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भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-6

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2. भागवत-धर्म

1. मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य
पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।
उद्विग्नबुद्धेर् असदात्मभावात्
विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः।।
अर्थः
मैं मानता हूँ कि इस संसार में अच्युत के चरण-कमलों की नित्य उपासना हर प्रकार के भय से मुक्त करने वाली है। असत् वस्तुओं में आत्मभावना करने के कारण उद्विग्न लोगों का भय, उस उपासना से उनकी भावना विश्वात्मक बनकर, सर्वथा नष्ट हो जाता है।
 
2. ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्म-लब्धये।
अंजः पुंसां अविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्।।
अर्थः
अज्ञानी जीवों को सहज ही आत्म-प्राप्ति हो जाए, इसके लिए भगवान् ने जो उपाय बतलाये हैं, निश्चय ही वे भागवत-धर्म हैं।
 
3. यानास्थाय नरो राजन्! न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह।।
अर्थः
राजन्! इस भागवत-धर्म का अवलम्बन करने पर मानव कभी भी पथभ्रष्ट न होगा। अधिक क्या, इस मार्ग् पर वह आँखें मूंदकर भी दौड़े, तो न ठोकर खायेगा और न गिरेगा ही।
 
4. कायेन वाचा मनसेंद्रियैर् वा
बुद्धयाऽऽत्मना वाऽनुसृतस्वभावात्।
करोति यद्यत् सकलं परस्मै
नारायणयेति समर्पर्येत् तत्।।
अर्थः
मन, वचन, काया से, इंद्रियों से, बुद्धि से, अहंकार द्वारा या अभ्यस्त स्वभाव के कारण मानव जो-जो कर्म करता है, वे सब उस नारायण के लिए हैं- इस भावना से उसे समर्पण कर दें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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