श्राद्ध संस्कार

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मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है। काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है। आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन (रिमोट ऑपरेशन) कर लेते हैं। श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है। उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है। मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है। भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन श्रृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है, इसलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है। जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि सम्बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने। इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रिया-कर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलता है। इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है। यों श्राद्धकर्म का प्रारम्भ अस्थि विसर्जन के बाद से ही प्रारम्भ हो जाता है। कुछ लोग नित्य प्रातः तर्पण एवं सायंकाल मृतक द्वारा शरीर के त्याग के स्थान पर या पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाने का क्रम चलाते रहते हैं। मरणोत्तर संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार के तेरहवें दिन किया जाता है। जिस दिन अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) होती है, वह दिन भी गिन लिया जाता है। कहीं-कहीं बारहवें दिन की भी परिपाटी होती है। बहुत से क्षेत्रों में दसवें दिन शुद्धि दिवस मनाया जाता है, उस दिन मृतक के निकट सम्बन्धी क्षौर कर्म कराते हैं, घर की व्यापक सफाई-पुताई शुद्धि तक पूर्ण कर लेते हैं, जहाँ तेरहवीं ही मनायी जाती है, वहाँ यह सब कर्म श्राद्ध संस्कार के पूर्व कर लिये जाते हैं।

अन्त्येष्टि के 13वें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। यह शोक-मोह की पूर्णाहुति का विधिवत् आयोजन है। मृत्यु के कारण घर में शोक-वियोग का वातावरण रहता है, बाहर के लोग भी संवेदना-सहानुभूति प्रकट करने आते हैं-यह क्रम तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए, ताकि भावुकतावश शोक का वातावरण लम्बी अवधि तक न खिंचता जाए। कर्त्तव्यों की ओर पुनः ध्यान देना आरम्भ कर दिया जाए। मृतक के शरीर से अशुद्ध कीटाणु निकलते हैं। इसलिए मृत्यु के उपरान्त घर की सफाई करनी चाहिए। दीवारों की पुताई, ज़मीन की धुलाई-लिपाई, वस्त्रों की गरम जल से धुलाई, वस्तुओं की घिसाई, रँगाई आदि का ऐसा क्रम बनाना पड़ता है कि कोई छूत का अंश न रहे। यह कार्य दस से 13 दिन की अवधि में पूरा हो जाना चाहिए। तेरहवें दिन मरणोत्तर संस्कार की वैसी ही व्यवस्था की जाए, जैसी अन्य संस्कारों की होती है।

आँगन में यज्ञ वेदी बनाकर पूजन तथा हवन के सारे उपकरण इकट्ठे किये जाएँ। मण्डप बनाने या सजावट करने की आवश्यकता नहीं है। जिस व्यक्ति ने दाह संस्कार किया हो, वही इस संस्कार का भी मुख्य कार्यकर्त्ता, यजमान बनेगा और वही दिवंगत आत्मा की शान्ति-सद्गति के लिए निर्धारित कर्मकाण्ड कराएगा। श्राद्ध संस्कार मरणोत्तर के अतिरिक्त पितृपक्ष में अथवा देहावसान दिवस पर किये जाने वाले श्राद्ध के रूप में कराया जाता है। जीवात्माओं की शान्ति के लिए तीर्थों में भी श्राद्ध कर्म कराने का विधान है। श्राद्ध संस्कार के लिए सामान्य यज्ञ देव पूजन की सामग्री के अतिरिक्त व्यवस्था बना लेनी चाहिए।- तर्पण के लिए पात्र ऊँचे किनारे की थाली, परात, पीतल या स्टील की टैनियाँ (तसले, तगाड़ी के आकार के पात्र) जैसे उपयुक्त रहते हैं। एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें। तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे। इसके अतिरिक्त कुश, पात्रिवी, चावल, जौ, तिल थोड़ी-थोड़ी मात्रा में रखें। - पिण्ड दान के लिए लगभग एक पाव गुँथा हुआ जौ का आटा। जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए। पिण्ड स्थापन के लिए पत्तलें, केले के पत्ते आदि। पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध-दही, मधु थोड़ा-थोड़ा रहे।

पंचबलि एवं नैवेद्य के लिए भोज्य पदार्थ। सामान्य भोज्य पदार्थ के साथ उर्द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है। पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें।

पूजन वेदी पर चित्र, कलश एवं दीपक के साथ एक छोटी ढेरी चावल की यम तथा तिल की पितृ आवाहन के लिए बना देनी चाहिए।

विसर्जन के पूर्व दो थालियों में भोजन सजाकर रखें। इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए। पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए। विर्सजन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें। पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है। इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ। रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें।

पूजन की वेदी पर चावलों की एक ढेरी यम के प्रतीक रूप में रखें तथा मन्त्र के साथ उसका पूजन करें। यदि समय की कमी न हो, तो कई लोग मिलकर यम-स्तोत्र का पाठ भी करें। स्तुति करने का अर्थ है- उनके गुणों का स्मरण तथा अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करना। हाथ में यव-अक्षत-पुष्प लेकर जीवन-मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता का आवाहन करें-पूजन करें। भावना करें कि यम का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने।

ॐ यमाय त्वा मखाय त्वा, सूयर्स्य त्वा तपसे ।
देवस्त्वा सविता मध्वानक्त, पृथिव्याः स स्पृशस्पाहि ।
अचिर्रसि शोचिरसि तपोऽसि॥-37.11
ॐ यमाय नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि । ततो नमस्कारं करोमि॥

यम स्तोत्र
ॐ नियमस्थः स्वयं यश्च, कुरुतेऽन्यान्नियन्त्रितान् ।
प्रहरिणे मयार्दानां, शमनाय तस्मै नमः॥1॥
यस्य स्मृत्या विजानाति, भंगुरत्वं निजं नरः ।
प्रमादालस्यरहितो, बोधकाय नमोऽस्तु ते॥2॥
विधाय धूलिशयनं, येनाहं मानिनां खलु ।
महतां चूणिर्तो गवर्, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥3॥
यस्य प्रचण्डदण्डस्य, विधानेन हि त्रासिताः ।
हाहाकारं प्रकुवर्न्ति, दुष्टाः तस्मै नमो नमः॥4॥
कृपादृष्टिरनन्ता च, यस्य सत्कमर्कारिषु ।
पुरुषेषु नमस्तस्मै, यमाय पितृस्वामिने॥5॥
कमर्णां फलदानं हि, कायर्मेव यथोचितम् ।
पक्षपातो न कस्यापि, नमो यस्य यमाय च॥6॥
यस्य दण्डभयाद्रुद्धः, दुष्प्रवृत्तिकुकमर्कृत् ।
कृतान्ताय नमस्तस्मै, प्रदत्ते चेतनां सदा॥7॥
प्राधान्यं येन न्यायस्य, महत्त्वं कमर्णां सदा ।
मयार्दारक्षणं कत्रेर्, नमस्तस्मै यमाय च॥8॥
न्यायाथर् यस्य सवेर् तु, गच्छन्ति मरणोत्तरम् ।
शुभाशुभं फलं प्राप्तं, नमस्तस्म्ौ यमाय च॥9॥
सिंहासनाधिरूढोऽत्र, बलवानपि पापकृत ।
यस्याग्रे कम्पते त्रासात्, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥10॥

इसके पश्चात् इस संस्कार के विशेष कृत्य आरम्भ किये जाएँ। कलश की प्रधान वेदी पर तिल की एक छोटी ढेरी लगाएँ, उसके ऊपर दीपक रखें। इस दीपक के आस-पास पुष्पों का घेरा, गुलदस्ता आदि से सजाएँ। छोटे-छोटे आटे के बने ऊपर की ओर बत्ती वाले घृतदीप भी किनारों पर सीमा रेखा की तरह लगा दें। उपस्थित लोग हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें। इस आवाहन का मन्त्र ॐ विश्वे देवास.. है। सामूहिक मन्त्रोच्चार के बाद हाथों में रखे चावल स्थापना की चौकी पर छोड़ दिये जाएँ। आवाहित पितृ का स्वागत-सम्मान षोडशोपचार या पञ्चोपचार पूजन द्वारा किया जाए।

आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए। तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वगर्स्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है। इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्म से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निधर्न से निधर्न व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है। तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है। उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं। कुशाओं के सहारे जौ की छोटी-सी अंजलि मन्त्रोच्चारपूवर्क डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं, किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए। यदि श्रद्धाजंलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी, किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के मात्र पानी इधर-उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ-कर्मो के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे-छोटे क्रिया-कृत्यों को करने के साथ-साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें।

कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वगीर्य आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी।


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