रसखान की छंद योजना

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हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। रसखान की छंद योजना वह बेखरी (मानवोच्चरित ध्वनि) है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर तरंग भंगिमा से आह्लाद के साथ भाव और अर्थ को अभिव्यंजना कर सके। भाषा के जन्म के साथ-साथ ही कविता और छंदो का संबंध माना गया है। छंदों द्वारा अनियंत्रित वाणी नियंत्रित तथा ताल युक्त हो जाती है। गद्य की अपेक्षा छंद अधिक काल तक सजाज में प्रचलित रहता है। जो भाव छंदोबद्ध होता है उसे अपेक्षाकृत अधिक अमरत्व मिलता है। भाव को प्रेषित करने के साथ-साथ छंद में मुग्ध करने की शक्ति होती है। छंद के द्वारा कल्पना का रूप सजग होकर मन के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है।

छंद की व्यंजना शक्ति भी गद्य की अपेक्षा अधिक होती है। उसके माध्यम से थोड़े शब्दों में बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं। छंद की सीमा में बंधकर भाव उसी प्रकार अधिक वेगवान और प्रभावशाली हो जाता है जिस प्रकार तटों के बंधन से सरिता। छंद के आवर्तन में ऐसा आह्लाद होता है, जो तुरंत मर्म को स्पर्श करता है। स्थिर कथा को वेग देकर चित्त में प्रवेश कराने का श्रेय छंद को ही है। छंद भावों का परिष्कार कर कोमलता का निर्माण करता है। छंदों के अनेक भेदोपभेद मिलते हैं। रसखान ने भक्तिकाल की गेय-पद परंपरा से हटकर सवैया, कवित्त और दोहों को ही अपनी रचना के उपयुक्त समझकर अपनाया।

सवैया छंद

इस छंद की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. नगेन्द्र का विचार है कि सवैया शब्द सपाद का अपभ्रंश रूप है। इसमें छंद के अंतिम चरण को सबसे पूर्व तथा अंत में पढ़ा जाता था अर्थात एक पंक्ति दो बार और तीन पंक्तियां एक बार पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार वस्तुत: चार पंक्तियों का पाठ पांच पंक्तियों का-सा हो जाता था। पाठ में 'सवाया' होने से यह छंद सवैया कहलाया। संस्कृत के किसी छंद से भी इसका मेल नहीं हे। अत: यह जनपद-साहित्य का ही छंद बाद के कवियों ने अपनाया होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है।[1] यदि यह अनुमान सत्य हो तो प्राकृत, अपभ्रंश आदि में यह छंद अवश्य मिलना चाहिए जो हिन्दी में रूपांतरित हो गया है। किन्तु ऐसे किसी छंद के दर्शन नहीं होते। यह संभव है कि तेईस वर्णों वाले संस्कृत के उपजाति छंद के 14 भेदों में से किसी एक का परिवर्तित रूप सवैया बन गया हो। सवैया 22 अक्षरों से लेकर 28 अक्षरों तक का होता है। उपजाति भी 22 अक्षरों का छंद है। अक्षरों का लघु-गुरु भाव-सवैया में भी परिवर्तन ग्रहण करता है। वैदिक छंदों का भी लौकिक संस्कृत छंदों तक आते बड़ा रूप परिवर्तन हुआ। हो सकता है कि उपजाति का परिवर्तित रूप सवैया हो जो सवाया बोलने से सवैया कहलाया। 'प्राकृतपेंगलम्' में भी सवैयों का रूप मिलता है किन्तु वहाँ उसे सवैया संज्ञा नहीं दी गई। 'प्राकृतपेंगलम्' का रचनाकाल संवत 1300 के आस-पास माना जाता है। अत: सवैया के प्रयोग का अनुमान 13वीं शताब्दी से लगाया जा सकता है। भक्तिकाल में गेय पदों का व्यवहार विशेष रूप से होने लगा।

  • सूरदास के आविर्भाव तक हिन्दी में सवैयों का प्रचलन नहीं हुआ।
  • जगनिक के आल्हा खंड में कुछ सवैये अवश्य प्राप्त हैं, किन्तु उनकी भाषा से यही अनुमान होता है किये बाद में क्षेपक रूप में आए। प्रामाणिक रूप से इस छंद का प्रयोग अकबर के काल से प्रारंभ होता है।
  • पं. नरोत्तमदास का 'सुदामा चरित्र' सवैयों और दोहों में ही लिखा गया है।
  • तुलसीदास ने 'कवितावली' में इन्हीं छंदों का आश्रय लिया है।
  • केशवदास की 'रामचंद्रिका' में भी सवैये काफ़ी मिलते हैं।
  • इस प्रकार रसखान ने भक्ति काल की पद परंपरा से हटकर सवैया छंद को अपनाया।

घनाक्षरी

घनाक्षरी या कवित्त के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में होते हैं। हिन्दी में घनाक्षरी वृत्तों का प्रचलन कब से हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कहना कठिन है।

  • चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासों में दोहा तथा छप्पय छंदों की प्रचुरता है। सवैया और घनाक्षरी का वहाँ भी प्रयोग नहीं मिलता। प्रामाणिक रूप से घनाक्षरी का प्रयोग अकबर के काल में मिलता है। घनाक्षरी छंद में मधुर भावों की अभिव्यक्ति उतनी सफलता के साथ नहीं हो सकती जितनी ओजपूर्ण भावों की।
  • रसखान ने छंद की प्रवृत्ति का विचार न करते हुए श्रृंगार तथा भक्ति रस के लिए इस छंद का प्रयोग किया और लय तथा शब्दावली के आधार पर इसे भावानुकूल बना लिया।

सोरठा

यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा छंद का उलटा होता है। इसमें 25-23 मात्राएं होती हैं। रसखान के काव्य में चार[2] सोरठे मिलते हैं। प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन ते नैननि लग्यौ।
मनभावन चित चोर, पलक औट नहि सहि सकौं॥[3]

  • इस प्रकार रसखान के काव्य में कवित्त, सवैया, दोहा, सोरठा आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं।
  • इनके अतिरिक्त एक धमार सारंग, राग पद में भी मिलता है।
  • रसखान के छंद कोमल कांत पदावली से युक्त हैं। उनमें संगीतात्मकता है। दोहा जैसे छोटे छंद में गूढ़ तथ्यों का निरूपण उनकी प्रतिभा का परिचायक है। छंदों में अंत्यानुप्रास का सफल निर्वाह हुआ है। साथ ही छंद, भाव तथा रसानुकूल हैं।

छंद और शब्द स्वरूप विपर्यय

काव्य में सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए तथा छंदानुरोध पर प्राय: कवि शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा करते हैं रसखान ने भी काव्य चमत्कार एवं छंद की मात्राओं के अनुरोध पर शब्दों के स्वरूप को बदला है—

  1. झलकैयत, तुलैयत, ललचैयत, लैयत[4]- छंदाग्रह से झलकाना, तुलाना, ललचाना, लाना शब्दों से।
  2. पग पैजनी बाजत पीरी कछौटी[5]-कृष्ण की वय की लघुता के आग्रह, स्वाभाविकता एवं सौंदर्य लाने के लिए कछौटा से कछौटी।
  3. टूटे छरा बछरादिक गौधन[6]- छंदानुरोध पर तथा बछरा से शब्द साम्य के लिए छल्ला से छरा।
  4. मोल छला के लला ने बिकेहौं[7]- लला के आग्रह से छला।
  5. मीन सी आंखि मेरी अंसुवानी रहैं[8]- आंसुओं से भरी रहने के अर्थ में माधुर्य लाने के लिए आंसू से अंसुवानी।
  6. मान की औधि घरी[9]- छंद की मात्रा के आग्रह से अवधि से औधि।
  7. पांवरिया, भांवरिया, डांवरिया, सांवरिया, बावरिया[10]- पौरी, भौंरी, सांवरे, बावरी आदि से छंदानुरोध पर पांवरिया, भांवरिया बना लिया गया।
  8. लकुट्टनि, भृकुट्टनि, उघुट्टनि, मुकुट्टनि[11]- छंदाग्रह से लकुटी, भृकुटी, मुकुट आदि शब्दों से बनाया।
  9. हम हैं वृषभानपुरा की लली[12]- लला (पुत्र) के जोड़ पर पुत्री के अर्थ में लली शब्द का प्रयोग हुआ है।
  10. फोरि हौ मटूकी माट[13]- छंदानुरोध पर मटुकी से मटूकी।
  11. ज्ञानकर्म 'रु'[14] उपासना, सब अहमिति को मूल- यहाँ छंदानुरोध पर अरु से 'रु' किया गया है।

रसखान के काव्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ उन्होंने छांदिक सौंदर्य के लिए शब्दों के रूप में परिवर्तन किया है। किंतु इस शब्द-विपर्यय में कहीं भी अस्वाभाविकता के दर्शन नहीं होते। न ही शब्द नट की कला की भांति रूप बदलते हैं। कहीं-कहीं तो उन्होंने शब्दों को इस प्रकार संजोया है कि स्वाभाविकता के दर्शनों के साथ भाव-सौंदर्य भी दिखाई देता है। मोर, पंखा, मुरली, बनमाल लखें हिय को हियरा उमह्यौरी, यहाँ मसृणता लाने के लिए हियरा शब्द का प्रयोग किया गया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि रसखान छंद योजना में पूर्ण सफल हैं। अंत्यानुप्रास के सुंदर स्वरूप को भी उन्होंने अपने छंदों में स्थान दिया है। साथ ही उनमें संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रीति काव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता, पृ0 236
  2. सुजान रसखान, 77,98,123,152
  3. सुजान रसखान, 77
  4. सुजान रसखान, 61
  5. सुजान रसखान, 21
  6. सुजान रसखान, 44
  7. सुजान रसखान, 44
  8. सुजान रसखान, 74
  9. सुजान रसखान, 115
  10. सुजान रसखान, 141
  11. सुजान रसखान, 165
  12. दानलीला, 3
  13. दानलीला, 6
  14. प्रेम वाटिका, 12

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