भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-96

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भागवत धर्म मिमांसा

3. माया-संतरण

तितिक्षा- यानी कष्ट सहन करना। कष्ट सहन करने की आदत होनी चाहिए। जो पिता अपने बच्चों के दुश्मन होते हैं। (पूर्वजन्म के दुश्मन इस जन्म में पिता होकर आए हैं), वे पैसा कमाकर बच्चों के लिए रख देते हैं। उससे बच्चा बेवकूफ बन जाता है। इसलिए बच्चों को विरासत में एक कौड़ी भी नहीं देनी चाहिए। बल्कि उन्हें अच्छी विद्या देनी चाहिए। उन्हें कष्ट करने का मौका देना चाहिए। जो कष्ट करके विद्या प्राप्त करता है, वह जीवन में कभी नहीं हारता। जय प्रकाश नारायण विद्या प्राप्ति के लिए अमेरिका गये थे। यहाँ से पैसा लेकर नहीं गये थे। वहाँ उन्होंने मजदूरी की- होटल में काम किया, खेतों में काम किया, पैसा कमाया और फीस देकर अध्ययन किया। बिलकुल मामूली मजदूरी की। इसलिए उनके जीवन में पुरुषार्थ की प्रेरणा पायी जाती है। मैंने तो यह सारा विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर कहा। किंतु भागवत् कह रही है कि भक्ति के लिए भी तितिक्षा चाहिए। सहन करने की शक्ति चाहिए। तभी भक्ति आएगी। मौनम्- यह एक अभ्यास का विषय है। जीवन में कुछ समय मौन रखना चाहिए। उससे चिंतन करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। यह बात सन् 1928 में मेरे ध्यान में आयो। उस समय मैंने रात को मौन शुरू किया था। रात को आखिरी शब्द प्रार्थना का और सुबह पहला शब्द प्रार्थना का। इस बीच चिंतन करना, ध्यान करना, अध्ययन करना, लेकिन बोलना नहीं। उसका चित्त पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। तब ध्यान में आया कि इससे बहुत लाभ है। इससे रोज मरण का अभ्यास होता है। मनुष्य का रात का आखिरी समय मृत्यु का समय है। निद्रा यानी मृत्यु का एक छोटा सा रूप है। आप जिस किस्म का मरण चाहते हैं, उस प्रकार को निद्रा लीजिए। नाटक का पूर्व-प्रयोग होता है, वैसे ही निद्रा मृत्यु का पूर्व प्रयोग है। दिन की समाप्ति हो गयी, काम समाप्त हुआ, भगवान् को समर्पण कर दिया, चिंता मुक्त हो गये, मौन ले लिया और भगवान् का नाम-स्मरण करते करते सो गये! एक दिन यह बात मुझे सूझी। तब से मैंने तय किया कि रात को मौन रखा जाए। स्वाध्यायम्- स्वाध्याय यानी नाम स्मरण, वेदादि ग्रंथों का अध्ययन, आत्मा को पहचानने की कोशिश। मौन के बाद स्वाध्याय का नाम लिया, क्योंकि स्वाध्याय के लिए मौन लाभदायी है। मौन सधेगा, तभी स्वाध्याय होगा।

आर्जवम्- यानी सरलता, सीधा चित्त। चित्त में जरा भी टेढ़ापन न हो, वक्रता न हो। जिस चित्त में सीधापन नहीं, वह ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता। इसलिए आर्जव आवश्यक बताया।

ब्रह्मचर्यम्- हमारे शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य को भी एक बहुत बड़ा साधन माना है भागवत् धर्म में भी उसे बड़ा स्थान है। ब्रह्मचर्य चार आश्रमों में एक आश्रम है। जीवन के पहले 24 सालों तक ब्रह्मचर्याश्रम, उसके बाद गृहस्थाश्रम, फिर वानप्रस्थाश्रम और अंत में संन्यासाश्रम। अंतिम दिनों आश्रमों में तो ब्रह्मचर्य होता ही है, बीच का गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के अभ्यास का आश्रम माना गया है। इस दिशा में महात्मा गांधी ने बहुत अच्छा आदर्श लोगों के सामने रखा है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भी पति-पत्नी को एक दूसरे की सम्मति से संयम का अभ्यास करना चाहिए। गृहस्थाश्रम संयम के अभ्यास के लिए है। संतान हेतु के सिवा पति-पत्नी भोग में न पड़ें और भाई बहन के समान रहें, यह कोशिश गृहस्थाश्रम में होनी चाहिए। गृहस्थाश्रम ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने की एक पाठशाला की तरह है। अहिंसाम्- अहिंसा यानी किसी की हिंसा न करना। यह तो ठीक है, एक सामान्य बात है। लेकिन सेवाभाव, परोपकार, आसपास के लोगों की चिंता, यह सब भी अहिंसा में ही आता है। समत्वं द्वंद्वसंज्ञयोः- मान-अपमान, निंदा स्तुति आदि परस्पर विरोधी द्वंद्व हम पर हमला करते हैं। किसी ने सम्मान किया, स्तुति की, तो मीठा लगता है। वह भी हमला है। किसी ने अपमान किया, निंदा की, तो दुःख होता है। वह तो हमला है ही। इस तरह के सुख-दुःकों के सभी प्रसंगों में चित्त को समान रखना चाहिए। चित्त का संतुलन रखना बड़ी साधना है। यह भी भक्ति का एक साधन है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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