हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के भारतीय संस्कृति पर विचार

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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के भारतीय संस्कृति पर विचार
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पूरा नाम डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
जन्म 19 अगस्त, 1907 ई.
जन्म भूमि गाँव 'आरत दुबे का छपरा', बलिया ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 19 मई, 1979
कर्म भूमि वाराणसी
कर्म-क्षेत्र निबन्धकार, उपन्यासकार, अध्यापक, सम्पादक
मुख्य रचनाएँ सूर साहित्य, बाणभट्ट, कबीर, अशोक के फूल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, पृथ्वीराज रासो
विषय निबन्ध, कहानी, उपन्यास, आलोचना
भाषा हिन्दी
विद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शिक्षा बारहवीं
पुरस्कार-उपाधि पद्म भूषण
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी द्विवेदी जी कई वर्षों तक काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपसभापति, 'खोज विभाग' के निर्देशक तथा 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सम्पादक रहे हैं।
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भारतीय संस्कृति का अध्ययन हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक दृष्टि से किया है, जो उनके उदार चिन्तन का परिणाम है। द्विवेदी जी का मानना है कि कर्मफल के सिद्धांत ने हजारों वर्षों से नीच समझे जाने वाली जातियों में विद्रोह नहीं पनपने दिया तथा समाज-व्यवस्था के प्रति जनता को उदासीन बना दिया।

भारतीय संस्कृति पर विचार

द्विवेदी जी ने भारतीय संस्कृति के संदर्भ में लिखा है- "भारत वर्ष का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इसका जितना हिस्सा जाना जा सका है, उससे कहीं अधिक भाग अभी भी ठीक-ठीक नहीं जाना जा सका है। वह पंडितों के अनुमान का ही विषय है। परंतु इतना निश्चित है कि यह संस्कृति विकासशील रही है। आर्य, द्रविड़, किरात, हूण, शक आदि जातियों के विश्वास और रीति-नीति इसमें मिलते रहे हैं। बहुत-सी पुरानी मान्यताएँ कमजोर होती रही हैं और प्रायः विस्मृत कर दी गई हैं। जिस संस्कृति में इन्द्र, वरुण आदि देवी-देवताओं का प्राधान्य था, यज्ञ-याग का बाहुल्य था, उसमें दूसरे समय शिव, विष्णु आदि देवताओं और पूजा-पाठ, तीर्थ-व्रत आदि का प्राधान्य हो गया।" यह उद्धरण इस बात का प्रमाण है कि परंपरा एवं संस्कृति की दुहाई देने के नाम पर उनमें कूपमंडूकता रत्ती भर भी नहीं है। बल्कि वे तो संस्कृति की उस अंतर्धारा के वाहक हैं, जो उसमें काई नहीं जमने देती है। यही कारण है कि नामवर जी ने उन्हें दूसरी परंपरा का वाहक माना है।


भारतीय संस्कृति के संदर्भ में द्विवेदी जी ने कर्मफल के महत्वपूर्ण सिद्धांत का उल्लेख किया है और उसे जनता की उदासीनता से जोड़ा है। वे लिखते हैं कि-


"कर्मफल के सिद्धांत को मध्य काल में जैसे-जैसे तोड़ा गया, वैसे-वैसे मनुष्य, जागतिक व्यवस्था के प्रति जिज्ञासु होता गया और इसमें संतमत लौकिक विधान व विज्ञान बुद्धि की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसने यह बता दिया कि पराधीनता की अवधारणा मध्यकालीन सामंती अवशेष है।"[1]


द्विवेदी जी का मानना है कि कर्मफल के सिद्धांत ने हजारों वर्षों से नीच समझे जाने वाली जातियों में विद्रोह नहीं पनपने दिया तथा समाज-व्यवस्था के प्रति जनता को उदासीन बना दिया। कर्मफल का सिद्धांत वस्तुतः यथास्थिति के पोषण का सिद्धांत है, जो कुछ वर्गों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुआ, इसीलिए ये वर्ग इस सिद्धांत का समर्थन करते रहे हैं।

चिन्तन का लोक पक्ष

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का सारा चिन्तन विकास की दिशा में अग्रसर होता है। इसी संदर्भ में द्विवेजी जी का लोक चिन्तन भी देखा जा सकता है। उनका चिन्तन जगत के इर्द गिर्द लोक-भूमि पर ही टिका हुआ है। वे लोक को बहुत महत्व देते हैं। यहाँ तक कि यदि लोक और शास्त्र में इन्द्र की स्थिति पैदा हो जाए, तो वे बेझिझक लोक-प्रवादों को ही मान्यता देते हैं। 'आम फिर बौरा गये' शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं-


"जब किसी लोक परंपरा के साथ किसी पोथी का विरोध होता है, तो मेरे मन में कुछ नवीन रहस्य पाने की आशा उमड़ उठती है। सब समय नई बात सूझती नहीं, पर हार मैं नहीं मानता।"


इस लोक पंरपरा की पृष्ठभूमि में ही वे समाज को समझते हैं और बताते हैं कि भारतीय साहित्य धीरे-धीरे ऐहिक दृष्टिकोण से जुड़ने लगता है। विचार व वितर्क, कल्पलता, विचार-प्रवाह, कुटज, अशोक के फूल आदि अनेक निबंधों में द्विवेजी जी के इस सांस्कृतिक बोध को देखा जा सकता है। संस्कृति व उसकी सामासिकता की बातें इन निबंधों में बार-बार दोहराई गई हैं। कालिदास के संस्कार और कबीर के विचारों से द्विवेदी जी की चेतना को आकार प्राप्त हुआ। वे मानते हैं कि प्रकृति में कोई भी वस्तु परिपूर्ण नहीं है। वह अपने पार्श्व की ओर संकेत करती है, जहाँ स्वयं में एक नया संसार होता है। तभी तो द्विवेदी जी को लगता है कि "एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित हैं।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अशोक के फूल' निबंध संग्रह, पृष्ठ

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