मक्खीचूस गीदड़

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मक्खीचूस गीदड़ पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

कहानी

          जंगल में एक गीदड़ रहता था। वह बडा कंजूस था, क्योंकि वह एक जंगली जीव था इसलिए हम रुपये-पैसों की कंजूसी की बात नहीं कर रहे। वह कंजूसी अपने शिकार को खाने में किया करता था। जितने शिकार से दूसरा गीदड़ दो दिन काम चलाता, वह उतने ही शिकार को सात दिन तक खींचता। जैसे उसने एक खरगोश का शिकार किया। पहले दिन वह एक ही कान खाता। बाकी बचाकर रखता। दूसरे दिन दूसरा कान खाता। ठीक वैसे जैसे कंजूस व्यक्ति पैसा घिस घिसकर खर्च करता है। गीदड़ अपने पेट की कंजूसी करता। इस चक्कर में प्रायः भूखा रह जाता। इसलिए दुर्बल भी बहुत हो गया था।
एक बार उसे एक मरा हुआ बारहसिंघा हिरण मिला। वह उसे खींचकर अपनी मांद में ले गया। उसने पहले हिरण के सींग खाने का फैसला किया ताकि मांस बचा रहे। कई दिन वह बस सींग चबाता रहा। इस बीच हिरण का मांस सड गया और वह केवल गिद्धों के खाने लायक़ रह गया। इस प्रकार मक्खीचूस गीदड़ प्रायः हंसी का पात्र बनता। जब वह बाहर निकलता तो दूसरे जीव उसका मरियल-सा शरीर देखते और कहते 'वह देखो, मक्खीचूस जा रहा हैं।
पर वह परवाह न करता। कंजूसों में यह आदत होती ही है। कंजूसों की अपने घर में भी खिल्ली उडती है, पर वह इसे अनसुना कर देते हैं।
उसी वन में एक शिकारी शिकार की तलाश में एक दिन आया। उसने एक सूअर को देखा और निशाना लगाकर तीर छोडा। तीर जंगली सूअर की कमर को बींधता हुआ शरीर में घुसा। क्रोधित सूअर शिकारी की ओर दौडा और उसने खच से अपने नुकीले दंत शिकारी के पेंट में घोंप दिए। शिकारी ओर शिकार दोनों मर गए।
तभी वहां मक्खीचूस गीदड़ आ निकला। वह खुशी से उछल पडा। शिकारी व सूअर के मांस को कम से कम दो महीने चलाना है। उसने हिसाब लगाया।
'रोज थोडा-थोडा खाऊंगा।’ वह बोला।
तभी उसकी नजर पास ही पडे धनुष पर पडी। उसने धनुष को सूंघा। धनुष की डोर कोनों पर चमडी की पट्टी से लकडी से बंधी थी। उसने सोचा 'आज तो इस चमडी की पट्टी को खाकर ही काम चलाऊंगा। मांस खर्च नहीं करूंगा। पूरा बचा लूंगा।’
ऐसा सोचकर वह धनुष का कोना मुंह में डाल पट्टी काटने लगा। ज्यों ही पट्टी कटी, डोर छूटी और धनुष की लकडी पट से सीधी हो गई। धनुष का कोना चटाक से गीदड़ के तालू में लगा और उसे चीरता हुआ। उसकी नाक तोडकर बाहर निकला। मख्खीचूस गीदड़ वहीं मर गया।

सीख- अधिक कंजूसी का परिणाम अच्छा नहीं होता।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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