श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 49 श्लोक 15-25

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दशम स्कन्ध: एकोनपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (49) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद

अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दुःख को समान दृष्टि से देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओं ने कुन्ती को उसके पुत्रों के जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओं की याद दिलायी और यह कह-कर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्म का नाश करने के लिय एही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी । अक्रूजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आये। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजो के साथ अपने पुत्रों का-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैषीता से भरा सन्देश कह सुनाया ।

अक्रूरजी ने कहा—महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियों की उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेषरूप से इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर अब आप राज्यसिंहासन के अधिकारी हुए हैं ।

आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिये। अपने सद्व्यवहार से प्रजा को प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिये।ऐसा करने से ही आपको लोक में यश और परलोक में सद्गति प्राप्त होगी ।

यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मरने के बाद आपको नरक में जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिये ।

आप जानते ही हैं कि इस संसार में कभी कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही। राजन्! यह बात अपने शरीर केलिए भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषय में तो कहना ही क्या है ।

जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनी का, पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भुगतता है ।

जिन स्त्री-पुत्रों को हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुमहरा धर्म है’—इस प्रकार की बातें बनाकर मूर्ख प्राणी के अधर्म से इकट्ठे किये हुए धन को लूट लेते हैं, जैसे जल में रहने वाले जन्तुओं के सर्वस्व जल को उन्हीं के सम्बन्धी चाट जाते हैं ।

यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीव को असंतुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं ।

जो अपने धर्म से विमुख है—सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोष का अनुभव न होगा और वह अपने पापों की गठरी सिरपर लादकर स्वयं घोर नरक मन जायगा ।

इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार की चाँदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम-शान्त हो जाइये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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