ब्रज का मध्य काल

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ब्रज का मध्य काल
ब्रज के विभिन्न दृश्य
विवरण भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था।
ब्रज क्षेत्र आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं।
ब्रज के केंद्र मथुरा एवं वृन्दावन
ब्रज के वन कोटवन, काम्यवन, कुमुदवन, कोकिलावन, खदिरवन, तालवन, बहुलावन, बिहारवन, बेलवन, भद्रवन, भांडीरवन, मधुवन, महावन, लौहजंघवन एवं वृन्दावन
भाषा हिंदी और ब्रजभाषा
प्रमुख पर्व एवं त्योहार होली, कृष्ण जन्माष्टमी, यम द्वितीया, गुरु पूर्णिमा, राधाष्टमी, गोवर्धन पूजा, गोपाष्टमी, नन्दोत्सव एवं कंस मेला
प्रमुख दर्शनीय स्थल कृष्ण जन्मभूमि, द्वारिकाधीश मन्दिर, राजकीय संग्रहालय, बांके बिहारी मन्दिर, रंग नाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, इस्कॉन मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, दानघाटी मंदिर, मानसी गंगा, कुसुम सरोवर, जयगुरुदेव मन्दिर, राधा रानी मंदिर, नन्द जी मंदिर, विश्राम घाट , दाऊजी मंदिर
संबंधित लेख ब्रज का पौराणिक इतिहास, ब्रज चौरासी कोस की यात्रा, मूर्ति कला मथुरा
अन्य जानकारी ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है।

लगभग 550 ई. से 1194 ई. तक

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति अस्थिर रही। छोटे-बड़े राजा अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। सम्राट् हर्षवर्धन के शासन में आने तक कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता न थी, जो छोटे-छोटे राज्यों को सुसंगठित करके शासित करती। छठी शती के मध्य में मौखरि, वर्धन, गुर्जर, मैत्रक, कलचुरि आदि राजवंशों का अभ्युदय प्रारम्भ हुआ। मथुरा प्रदेश पर अनेक वंशों का राज्य मध्य काल में रहा। यहाँ अनेक छोटे-बड़े राज्य स्थापित हो गये थे और उनके शासक अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में आपस में लड़ रहे थे। उस समय देश में दो राजवंशों का उदय हुआ, मौखरी राजवंश और वर्धन राजवंश

मौखरी वंश का शासन

गुप्त-काल के पहले भी गया और कोटा (राजस्थान) के आसपास संज्ञान में आता है। मौखरियों का उदय मगध से हुआ था, वे गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे। गुप्तों की आपसी कलह और कमज़ोरी का लाभ उठा कर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। मौखरि वंश का प्रथम राजा ईशानवर्मन था,वह बड़ा शाक्तिशाली राजा था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग 554 ई. में मौखरी शासक ईशानवर्मन ने 'महाराजाधिराज' उपाधि धारण की। ईशानवर्मन के समय में मौखरी राज्य की सीमाएं पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में मालवा तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक थी। उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं:-

  1. कन्नौज
  2. मथुरा

ईशानवर्मन के शासन के बाद जिन शासकों ने कन्नौज तथा मथुरा प्रदेश पर शासन किया वे क्रमशः शर्ववर्मन, अवंतिवर्मन, तथा ग्रहवर्मन नामक मौखरी शासक थे। इन शासकों की मुठभेड़ें गुप्त राजाओं के साथ काफ़ी समय तक होती रहीं। बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि छठी शती के अंत में और सातवीं के प्रारम्भ में मौखरी शासक शक्ति शाली थे। ईशानवर्मन या उसके उत्तराधिकारी के काल में हूणों ने भारत पर आक्रमण किया परन्तु उन्हें मौखरियों शासकों ने पराजित कर पश्चिम की ओर भगा दिया। ग्रहवर्मन का विवाह, 606 ई. के लगभग थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से हुआ। इस वैवाहिक संबंध से उत्तर भारत के दो प्रसिद्ध राजवंश--वर्धन तथा मौखरी एक सूत्र में जुड़ गये। लेकिन प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् मालव के राजा देवगुप्त ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और राज्यश्री को कन्नौज में कारागार में ड़ाल दिया। राज्यश्री के बड़े भाई राज्यवर्धन ने मालवा पर आक्रमण कर देवगुप्त को हरा दिया। पंरतु इस जीत के बाद ही गौड़ के शासक शशांक ने राज्यवर्धन को धोखे से मार डाला। पु्ष्यभूति ने ई. छठी शती के प्रारम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली। इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई.) हुआ। उसकी उपाधि 'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी। उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था। बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था। गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था, जो दोबारा आक्रमण करने लगे थे। हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था। संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था। शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में व्यास नदी से लेकर पूर्व में यमुना तक था। मथुरा राज्य की पूर्वी सीमा पर था। राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था। प्रभाकरवर्धन के निधन के पश्चात् ही मालव के शासक ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी थी। राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ।

गुर्जर-प्रतिहार वंश

यशोवर्मन के पश्चात् कुछ समय तक के मथुरा प्रदेश के इतिहास की पुष्ट जानकारी नहीं मिलती। आठवीं शती के अन्त में उत्तर भारत में गुर्जर प्रतीहारों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। गुर्जर लोग पहले राजस्थान में जोधपुर के आस-पास निवास करते थे। इस वजह से उनके कारण से ही लगभग छठी शती के मध्य से राजस्थान का अधिकांश भाग 'गुर्जरन्ना-भूमि' के नाम से जाना था। आज तक यह विवाद का विषय है कि गुर्जर भारत के ही मूल निवासी थे या हूणों आदि की ही भाँति वे कहीं बाहर से भारत आये थे। भारत में सबसे पहले गुर्जर राजा का नाम हरिचंद्र मिलता है, जिसे वेद-शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण कहा गया है। उसकी दो पत्नियाँ थी- एक ब्राह्मण स्त्री से प्रतीहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति और भद्रा नाम की एक क्षत्रिय पत्नी से प्रतीहार-क्षत्रिय वंश हुआ, प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के पुत्रों ने शासन का कार्य भार संभाला। गुप्त-साम्राज्य के समाप्त होने के बाद हरिचंद्र ने अपने क्षत्रिय-पुत्रों की मदद से जोधपुर के उत्तर-पूर्व में अपने राज्य को विस्तृत किया। इनका शासन-काल सम्भवतः 550 ई. से 640 ई. तक रहा। उनके बाद प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के दस राजाओं ने लगभग दो शताब्दियों तक राजस्थान तथा मालवा के एक बड़े भाग पर शासन किया। इन शासकों ने पश्चिम की ओर से बढ़ते हुए अरब लोगों की शक्ति को रोकने का महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

अरब लोगों के आक्रमण

सातवीं शती में अरबों ने अपनी शक्ति को बहुत संगठित कर लिया था। सीरिया और मिस्र पर विजय के बाद अरबों ने उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान पर भी अपना अधिकार कर लिया। आठवीं शती के मध्य तक अरब साम्राज्य पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान तक फैल गया था। 712 ई. में उन्होंनें सिंध पर हमला किया। सिंध का राजा दाहिर ने बहुत वीरता से युद्ध किया और अनेक बार अरबों को हराया। लेकिन युद्ध में वह मारा गया और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया। इसके बाद अरब पंजाब के मुलतान तक आ गये थे। उन्होंने पश्चिम तथा दक्षिण भारत को भी अधिकार में लेने की बहुत कोशिश की लेकिन प्रतीहारों एवं राष्ट्रकूटों ने उनकी सभी कोशिशों को नाकाम कर दिया। प्रतीहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट ने अरबों को हराकर उनकी बढ़ती हुई शक्ति को बहुत धक्का लगाया।

कन्नौज के प्रतिहार शासक

नवीं शती के शुरू में कन्नौज पर प्रतिहार शासकों का अधिकार हो गया था। वत्सराज के पुत्र नागभट ने संभवतः 810 ई. में कन्नौज पर विजय प्राप्त कर अपने अधिकार में लिया। उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूटों तथा पूर्व में पाल-शासकों बहुत शक्तिशाली थे। कन्नौज पर अधिकार करने के लिए ये दोनों राजवंश लगे हुए थे। पाल-वंश के शासक धर्मपाल (780-815 ई.) ने बंगाल से लेकर पूर्वी पंजाब तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और आयुधवंशी राजा चक्रायुध को कन्नौज का शासक बनाया था। नागभट ने धर्मपाल को हराकर चक्रायुध से कनौज का राज्य छीन लिया और सिंध प्रांत से लेकर कलिंग तक के विशाल भूभाग पर नागभट का अधिकार हो गया। मथुरा प्रदेश इस समय से दसवीं शती के अंत तक गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के अंतर्गत रहा।

नागभट तथा मिहिरभोज

इसके कुछ समय बाद ही नागभट को एक अधिक शक्तिशाली राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय से युद्ध करना पड़ा। नागभट उसका सामना न कर सका और राज्य छोड़ कर भाग गया। गोविंद तृतीय की सेनाएं उत्तर में हिमालय तक पहँच गई किंतु महाराष्ट्र में अराजकता फैल जाने के कारण गोविंद को दक्षिण लौटना पड़ा। नागभट के बाद उसका पुत्र रामभद्र लगभग 833 ई. में कन्नौज साम्राज्य का राजा हुआ। उसका बेटा मिहिरभोज[1]बड़ा प्रतापी व शक्तिशाली राजा हुआ। उसके भी पालों और राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध चलते रहे। पहले तो भोज को कई असफलताओं मिली, परंतु बाद में उसने भारत की दोनों प्रमुख शक्तियों को हराया। उसके अधिकार में पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मालवा भी आ गये। इतने विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित करने का श्रेय मिहिरभोज को ही जाता है।

महेन्द्रपाल (लगभग 885-910 ई.)

मिहिरभोज का पुत्र महेन्द्रपाल अपने पिता के ही समान था। उसने अपने शासन में उत्तरी बंगाल को भी प्रतीहार साम्राज्य में मिला लिया था। हिमालय से लेकर विंध्याचल तक और बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक प्रतिहार साम्राज्य का शासन हो गया था। महेन्द्रपाल के शासन काल के कई लेख कठियावाड़ से लेकर बंगाल तक में प्राप्त हुए है। इन लेखों में महेन्द्रपाल की अनेक उपाधियाँ मिलती हैं। 'महेन्द्रपुत्र', 'निर्भयराज', 'निर्यभनरेन्द्र' आदि उपाधियों से महेन्द्रपाल को विभूषित किया गया था।

महीपाल (912 - 944)

महेन्द्रपाल के दूसरे बेटे का नाम महीपाल था और वह अपने बड़े भाई भोज द्वितीय के बाद शासन का अधिकारी हुआ। संस्कृत साहित्य के विद्वान् राजशेखर इसी के शासन काल में हुए, जिन्होंने महीपाल को 'आर्यावर्त का महाराजाधिराज' वर्णित किया है और उसकी अनेक विजयों का वर्णन किया है। अल-मसूदी नामक मुस्लिम यात्री बग़दाद से लगभग 915 ई. में भारत आया। प्रतीहार साम्राज्य का वर्णन करते हुए इस यात्री ने लिखा है, कि उसकी दक्षिण सीमा राष्ट्रकूट राज्य से मिलती थी और सिंध का एक भाग तथा पंजाब उसमें सम्मिलित थे। प्रतिहार सम्राट के पास घोड़े और ऊँट बड़ी संख्या में थे। राज्य के चारों कोनों में सात लाख से लेकर नौ लाख तक फ़ौज रहती थी। उत्तर में मुसलमानों की शक्ति को तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्ति को बढ़ने से रोकने के लिए इस सेना को रखा गया था।[2]

राष्ट्रकूट-आक्रमण

916 ई. के लगभग दक्षिण से राष्ट्रकूटों ने पुन: एक बड़ा आक्रमण किया। इस समय राष्ट्रकूट- शासक इन्द्र तृतीय का शासन था। उसने एक बड़ी फ़ौज लेकर उत्तर की ओर चढ़ाई की और उसकी सेना ने बहुत नगरों को बर्बाद किया, जिसमें कन्नौज प्रमुख था। इन्द्र ने महीपाल को हराने के बाद प्रयाग तक उसका पीछा किया। किन्तु इन्द्र को उसी समय दक्षिण लौटना पड़ा। इन्द्र के वापस जाने पर महीपाल ने फिर से अपने राज्य को संगठित किया किन्तु राष्ट्रकूटों के हमले के बाद प्रतिहार राज्य संम्भल नहीं पाया और उसका गौरव फिर से लौट कर नहीं आ सका। लगभग 940 ई. में राष्ट्रकूटों ने उत्तर में बढ़ कर प्रतिहार साम्राज्य का एक बड़ा भाग अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार प्रतिहार शासकों का पतन हो गया।

परवर्ती प्रतीहार शासक (लगभग 944 - 1035 ई.)

महीपाल के बाद क्रमशः महेंन्द्रपाल, देवपाल, विनायकपाल, विजयपाल, राज्यपाल, त्रिलोचनपाल तथा यशपाल नामक प्रतिहार शासकों ने राज्य किया। इनके समय में कई प्रदेश स्वतंत्र हो गये। महाकोशल में कलचुरि, बुदेंलखंड में चंदेल, मालवा में परमार, सौराष्ट्र में चालुक्य, पूर्वी राजस्थान में चाहभान, मेवाड़ में गुहिल तथा हरियाणा में तोमर आदि अनेक राजवंशों ने उत्तर भारत में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। इन सभी राजाओं में कुछ समय तक शासन के लिए खींचतान होती रही।

प्रतीहार-शासन में मथुरा की दशा

नवीं शती से लेकर दसवीं शतीं के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक मथुरा प्रदेश गुर्जर प्रतीहार-शासन में रहा। इस वंश में मिहिरभोज, महेंन्द्रपाल तथा महीपाल बड़े प्रतापी शासक हुए। उनके समय में लगभग पूरा उत्तर भारत एक ही शासन के अन्तर्गत हो गया था। अधिकतर प्रतीहारी शासक वैष्णव मत या शैव मत को मानते थे। उस समय के लेखों में इन राजाओं को विष्णु, शिव तथा भगवती का भक्त बताया गया है। नागभट द्वितीय, रामभद्र तथा महीपाल सूर्य-भक्त थे। प्रतिहारों के शासन-काल में मथुरा में हिन्दू पौराणिक धर्म की बहुत उन्नति हुई। मथुरा में उपलब्ध तत्कालीन कलाकृतियों से इसकी पुष्टि होती है। नवी शती के प्रारम्भ का एक लेख हाल ही में श्रीकृष्ण जन्मस्थान से मिला है। इससे राष्ट्रकूटों के उत्तर भारत आने तथा जन्म-स्थान पर धार्मिक कार्य करने का ज्ञान होता है। संभवत: राष्ट्रकूटों ने अपने हमलों में धार्मिक केन्द्र मथुरा को कोई हानि नहीं पहुँचाई। नवीं और दसवीं शती में कई बार भारत की प्रमुख शक्तियों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुए। इन सभी का मुख्य उद्देश्य भारत की राजधानी कन्नौज को जीतना था। मथुरा को इन युद्धों से कोई विशेष हानि हुई हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

गाहडवाल वंश

11 शताब्दी में उत्तर-भारत में गाहडवाल वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश के प्रथम महाराजा चंद्रदेव थे। इसने अपने शासन का बहुत विस्तार किया। कन्नौज से लेकर बनारस तक महाराजा चंद्रदेव का राज्य था। पंजाब के तुरुष्कों से भी इसने युद्ध किया।

गोविन्दचंन्द्र (लगभग 1112 - 1155 ई.)

चंद्रदेव के बाद कुछ समय तक उसका पुत्र मदनचंद्र शासन का अधिकारी रहा। उसके बाद उसका पुत्र गोविदचंद्र शासक हुआ जो बहुत यशस्वी हुआ। इसके समय के लगभग चालीस अभिलेख मिले है। गोविंदचंद्र ने अपने राज्य का विस्तार किया। संपूर्ण उत्तर प्रदेश और मगध का एक बड़ा भाग उसके अधिकार में आ गया। पूर्व में पाल तथा सेन राजाओं से गोविंदचंद्र का युद्ध हुआ। चंदेलों को हराकर उसने उनसे पूर्वी मालवा छीन लिया। दक्षिण कोशल के कलचुरि राजाओं से भी उसका युद्ध हुआ। राष्ट्रकूट, चालुक्य, चोल साम्राज्य तथा काश्मीर के राजाओं के साथ गोविदचंद्र की राजनीतिक मैत्री रही। मुसलमानों को आगे बढ़ने से रोकने में भी गोविंदचंद्र सफल भूमिका रही। गोविंदचंद्र ने उत्तर भारत में एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। उसके शासन-काल में 'मध्य देश' में शांति रही। कन्नौज नगर के गौरव को गोविदचंद्र ने एक बार फिर गौरवान्वित किया। गोविंदचंद्र वैष्णव शासक था; इसने काशी के आदिकेशव घाट में स्नान कर ब्राह्मणों को दक्षिणा दी। गोविन्दचंन्द्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में एक बौद्ध विहार को निर्मित कराया था। गोविंदचंद्र ने भी श्रावस्ती में बौद्ध भिक्षुओं को छह गाँव दान में दे दिये थे। इस बातों से गोविन्दचंन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का प्रमाण मिलता है। ताम्रपत्रों में गोविन्दचंद्र की 'महाराजाधिराज' और 'विविध विद्या-विचार वाचस्पति' नामक उपाधियाँ मिलती है, जिससे प्रमाणित होता है कि गोविन्दचंन्द्र विद्वान् था। इसके एक मन्त्री लक्ष्मीधर ने 'कृत्यकल्पतरू' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें राजनीति तथा धर्म के सम्बन्ध में अनेक बातों का विवरण है। गोविंदचंद्र के सोने और तांबे के सिक्के मथुरा से लेकर बनारस तक मिलते हैं। इन पर एक तरफ 'श्रीमद् गोविंदचंद्रदेव' लिखा है और दूसरी ओर बैठी हुई लक्ष्मी जी की मूर्ति है। ये सिक्के चवन्नी से कुछ बड़े है। ताँबे के सिक्के कम मिले हैं।

विजयचंद्र या विजयपाल (1155 -70)

गोविंदचंद्र के पश्चात् उसका बेटा विजयचंद्र शासक हुआ। विजयचंद्र वैष्णव था। इसने अपने राज्य में कई विष्णु-मंदिरों को निर्मित कराया। मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर सं0 1207 (1150 ई.) में विजयचंद्र ने एक भव्य मंदिर को निर्मित कराया था। [3] संभवत: उस समय विजयचंद्र युवराज था और अपने पिता की ओर से मथुरा प्रदेश का शासक नियुक्त था। अभिलेख में राजा का नाम 'विजयपालदेव' है। 'पृथ्वीराजरासो' में भी विजयचंद्र का नाम 'विजयपाल' ही मिलता है। रासो के अनुसार विजयपाल ने कटक के सोमवंशी राजा और दिल्ली, पाटन, कर्नाटक आदि राज्यों से युद्ध किया और विजयी हुआ। [4] इसने अपनी जीवनकाल में ही अपने पुत्र जयचंद्र को राजकाज सौंप दिया था।

जयचंद्र (1170 - 94 ई.)

'रासो' के अनुसार जयचंद्र [5] के राजा अनंगपाल की पुत्री से उत्पन्न हुआ यह विजयचंद्र का पुत्र था। जयचंद्र द्वारा रचित 'रंभामंजरी नाटिका' में वर्णित है कि इसने चंदेल राजा मदनवर्मदेव को हराया था। इस नाटिका और 'रासो' से पता चलता है कि जयचंद्र ने शहाबुद्दीन ग़ोरी को कई बार पराजित किया। मुस्लिम लेखकों के वृतांत से पता चलता है कि जयचंद्र के शासन काल में गाहडवाल साम्राज्य बहुत विशाल हो गया था। इब्नअसीर नामक लेखक ने तो उसके राज्य की सीमा चीन से लेकर मालवा तक लिखी है। पूर्व में बंगाल के सेन राजाओं से जयचंद्र का युद्ध लम्बे समय तक चला। जयचंद्र के शासन-काल में बनारस और कन्नौज की बहुत उन्नति हुई। कन्नौज, असनी (जिला फ़तेहपुर) तथा बनारस में जयचंद्र ने मज़बूत क़िले बनवाये। इसकी सेना बहुत विशाल थी। गोविंदचंद्र की तरह जयचंद्र भी विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रसिद्ध 'नैषधमहाकाव्य' के रचयिता श्रीहर्ष जयचंद्र की राजसभा में थे। उन्होंनें कान्यकुब्ज सम्राट के द्वारा सम्मान-प्राप्ति का विवरण अपने महाकाब्य के अन्त में किया है।[6] जयचंद्र के द्वारा राजसूय यज्ञ करने के भी विवरण मिलते हैं। [7]

मुसलमानों द्वारा उत्तर भारत की विजय

शक्तिशाली होने पर भी तत्कालीन प्रमुख शक्तियों में एकता न थी। गाहडवाल, चाहमान, चन्देह, चालुक्य तथा सेन एक-दूसरे के शत्रु थे। जयचंद्र ने सेन वंश के साथ लंबी लड़ाई की अपनी शक्ति को कमज़ोर कर लिया। चाहमान शासक पृथ्वीराज से उसकी शत्रुता थी। इधर चंदेलों और चाहमानों के बीच अनबन थी। 1120 ई. में जब मुहम्मद ग़ोरी भारत-विजय का सपना लिये पंजाब में बढ़ता आ रहा था ,पृथ्वीराज ने चंदेल- शासक परमर्दिदेव पर चढ़ाई कर उसके राज्य को नष्ट कर दिया। फिर उसने चालुक्यराज भीम से भी युद्ध किया। उत्तर भारत में शासकों की इस आपसी दुश्मनी का मुसलमानों ने फ़ायदा उठाया। शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी पंजाब से बढ़ कर गुजरात गया। उसने पृथ्वीराज के राज्य पर भी आक्रमण किया। [8] 1191 ई. में थानेश्वर के पास तराइन के मैदान में पृथ्वीराज और ग़ोरी की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। ग़ोरी घायल हो गया और हार कर भाग गया। दूसरे वर्ष वह फिर बड़ी सेना लेकर आया। इस बार फिर घमासान युद्ध हुआ, इस युद्ध में पृथ्वीराज हार गया और मारा गया। अजमेर और दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ को भारत का प्रशासक नियुक्त किया गया। 1194 ई. में क़ुतुबुद्दीन की कमान में मुसलमानों ने कन्नौज पर चढ़ाई की। चंदावर (ज़ि0 इटावा) के युद्ध में जयचंद्र ने बहुत बहादुरी से मुसलमानों से युद्ध किया। मुस्लिम लेखकों के लेखों से पता चलता है कि चंदावर का युद्ध भंयकर था। क़ुतुबुद्दीन की फ़ौज में पचास हज़ार सैनिक थे। जयचंद्र ने स्वंय अपनी सेना का संचालन किया वह हार गया और मारा गया। इस समय कन्नौज से लेकर बनारस तक मुसलमानों का अधिकार हो गया। इस प्रकार 1194 ई. में कन्नौज साम्राज्य का पतन हुआ और मथुरा प्रदेश पर भी मुसलमानों का शासन हो गया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 836 -885 ईं0
  2. रमेशचंन्द्र मजूमदार -ऐश्यंट इंडिया (बनारस,1952 ),पृ. 305
  3. कटरा केशवदेव से प्राप्त सं 1207 के एक लेख से पता चलता है। लेख में नवनिर्मित मंदिर के दैनिक व्यय के लिए दो मकान ,छह दुकानें तथा एक वाटिका प्रदान करने का उल्लेख है। यह भी लिखा है कि मंदिर के प्रबंध के हेतु चौदह नागरिकों की एक 'गोष्ठी'(समिति) नियुक्त की गई, जिसका प्रमुख 'जज्ज' नामक व्यक्ति था
  4. पृथ्वीराज रासो' अ 0 45,पृ 01255-58 'द् व्याश्रयकाव्य' में चालुक्य राजा कुमारपाल के द्वारा कनौज पर आक्रमण का उल्लेख मिलता है। हो सकता है कि इस समय चालुक्यों और गाहडवालों के बीच अनबन हो गई हो।
  5. दिल्ली
  6. ताम्बूलद्वयमासनं च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरात्॥(नैषध 22,153
  7. इस यज्ञ के प्रसंग में जयचंद्र के द्वारा अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर रचने एवं पृथ्वीराज चौहान द्वारा संयोगिता-हरण की कथा प्रसिद्ध है। परन्तु इसे प्रमाणिक नहीं माना जा सकता।
  8. कुछ लोगों का यह विचार कि पृथ्वीराज से शत्रुता होने के कारण जयचंद्र ने मुसलमानों को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया, युक्तिसंगत नहीं। उक्त कथन के कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते।

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