा अतिदेश वाक्य (मित्र के कथन) का स्मरण प्रयोजक है। इसमें एक संज्ञा का उसके संज्ञि (वाच्य) के साथ सम्बन्ध का ज्ञान होता है। अत: उपमान को स्वतंत्र प्रमाण मानना आवश्यक है।  

शब्द

गंगेश ने शब्द को भी ज्ञान का स्वतंत्र साधन (प्रमाण) सिद्ध किया है। ऐसे व्यक्ति के द्वारा उच्चारित शब्द जो उसके अर्थ का ज्ञान रखता है, प्रमाण है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में कुछ दर्शन, जैसे बौद्ध धर्म एवं जैन, शब्द को प्रमाण नहीं मानते और इसी कारण वे वेद अथवा श्रुति के प्रामाण्य को अस्वीकार कर देते हैं। गंगेश तर्क करते हैं कि शब्द प्रामाण्य का निषेध करने पर निषेध करने वाले के शब्द का प्रामाण्य भी असिद्ध हो जायेगा और उसका प्रयोग किसी पक्ष के विरुद्ध नहीं किया जा सकेगा। इस कारण सभी के लिए शब्द को प्रमाण मानना आवश्यक ही है। शब्द प्रमाण को प्रत्यक्ष अथवा अनुमान के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता है, क्योंकि शब्द ज्ञान न तो इन्द्रिय सन्निकर्ष है और न ही व्याप्तिजन्य। इस कारण शब्द को स्वतंत्र प्रमाण मानना अति आवश्यक है। इस खंड में गंगेश ने शब्द ज्ञान के हेतु, शब्दार्थ तथा उसके प्रकार का भी विस्तार से विचार किया है और इस सम्बन्ध में अपने सिद्धांतों की स्थापना भी की है।

गंगेश ने प्रणालीतंत्र का उनके द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांतों का उपर्युक्त निरूपण अति संक्षिप्त है और वह उनके गंभीर एवं युगान्तरकारी चिंतन की एक स्थूल रूप रेखा मात्र प्रस्तुत करता है। गंगेश के चिंतन की महत्ता को उनके ग्रन्थ 'तत्वचिंतामणि' तथा उस पर लिखी गई टीकाओं के अध्ययन से ही समझा जा सकता है। गंगेश की चिंतन प्रणाली एवं प्रतिपादन शैली ने उनके उत्तर कालीन प्राय: सभी भारतीय दर्शनों को प्रभावित किया। गंगेश का प्रणालीतंत्र केवल न्याय दर्शन के लिए ही नहीं बल्कि प्राय: सभी भारतीय दर्शनों के लिए आदर्श हो गया और उनके द्वारा रचित तार्किक शब्दावली का प्रयोग न्यूनाधिक मात्रा में प्राय: सभी दर्शनों के द्वारा किया जाने लगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

द्रविड़, राजाराम विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 179।

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