पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर। संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर। अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर। कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका, वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर। शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे, हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर। लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप, शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुजूर।[1]