स्वामी रामतीर्थ

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स्वामी रामतीर्थ
स्वामी रामतीर्थ
पूरा नाम स्वामी रामतीर्थ
जन्म 22 अक्टूबर, 1873
जन्म भूमि मीरालीवाला, पंजाब (अब पाकिस्तान)
मृत्यु 17 अक्तूबर 1906[1] (32 वर्ष)
मृत्यु स्थान टिहरी, उत्तराखण्ड
कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक, लेखक
मुख्य रचनाएँ गैर मुल्कों के तजुर्बे (लेख और व्याख्यान), वार्तालाप (लेख और व्याख्यान), उन्नति का मार्ग (लेख और उपदेश) आदि
विषय धर्म और दर्शन
भाषा हिंदी
शिक्षा स्नातकोत्तर (गणित)
विद्यालय 'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी श्रीकृष्ण और अद्वैत वेदान्त पर लिखे इनके निबंधों ने देश में एक नई वैचारिक क्रांति को जन्म दिया।
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट

स्वामी रामतीर्थ (अंग्रेज़ी: Swami Rama Tirtha, जन्म: 22 अक्टूबर, 1873 - मृत्यु: 17 अक्टूबर, 1906[1]) एक हिन्दू धार्मिक नेता थे, जो अत्यधिक व्यक्तिगत और काव्यात्मक ढंग के व्यावहारिक वेदांत को पढ़ाने के लिए विख्यात थे। रामतीर्थ वेदांत की जीती जागती मूर्ति थे। उनका मूल नाम 'तीरथ राम' था। वह मनुष्य के दैवी स्वरूप के वर्णन के लिए सामान्य अनुभवों का प्रयोग करते थे। रामतीर्थ के लिए हर प्रत्यक्ष वस्तु ईश्वर का प्रतिबिंब थी। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने एक महान् समाज सुधारक, एक ओजस्वी वक्ता, एक श्रेष्ठ लेखक, एक तेजोमय संन्यासी और एक उच्च राष्ट्रवादी का दर्जा पाया। स्वामी रामतीर्थ जिसने अपने असाधारण कार्यों से पूरे विश्व में अपने नाम का डंका बजाया। मात्र 32 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने प्राण त्यागे, लेकिन इस अल्पायु में उनके खाते में जुड़ी अनेक असाधारण उपलब्धियां यह साबित करती हैं कि अनुकरणीय जीवन जीने के लिए लम्बी आयु नहीं, ऊँची इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।[2]

जीवन परिचय

स्वामी रामतीर्थ का जन्म पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला ज़िले में हुआ। इनके जन्म लेने के कुछ दिनों के बाद ही इनकी माता का निधन हो गया था। रामतीर्थ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उनकी उम्र के बालक जब गुड्डे-गुड़ियों के खेल खेलते थे, उस उम्र में रामतीर्थ का समय अनेक गूढ़ विषयों पर चिन्तन-मनन में गुजरता था। पढ़ाई-लिखाई में प्रखर होने के कारण रामतीर्थ ने गणित में स्नातकोत्तर की उपाधि धारण की और लाहौर में गणित के प्रोफ़ेसर के रूप में जीवन बिताने लगे। वर्ष 1897 उनके जीवन का निर्णायक मोड़ (टर्निंग पॉइंट) रहा, जब लाहौर में एक कार्यक्रम में उन्हें स्वामी विवेकानन्द का भाषण सुनने का मौका मिला। स्वामी जी के ओजपूर्ण विचारों को सुनकर रामतीर्थ के मन में देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना उत्पन्न हुई। इसी भावना के चलते प्रोफ़ेसर रामतीर्थ स्वामी रामतीर्थ बन गए। अब स्वामी रामतीर्थ का एक ही लक्ष्य था- समाज को जागरुक करना, हिंदुत्व के बारे में लोगों को समझाना और सामाजिक कुरीतियों को दूर करना। यह 19 वीं शताब्दी का समय था जब देश ख़ासकर युवा शक्ति उनके ओजस्वी विचारों और राष्ट्रवादी भाषणों का दीवाना बन रहा था। उनके खोजपरक व लीक से हटकर विचारों ने युवा वर्ग को काफ़ी प्रभावित किया। श्रीकृष्ण और अद्वैत वेदान्त पर लिखे उनके निबंधों ने देश में एक नई वैचारिक क्रांति को जन्म दिया। ये स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत भाषण शैली और मौलिक विचारों का ही प्रभाव था कि भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी उनकी वाणी के लोग प्रशंसक बने। वे जापान में विशेष रूप से हिंदुत्व के बारे में समझाने के लिए गये।[2]

कर्मक्षेत्र

'फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात सें धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने में अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।

सन्न्यास

रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भाँति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकातंवास के लिए चले गए और सन्न्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था।

हिंदी के सर्मथक

स्वामीजी हिन्दी के समर्थक थे और देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे। वे कहा करते थे कि राष्ट्र के धर्म को निजी धर्म से ऊँचा स्थान दो। देश के भूखे नारायणों और मेहनत करने वाले विष्णु की पूजा करो। स्वामीजी ने जापान और अमेरिका की यात्रा की और सर्वत्र लोग उनके विचारों की ओर आकृष्ट हुए। वे स्वामी विवेकानंद के समकालीन थे और दोनों में संपर्क भी था। स्वामी जी ने व्यक्ति की निजी मुक्ति से शुरू होकर पूरी मानव जाति की पूर्ण मुक्ति की वकालत की। जिस आनंद के साथ वह वेदांत की पांरपरिक शिक्षा का प्रचार करते थे, उसी में उनका अनोखापन था। अक्सर वह धार्मिक प्रश्नों का जवाब दीर्घ हंसी के साथ देते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ वह पश्चिमी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को भारत की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान का साधन भी मानते थे। उन्होंने जन शिक्षा के हर रूप का भरपूर समर्थन किया।

हिंदुत्व के पक्षकार

1902 में उन्होंने दो साल तक अमेरिकियों को हिंदुत्व के मर्म के बारे में समझाया। उन्होंने बताया कि हिंदुत्व एक धर्म विशेष की विचारधारा ही नहीं, अपितु एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। स्वामी रामतीर्थ हिंदुत्व के पक्षकार थे और हिंदुत्व पर उन्होंने देश और विदेशों में कई सेमीनार किये, लेकिन उन पर कभी भी साम्प्रदायिक होने का आरोप नहीं लगा। जानकार लोग मानते हैं कि यदि रामतीर्थ आज होते तो भारत में अयोध्या विवाद और छदम धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दे ही नहीं होते। स्वामी रामतीर्थ ने निम्न वर्ग के लोगों में शिक्षा का प्रसार करने और जातिवादी प्रथा को समाप्त करने का अभियान चलाया। उनको इस अभियान में काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। जाति, धर्म और अशिक्षा में जकड़े समाज को उनके बेबाक विचारों ने काफ़ी प्रेरणा दी। स्वामी रामतीर्थ का कहना था कि भारत को मिशनरियों की नहीं बल्कि शिक्षित युवाओं की ज़रूरत है। भारतीय युवाओं को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने युवाओं को अमेरिका भेजने का अभियान चलाया।[2]

वेदांत दर्शन

स्वामी रामतीर्थ

1904 में जब वे अमेरिका से भारत वापस आये तो देश का एक बहुत बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक बन चुका था। लेकिन जिज्ञासु स्वामी रामतीर्थ की ज्ञान प्राप्त करने की भूख अभी खत्म नही हुई थी। स्वामी जी सांसारिक जीवन को छोड़कर जीवन-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए वे सब कुछ छोडकर हिमालय की कन्दराओं में चले गये। यहाँ उन्होंने व्यावहारिक वेदान्त दर्शन पर उन्होंने एक किताब लिखना आरम्भ किया। इस किताब में उन्होंने अपने जीवन के अनुभव, धर्म और समाज के अनसुलझे रहस्यों को शब्द रूप देने का प्रयास किया, मगर अफ़सोस उनका यह प्रयास पूरा नहीं हो पाया। 17 अक्तूबर 1906 को दीवाली के पावन दिन जब हिमालय क्षेत्र में गंगा के तट पर स्नान कर रहे थे तो गंगा में डूबने से उनकी मौत हो गयी। उनके अनुयायी मानते हैं कि वह गंगा में डूबे नहीं थे, अपितु गंगा मैय्या ने अपने इस लाडले और भारत के गौरव को अपने स्नेहमयी आगोश में ले लिया था।[2]

रचनाएँ

डॉ. विश्वनाथ प्रसाद वर्मा की पुस्तक आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन में उल्लिखित तथ्यों के आधार पर स्वामी रामतीर्थ की रचनायें निम्नलिखित हैं:

  • गैर मुल्कों के तजुर्बे (लेख और व्याख्यान)
  • वार्तालाप (लेख और व्याख्यान)
  • उन्नति का मार्ग (लेख और उपदेश)
  • सफलता की कुंजी
  • हमारा राष्ट्रीय धर्म
  • मानवता और विश्व-प्रेम
  • विश्वधर्म
  • भारत का भविष्य

मृत्यु

17 अक्तूबर 1906[1] को दीपावली के दिन, जब वे केवल 32 वर्ष के थे, टिहरी के पास भागीरथी में स्नान करते समय भंवर में फंस जाने के कारण उनका शरीर पवित्र नदी में समा गया। उनकी मृत्यु एक दुर्घटना थी या किसी षड़यंत्र के कारण ऐसा हुआ, यह उनके अनुयायियों के बीच आज भी रहस्य बना हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-5 | प्रकाशन- एन्साक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (इंडिया)|पृष्ठ-86
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 अनुकरणीय व्यक्तित्व के मालिक थे-स्वामी रामतीर्थ (हिंदी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 13 अक्टूबर, 2013।

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