श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 24-37

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः (7)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद


इस विषय में महात्मा-लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है । एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राम्हण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया । राजा यदु ने पूछा—ब्रह्मन्! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुई ? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान होने पर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं । ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदि की अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्व-जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । मैं देखा रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ, विद्वान और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड़, उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं । संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आप तक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्नि लगने पर उससे छूटकर गंगाजल में खड़ा हो । ब्रह्मन्! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है ? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राम्हण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी क अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजी ने कहा । ब्रम्हवेत्ता दत्तात्रेयजी ने कहा—राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत-से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो । मेरे गुरुओं के नाम हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट । राजन्! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है । वीरवर ययातिनन्दन! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहा हूँ, सुनो । मैंने पृथ्वी से उसके धैर्य की, क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जान या अनजान में आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुष को चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्ग पर ज्यों-का-त्यों चलता रहे ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-