https://bharatdiscovery.org/bharatkosh/w/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%A8&feedformat=atomBharatkosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T16:03:23Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.35.6https://bharatdiscovery.org/bharatkosh/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A5%88%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%95_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE&diff=677028ज़मीन का पैरों तले से खिसक जाना2022-06-19T18:01:04Z<p>व्यवस्थापन: Text replacement - "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''ज़मीन का पैरों तले से खिसक जाना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- पैरों तले से ज़मीन खिसक जाना, ऐसी स्थिति उत्पन्न होना, कि होश-हवास ही ठिकाने न रहें।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- बेटे के मुँह से अनाप-शनाप शब्द सुनकर उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''गोद पसारकर विनती करना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- दौलत या अधीरता प्रकट करते हुए कुछ माँगना या प्रार्थना करना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- राजेन्द्र ने उसके मालिक से गोद पसारकर विनती कि फिर भी उसने उसकी एक ना सुनी।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''घुन की तरह चाट जाना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- अन्दर ही अन्दर खा जाना या नष्ट कर डालना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- सांप्रदायिकता घुन की तरह सारे [[समाज]] को चाट जाती है।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''कुर्सी की लड़ाई''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- सत्ता के लिए संघर्ष।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''छेड़ निकालना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- चिढ़ाने के उद्देश्य से किसी का नाम रखना।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''बिस्तर से लगना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़ जाना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- पिछले चार दिनों से उनकी पत्नी बीमार होने के कारण बिस्तर से लग गई थी। ([[शिवानी]])<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''छूट देना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- स्वछंद आचरण करने देना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- अहल्या को मल्लिका आवश्यकता से अधिक छूट देती जा रही थी। ([[शिवानी]])<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''दाँव पर चढ़ाना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- युक्तिपूर्वक इस प्रकार किसी को फँसना कि उससे सहज में काम निकाला जा सके।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''कोने कोने में''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- हर दूर दूर के स्थान में।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- [[ययाति|महाराज ययाति]] के गौरव की पताका देश के कोने कोने में फहरा रही थी।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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<hr />
<div>#पुनर्प्रेषित [[चाणक्य नीति- अध्याय 4]]</div>व्यवस्थापनhttps://bharatdiscovery.org/bharatkosh/w/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF-_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_4&diff=677018चाणक्य नीति- अध्याय 42022-06-19T16:34:53Z<p>व्यवस्थापन: व्यवस्थापन ने चाणक्यनीति - अध्याय 4 पृष्ठ चाणक्य नीति- अध्याय 4 पर स्थानांतरित किया: Text replacement - "चाणक्यनीति - " to "चाणक्य नीति- "</p>
<hr />
<div>[[चित्र:chanakya_niti_f.jpg|thumb|250px|[[चाणक्य नीति]]]] <br />
===अध्याय 4===<br />
;सोरठा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।<br />
नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥1॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।<br />
ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥3॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''संसार के अधिकांश पुत्र, मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।<br />
शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥3॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''जैसे मछली दर्शन से, कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है, उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।<br />
तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥4॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है। इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ?<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।<br />
माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥5॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है। यह असमय में भी फल देती है। परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है। इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।<br />
एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हज़ार ॥6॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''एक गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है। अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है, पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।<br />
मरे अल्प दु:ख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥7॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है। बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय। क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।<br />
मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥8॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''ख़राब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, ख़राब भोजन, कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।<br />
कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥9॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो। उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान् हो और न भक्तिमान् ही होवे।<br />
-----<br />
;सोरठा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।<br />
हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥10॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं। पुत्र, स्त्री और सज्जनों का संग।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।<br />
एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥11॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''राजा लोग केवल एक बात कहतें हैं, उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, (आर्य धर्मावलम्बियों के यहाँ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।<br />
कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥12॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''अकेले में तपस्या, दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती का काम और ज़्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।<br />
पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥13॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''वही भार्या (स्त्री) भार्या है, जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।<br />
मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥14॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''जिसके पुत्र नहीं जओ, उसका घर सूना है। जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं। मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।<br />
सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥15॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है, अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है। दरिद्र के लिए सभा विष है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।<br />
क्रोधमुखी प्रिय प्रीति बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥16॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे। जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे। हमेशा नाराज़ रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।<br />
जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥17॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढापा है। घोडे के लिए बन्धन बुढापा है। स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव बुढापा है। वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।<br />
लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥18॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''यह कैसा समय है, मेरे कौन 2 मित्र हैं, यह कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझ में कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये।<br />
-----<br />
;दोहा -- <br />
<blockquote><span style="color: blue"><poem><br />
ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।<br />
मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥19॥<br />
</poem></span></blockquote><br />
'''अर्थ -- '''द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है।<br />
-----<br />
;इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥<br />
-----<br />
[[चाणक्य नीति- अध्याय 5]]<br />
-----<br />
<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{चाणक्य नीति}}<br />
[[Category:चाणक्य नीति]]<br />
[[Category:इतिहास कोश]][[Category:दर्शन कोश]]<br />
__INDEX__<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''गले से उतारना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- खाना, पेट में डालना। <br />
<br />
'''प्रयोग'''- रेलगाड़ी में सफर करते वक़्त खाना जबरदस्ती गले से उतारना पड़ता है ।<br />
<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''दाँत देखना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- (पशु के) दाँत देखकर उसकी अवस्था का अंदाज़ लगाना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- एक दाँतो के चिकित्सक ऐसे हैं जो कि दाँत देखकर उनकी अवस्था बता देते हैं।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''ख़ाका झाड़ना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- [[चित्रकला]] में एक विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा किसी चित्र की मुख्य रेखाएँ किसी दूसरे कागज़ पर उतारना।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''किराए पर उठना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- (मकान, दुकान आदि) किराए पर दिया जाना। <br />
<br />
'''प्रयोग'''- यह मकान 200 में किराए पर उठा था।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''मन कसना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- निश्चय करना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- यहीं मन तुमने साल भर पहले कस लिया होता तो आज बाँके लाल जी से यह पत्र पाने की नौबत न आती। (अमृजलाल नागर)<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''खा-पीकर बराबर करना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- जितना पाना या कमाना वह सब का सब खर्च कर डालना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- इन लोगों ने सब खा-पीकर बराबर कर दिया।<br />
<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''दाई से पेट छिपाना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- ऐसे व्यक्ति से कोई बात छिपाना जो उसका पूरा जानकार हो।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- हमें निजोरी खोल कर दिखा रहे हैं। दाई से पेट छिपाएँगे। परसों चांदीराम- पत्तूलाल के यहाँ से बारह सौ रुपया आया, वह कहाँ गया। -यशपाल।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''मन जमना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- मन का पूर्णतः आश्वस्त होना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- इस दलील पर मन जमता ही नहीं है।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''कुत्ते की तरह दुम हिलाना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- ख़ुशामद में हरदम लगे रहना। <br />
<br />
'''प्रयोग'''- मीठी मीठी बातों से बहलाती रहती तो वह ख़ुद ही [[कुत्ता|कुत्ते]] की तरह दुम हिलाता रहता।(अजित पुष्कल)<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''ज़बान का शेर''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- बढ़-चढ़कर बातें करने वाला।<br />
<br />
'''प्रयोग''' - उससे बात करना ही व्यर्थ है। जब देखो ज़बान का शेर बना रहता है।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''बगल से''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- पड़ोसी के यहाँ से।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- वह बगल से उस दिन आटा माँग लाई थी।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''खुले हाथ''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- अत्यंत उदारतापूर्वक <br />
(धन किसी को देना या खर्च करना)।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''दस्त लगना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- पेट में विकार होने पर बार बार पतला पतला मल निकलना।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''गोला लाठी करना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- हाथ पैर बाँधकर दोनों घुटनों के बीच डंडा लगाना।<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
[[Category:साहित्य कोश]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}" to "==संबंधित लेख==
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
<hr />
<div>'''बुरा लगना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- अप्रिय और अहितकर प्रतीत होना।<br />
<br />
<br />
'''प्रयोग'''- <br />
#अब यदि मैं भी कुछ कहूँ तो तुम्हें बुरा लगेगा।<br />
#बुरे को बुरी नज़र से देखते हैं तो बुरा क्यों लगता है।(अजित पुष्कल) <br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
[[Category:कहावत लोकोक्ति मुहावरे]]<br />
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{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}"</p>
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<div>'''गुड़ गोबर होना''' एक प्रचलित [[कहावत लोकोक्ति मुहावरे|लोकोक्ति]] अथवा [[हिन्दी]] मुहावरा है।<br />
<br />
'''अर्थ'''- चौपट या नष्ट-प्राय होना।<br />
<br />
'''प्रयोग'''- ज़रा आँख चूकी नहीं कि सब गुड़ गोबर हुआ नहीं।<br />
<br />
<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}{{कहावत लोकोक्ति मुहावरे2}}<br />
[[Category:हिन्दी मुहावरे एवं लोकोक्ति कोश]]<br />
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<div>{{पुनरीक्षण}}<br />
{{seealso|अनमोल वचन 1|अनमोल वचन 2|अनमोल वचन 3|अनमोल वचन 4|अनमोल वचन 5|अनमोल वचन 6|अनमोल वचन 7|अनमोल वचन 8|अनमोल वचन 9|अनमोल वचन 10|अनमोल वचन 11|कहावत लोकोक्ति मुहावरे|सूक्ति और कहावत}}<br />
<div style="float:right; width:98%; border:thin solid #aaaaaa; margin:10px"><br />
{| width="98%" class="bharattable-purple" style="float:right";<br />
|-<br />
! width="100%"| अनमोल वचन<br />
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==प==<br />
===प्रेम के मार्ग में चतुराई बुरी है===<br />
* प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज़ है। ~ मौलाना रूम <br />
* प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट <br />
* हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि <br />
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य<br />
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास <br />
* किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे <br />
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास <br />
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर<br />
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। - जेम्स ऐंथनी फ्राउड <br />
* जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव <br />
* जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी<br />
* जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद <br />
* जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। केवल पुन: किया हुआ पुण्य ही बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास<br />
<br />
===प्रेम में स्मृति का ही सुख है===<br />
* प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। ~ महात्मा गांधी <br />
* जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद <br />
* प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
* प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल<br />
* प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थ और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थ है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त <br />
* प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम-भाव नहीं, प्रेम सब कुछ सहन करता और मान लेता है। ~ महात्मा गांधी <br />
* प्रेम एक बीज है जो एक बार जम कर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद<br />
<br />
===प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं है===<br />
* हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरु जी <br />
* जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद <br />
* प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त <br />
* प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद<br />
* श्रद्धावान को कोई परास्त नहीं कर सकता। बुद्धिमान को हमेशा पराजय का डर लगा रहता है। ~ महात्मा गांधी <br />
* संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं। ~ अचित्यानंद वर्णी <br />
* यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ रूमी<br />
<br />
===प्रेम से दास होना, मानो मुक्त होना===<br />
* हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरुजी <br />
* जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम <br />
* स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र<br />
<br />
===प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए===<br />
* जितना दिखाते हो उससे अधिक तुम्हारे पास होना चाहिए, जितना जानते हो उससे कम तुम्हें बोलना चाहिए। ~ शेक्सपियर <br />
* बंधन बहुत तरह के हैं, पर प्रेम की डोर से बंध जाना तो कुछ और ही है। ~ अज्ञात <br />
* संसार में स्नेह के बंधनपाश लोहे से भी बढ़कर कठोर होते हैं। ~ बाणभट्ट <br />
* अतिशय प्रेम अनेक बार परिचित वस्तु को भी नया-नया कर देता है। ~ माघ <br />
* प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए। ~ कालिदास<br />
<br />
===प्रेम का एक कण संसार पर भारी===<br />
* नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्धत होता है। ~ नारायण पंडित <br />
* जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद् <br />
* प्रेम का एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार <br />
* सबसे पहले आत्मविश्वास करना सीखो। आत्मविश्वास सरीखा दूसरा कोई मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद <br />
<br />
===प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है===<br />
* सच्ची बड़ाई उसी की है जिसकी शत्रु भी सराहना करें। ~ रहीम <br />
* प्रेम चंद्रमा के समान है। अगर वह बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा। ~ सीगर <br />
* जहां प्रेम और भक्ति नहीं, वहां परमात्मा नहीं। ~ गुरु रामदास <br />
* प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है। ~ शेक्सपियर <br />
* प्रेम वही है जो अपनी शक्ति से अरूप में रूप भर दे। ~ अमृतलाल नागर <br />
<br />
===प्रेम की शक्ति===<br />
* जगत् में जो भी उन्नति वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है। दोष बता बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। ~ विवेकानंद <br />
* प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम <br />
* प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय। ~ बंकिमचंद्र <br />
<br />
===प्रेम के बिना पृथ्वी क़ब्र है===<br />
* बिना प्रेम किए मर जाने से ज़्यादा दुखद कुछ कोई और नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी ज़्यादा तकलीफ की बात यह है कि जिसे आप प्रेम करते हों, उसे बिना यह बताए ही दुनिया से विदा हो जाएं, कि आप उससे प्रेम करते थे। ~ अज्ञात <br />
* प्रेम निकाल दो तो यह पृथ्वी क़ब्र है। ~ रॉबर्ट ब्राउनिंग <br />
* जितनी गहराई, ऊंचाई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं तुमसे प्रेम करती हूं। ~ एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग <br />
* जे दिन गए तुम्हइं बिनु देखे, से बिरंचि मम गिनइ न लेखे। (जो दिन तुम्हें देखे बिना गए, विधाता उन्हें मेरे भाग्य में न गिने।) ~ तुलसी <br />
* हाउ सैड ऐंड बैड ऐंड मैड इट वाज़ बट स्टिल हाउ इट वाज़ स्वीट (कितना बुरा, उदास और पागल नुमाफिर भी कितना मीठा वह एहसास) ~ कोलरिज <br />
<br />
===प्रेम से शांत होता है वैर===<br />
* संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होते। प्रेम से ही वैर शांत होता है। ~ धम्मपद <br />
* तृण वृत्ति वाले मृग, जल वृत्ति वाले मीन और संतोष वृत्ति वाले सज्जनों के भी इस संसार में शिकारी, मछुवा और चुगलखोर बिना कारण के ही वैरी रहते हैं। ~ भर्तृहरि <br />
* व्यंग्य वचन दूसरों का हृदय छेदने में तीर का काम करते हैं। ~ अज्ञात <br />
<br />
===प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है===<br />
* प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन <br />
* सुरूप हो या कुरूप, जिसकी जिसमें मनोगति है, वही उसके लिए उर्वशी है। ~ अतिरात्रयाजी <br />
* परस्पर न मिलते हुए, दूरस्थित प्राणियों में भी स्नेह देखा जाता है, जैसे सूर्य गगन तल में रहता है, परंतु नीचे पृथ्वी पर कमलिनी विकसित होती है। ~ नयनंदी <br />
* प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है। ~ महात्मा गांधी <br />
<br />
===प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तो===<br />
* जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो, तब तुम अपने आप से, एक दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान <br />
* सीखे गए को भूल जाने पर भी जो कुछ बच रहता है, वही शिक्षा है। ~ स्किनर <br />
* सब कुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योग वसिष्ठ <br />
* दूध का आश्रय लेने वाला पानी दूध हो जाता है। ~ विष्णु शर्मा <br />
* वह वैभव, जिसका कभी पतन संभव न हो, साधुओं और फ़कीरों का ही है। ~ हाफिज <br />
* समृद्धि शक्ति भर दुर्गुणों को खोज निकालती है। परंतु विपत्ति शक्ति भर गुणों को खोज निकालती है। ~ बेकन<br />
<br />
===प्रेमी हृदय उदार होता है===<br />
* प्रेमी हृदय उदार होता है, वह दया और क्षमा का सागर है, ईर्ष्या और दंभ के नाले उसमें मिल कर उसे विशाल बना देते हैं। ~ प्रेमचंद <br />
* जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। ~ गांधी <br />
* जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न पाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि <br />
<br />
===प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है===<br />
* प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है। ~ बाणभट्ट <br />
* अतिशय संपन्नता को पाकर भी गर्वरहित लोग किसी को तनिक नहीं भूलते। ~ माघ <br />
* यह स्त्री है, यह पुरुष है- यह निरर्थक बात है। वास्तव में तो सत्पुरुषों का चरित्र ही पूजा योग्य होता है। ~ कालिदास <br />
* सज्जन लोग रत्न पाकर उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने प्रसन्न उस रत्न को किसी निर्लोभ पात्र को देकर होते हैं। ~ भास <br />
* जो धर्माचरण करता है, जीव मात्र के प्रति तितिक्षा रखता है, जो अन्यों से तप्त किए जाने पर भी तप्त नहीं होता, वही मनुष्य श्रेय का पात्र है। ~ मत्स्यपुराण<br />
<br />
===प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं===<br />
* भोग ही प्रेम का प्रधान लक्षण नहीं है। उसका एक प्रधान लक्षण है कि वह आनंद से दु:ख को स्वीकार कर लेता है क्योंकि दु:ख और त्याग से ही प्रेम की सार्थकता है। ~ विमल मित्र <br />
* प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं। वह अ-मृत है। ~ [[उमाशंकर जोशी]] <br />
* प्रेम किसी को अपने सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने-आपके सिवा कुछ लेता है। ~ खलील जिब्रान <br />
* प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। ~ बंकिमचंद्र <br />
* प्रेम मन की सबसे अच्छी दुर्बलता है। ~ ड्राइडेन <br />
<br />
===प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है===<br />
* चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास <br />
* प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन <br />
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी <br />
* जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर <br />
* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन<br />
<br />
===पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है===<br />
* दूसरों पर दोषारोपण नहीं करोगे तो तुम पर भी दोषारोपण नहीं किया जाएगा। दूसरों पर क्रोध नहीं करोगे तो तुम पर भी क्रोध नहीं किया जाएगा। और दूसरों को क्षमा करोगे तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा। ~ नवविधान <br />
* यदि किसी को दूध नहीं दे सकते, तो मत दो। मगर छाछ देने में क्या हर्ज़ है? यदि किसी भूखे को अन्न देने में समर्थ नहीं हो तो कोई बात नहीं, पर प्यासे को पानी तो पिला सकते हो। ~ तुकाराम <br />
* पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसको स्वीकार कर लिया जाता है। ~ स्वामी विवेकानंद <br />
* असंयमी विद्वान् अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी <br />
* यदि तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते, तो जितने हो सकते हो, उतने ही हो जाओ। ~ एमर्सन<br />
<br />
===पहले जैसी स्थिति===<br />
* हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख फरीद <br />
* पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ है। ~ लल्लेश्वरी <br />
* कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन: ये एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते। ~ लोकोक्ति <br />
* राम नाम के बल पर अधर्म मत करो। राम नाम स्मरण के साथ-साथ शुद्ध कर्म भी करना आवश्यक है। ~ एकनाथ<br />
<br />
===प्रतिभा धैर्य की महान् क्षमता मात्र है===<br />
* असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा <br />
* जब प्रकृति को कोई महान् कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन <br />
* प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ <br />
* प्रतिभा धैर्य की महान् क्षमता मात्र है। ~ बफां <br />
* प्रतिभा स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त सांस ले सकती है। ~ जॉन स्टुअर्ट मिल्स <br />
<br />
===प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता===<br />
* प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ <br />
* उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात <br />
* असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा <br />
* प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता। ~ कार्लाइल<br />
<br />
===प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती===<br />
* उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ वल्लभदेव <br />
* प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती। जो परिश्रमी है, वही सब कुछ प्राप्त करता है। ~ महादेवी वर्मा <br />
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर स्तुति के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर <br />
* सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात <br />
* जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन <br />
<br />
===प्रीति नहीं प्रयोजन ने किया बेड़ा गर्क===<br />
* आप दूसरों को तभी ऊपर उठा सकते हैं, जब आप स्वयं भी ऊपर उठ चुके हों। ~ शिवानंद <br />
* दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी <br />
* प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र <br />
* मानव स्वभाव है, वह अपने सुख को विस्तृत करना चाहता है। और भी, केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
<br />
==='प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय'===<br />
* इंद्रिय-जय से विनय प्राप्त होती है, विनय से प्रकृष्ट गुण प्राप्त होते हैं, प्रकृष्ट गुणों से लोकप्रियता प्राप्त होती है और लोकप्रियता से मनुष्य संपत्ति प्राप्त करता है। ~ अलंकारसर्वस्व <br />
* आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत <br />
* 'प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय' है। तप और निश्चय के संयोग से 'प्रायश्चित' होता है। ~ आंगिरसस्मृति <br />
* आरंभ न करना अच्छा है, पर आरंभ करके छोड़ना ठीक नहीं। ~ बोधिचर्यावतार <br />
<br />
===परोपकार संतों का सहज स्वभाव===<br />
* दु:ख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते हैं। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर होते रहते हैं। ~ कालिदास <br />
* सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी <br />
* परोपकार संतों का सहज स्वभाव है। वे वृक्ष के समान हैं जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ <br />
* दूध से जला हुआ बालक दही को भी फूंक-फूंककर खाता है। ~ अज्ञात<br />
<br />
===परोपकार से पुण्य होता है===<br />
* जिनका मन कपटरहित है, वे ही प्राणिमात्र पर दया करते हैं। ~ क्षेमेंद्र <br />
* दयालु लोगों का शरीर परोपकार से सुशोभित होता है, चंदन से नहीं। ~ भर्तृहरि <br />
* परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। ~ पंचतंत्र <br />
* वृक्ष अपने सिर पर सूर्य की प्रचंड धूप सहता है, किंतु अपने आश्रितों की गर्मी अपनी छाया से दूर करता है। ~ कालिदास <br />
* त्याग ही एकमात्र प्रशंसायोग्य गुण है। अन्य गुणों के समुदाय से क्या प्रयोजन। ~ आचार्य नारायण राम <br />
<br />
===परोपकार का आचरण मत त्यागो===<br />
* मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण <br />
* विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद <br />
* किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे <br />
* परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य <br />
* तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत् शुद्ध है। ~ शिव <br />
* मनुष्य सुख और दु:ख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। ~ भगवतीचरण वर्मा <br />
* अधिक धनसंपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित रहने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष <br />
* संगीत गले से ही निकलता है, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी <br />
* शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ अज्ञात <br />
<br />
===परोपकार ही धर्म है===<br />
* परोपकार ही धर्म है, परपीड़न ही पाप। ~ विवेकानंद <br />
* छिपाने के द्वारा पाप का पोषण किया जाता है और उसे जीवित रखा जाता है। ~ वर्जिल <br />
* भय और दंड से पाप कभी बंद नहीं होते। ~ रामतीर्थ <br />
* दूसरों के पाप गिनाने से पहले अपने पाप गिनो। ~ क़ाज़ीनजरुल इस्लाम <br />
<br />
===परंपरा और विद्रोह===<br />
* अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, परायी बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उड़िया लोकोक्ति <br />
* जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर <br />
* जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड <br />
* परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर <br />
* किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी ज़रूरत पड़ती है। ~ गेटे <br />
<br />
===परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है===<br />
* परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही असली प्रगति है। ~ दिनकर <br />
* परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। ~ राधाकृष्णन <br />
* परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है। ~ विद्यानिवास मिश्र <br />
* आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। ~ धम्मपद <br />
<br />
===पत्नी और पति===<br />
* पति होने की तुलना में प्रेमी होना कहीं आसान है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि हर दिन अक्लमंदी की बात कहना समय-समय पर कुछ प्यारी-प्यारी बातें कहते रहने की तुलना में कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है। ~ बाल्जाक <br />
* हर किसी को देखकर मुस्कराओ। अपनी पत्नी को देखकर, बच्चे को देखकर, एक-दूसरे को देखकर मुस्कराओ, चाहे सामने कोई भी क्यों न हो। इससे आप सभी में एक-दूसरे के प्रति प्यार बढ़ेगा। ~ मदर टेरेसा <br />
* अपनी सर्वोच्च स्थिति में यदि हमें अपनी पत्नी या पति को खोना पड़ता है तो इसमें एक अप्रसन्न विवाह के सिवाय खोने को और कुछ भी नहीं होता। उसे खोकर हम स्वयं को प्राप्त करते हैं। लेकिन कोई विवाह यदि दो ऐसे लोगों के बीच होता है, जो खुद को खोज चुके हैं तो यहां से एक प्यारे से एडवेंचर की शुरुआत होती है, जिसमें हरीकेन वगैरह भी शामिल होते हैं। ~ रिचर्ड बाख <br />
* जब एक स्त्री दूसरा विवाह करती है तो ऐसा वह अपने पहले पति से नफरत की वजह से करती है। जब एक पुरुष दूसरा विवाह करता है तो ऐसा वह अपनी पहली पत्नी को दिलोजान से चाहने की वजह से करता है। स्त्रियां अपनी किस्मत आजमाती हैं, पुरुष अपनी किस्मत दांव पर लगाते हैं। ~ ऑस्कर वाइल्ड <br />
* पति वह है जो प्रेमी के सारे स्नायु निचुड़ जाने के बाद बचा रह जाता है। ~ हेलन रौलां <br />
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===परिवर्तन ही सृष्टि है===<br />
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
* पुरुषार्थ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में है। ~ महात्मा गांधी <br />
* परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद <br />
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===पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं===<br />
* इस संसार को व्यापार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी है। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता हैं। ~ विद्यापति <br />
* सज्जन लोग स्वाभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट <br />
* मेरी भक्तिपूर्ण खोज ने मुझे 'ईश्वर सत्य है' के प्रचलित मंत्र की बजाय 'सत्य ही ईश्वर है' का अधिक गहरा मंत्र दिया है। ~ महात्मा गांधी <br />
* यह सच है कि पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहनेवाले नहीं। मगर ऐसे लोग तैरना भी नहीं सीखते। ~ सरदार पटेल <br />
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===पढ़ना सीखने का एक तरीका है===<br />
* आयु की चिन्ता विद्या नहीं करती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र <br />
* पढ़ना सीखने का एक तरीका है, लेकिन व्यवहार करना भी सीखने का एक तरीका है और यह कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। ~ माओ त्से तुंग <br />
* जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि <br />
* झूठ से जो पाऊंगा, वह पाना नहीं खोना है और सत्य से जो खोता है, वह खोना नहीं पाना है। ~ विमल मित्र <br />
* यह सच है कि पानी में तैरने वाले ही डूबते हैं, किनारे पर रहने वाले नहीं। मगर यह भी सच है कि किनारे पर रहने वाले कभी तैरना नहीं सीख पाते। ~ वल्लभभाई पटेल<br />
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===पलटने और पढ़ने में बड़ा फ़र्क़ है===<br />
* पलटने और पढ़ने में बड़ा फ़र्क़ है। जो पाठक किताब को सचमुच पढ़ लेते हैं, वे सदा उसे अपने साथ महसूस कर सकते हैं। ~ राधाकृष्णन <br />
* अच्छी पुस्तकों के पास होने से हमें अपने भले मित्रों के साथ न रहने की कमी नहीं खटकती। जितना ही मैं पुस्तकों का अध्ययन करता गया उतना ही अधिक मुझे उनकी विशेषताएं मालूम होती गईं। ~ महात्मा गांधी <br />
* रोग की तकलीफ शांत करने के लिए चित्ताकर्षक और मनोरंजक पुस्तक से बढ़ कर दूसरा कोई अच्छा साधन नहीं है। ~ अज्ञात <br />
* पुस्तकें जाग्रत देवता हैं, उनकी सेवा कर के तत्काल वरदान पाया जा सकता है। ~ रामनरेश त्रिपाठी <br />
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===पूजा हमेशा गुण की होती है===<br />
* गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं। ठीक वैसे ही जैसे पूर्ण चंद्रमा उतना वंदनीय नहीं है जितना निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। ~ चाणक्य <br />
* जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। ~ भगवान महावीर <br />
* सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले जाते हैं। ~ अज्ञात<br />
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===परमात्मा की प्रार्थना करने के===<br />
* परमात्मा की प्रार्थना करने के लिए एकत्र होने वाले लोग हृदय से एक हो जाते हैं। ~ विनोबा <br />
* भजन का फल अनंत है, महान् है, उसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ~ वेदव्यास <br />
* संसार में छल, प्रवंचना और हत्यारों को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत् ही नरक है। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
* जनता जो कुछ सीखती है वह घटनाक्रम की पाठशाला में सीखती है और दुख-दर्द ही उसका शिक्षक है। ~ जवाहरलाल नेहरू <br />
* आत्मा को आत्मा की ही आवाज जगा सकती है। ~ प्रेमचंद<br />
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===प्राप्त धन का उपयोग करने में दो भूलें===<br />
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास <br />
* मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है। और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी <br />
* मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान <br />
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड<br />
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===पतित होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है===<br />
* बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
* सद्बुद्धि वाले पुरुष को अल्प सुख एवं अधिक क्लेश वाला कार्य नहीं करना चाहिए। ~ अचिन्त्यानन्द वर्णी <br />
* मरुस्थल की मरीचिका जैसी लक्ष्मी बुद्धिमान को मोहित नहीं कर पाती। ~ सोमदेव <br />
* बुद्धिमान वे हैं, जिनकी दृष्टि में कांच कांच है और मणि मणि। ~ भल्लट भट्ट <br />
* पतित अथवा पथभ्रष्ट होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है। ~ क्षेमेंद्र <br />
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===प्रसन्न देवता सद्बुद्धि देते हैं===<br />
* जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि <br />
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, कर्म ही उसे हेय या पूजनीय बनाता है। ~ चाणक्य <br />
* राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू <br />
* देवता प्रसन्न होने पर कुछ नहीं देते, केवल सद्बुद्धि ही प्रदान करते हैं। ~ श्री हर्ष <br />
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास <br />
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===पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए===<br />
* ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते। न वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं। इन्हीं लोगों के हाथों ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आंखों से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान बिखेरता है। ~ खलील जिब्रान <br />
* दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं। ~ एडिसन <br />
* यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ-त्से <br />
* दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा गुण है। ~ तुकाराम <br />
* तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर <br />
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===पाना है, तो देना सीखो===<br />
* जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी <br />
* सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। ~ रामचंद्र शुक्ल <br />
* यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ - त्से<br />
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===पाले हुए शत्रु के समान धन===<br />
* यदि धन अपने पास इकट्ठा हो जाए तो वह पाले हुए शत्रु के समान है। उसको छोड़ना भी कठिन हो जाता है। ~ वेदव्यास <br />
* जब धन ज़रूरत से ज्यादा हो जाता है तो अपने लिए निकास का मार्ग खोजता है। वह यों तो निकल न पाएगा, इसलिए जुए में जाएगा, घुड़दौड़ में जाएगा या ऐयाशी में जाएगा। ~ प्रेमचंद <br />
* जो अधिक धनवान है, वही अधिक मोहताज है। ~ शंकराचार्य <br />
* यह धन का ही प्रभाव है कि अपूजनीय भी पूजनीय, अगमनीय भी गमनीय और अवंदनीय भी वंदनीय हो जाता है। ~ पंचतंत्र<br />
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===प्रतीक्षा भी सेवा===<br />
* जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन <br />
* काया के पिंजरे चाहे जितने रंगों के हों, पर मन का पंछी तो सबमें एक ही जैसा है। ~ अमृतलाल नागर <br />
* यदि मन में प्रपंच हो तो मन में भगवान का वास नहीं हो सकता, और यदि मन में भगवान हों तो प्रपंच हो नहीं सकता। ~ दयाराम <br />
* जब तक अन्त:करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। ~ प्रेमचंद <br />
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===पृथ्वी पर तीन चीज़ें व्यर्थ हैं===<br />
* सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत् के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट <br />
* शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि <br />
* वैराग्य के बिना कोई भी अपने संपूर्ण अंत:करण को परोपकार के काम में नहीं लगा सकता। ~ विवेकानंद <br />
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं - प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल<br />
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===पृथ्वी पर तीन रत्न हैं===<br />
* यह संपत्ति क्या है? केवल कुछ चीजें, जिन्हें तुम इस भय से कि इनकी कल तुम्हें ज़रूरत पड़ सकती है, संचित करते हो और जिनकी रखवाली करते हो। ~ खलील जिब्रान <br />
* मेरे विचार से जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है, वह चिंतन और कर्म द्वारा कदापि महान् नहीं बन सकता। ~ सुभाषचंद बोस <br />
* छोटी वस्तुओं का समूह कार्यसाधक होता है। तिनकों से बनी रस्सी से मतवाले हाथी बांध लिए जाते हैं। ~ नारायण पंडित <br />
* कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या <br />
* पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोग ही पाषाण खंडों को रत्नों का नाम देते हैं। ~ चाणक्यनीति <br />
* जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी<br />
* कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या <br />
* सत्य को सूचक ही नहीं, प्रेरक भी होना चाहिए। ~ रवींद्रनाथ टैगोर <br />
* आए हुए उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना सज्जनों का कुलव्रत है। ~ विशाखदत्त <br />
* अपनी निंदा और प्रशंसा, पराई निंदा और पराई स्तुति- यह चार प्रकार का आचरण श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी नहीं किया। ~ वेदव्यास <br />
* पराजय, अपयश, कुटिल आचरण और द्वेष हमारे पास कभी न आएं। ~ अथर्ववेद<br />
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===पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है===<br />
* समय बीतने पर उपार्जित विद्या भी नष्ट हो जाती है, मज़बूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर जाते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। लेकिन सत्पात्र दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है। ~ भास <br />
* मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद <br />
* दूसरों की प्राण रक्षा से बढ़कर संसार में कोई पुण्य नहीं है। ~ बाणभट्ट <br />
* पुण्य रूपी वृक्ष में तत्काल ही अचिंतनीय फल उत्पन्न होते हैं। ~ सोमदेव <br />
* पीड़ा का सीमातीत हो जाना ही उसकी चिकित्सा है। जैसे बिंदु का समुद्र में विलीन होना ही उसका सुख व विश्राम पा जाना है। ~ ग़ालिब <br />
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===पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें===<br />
* तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठ पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिज़ाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम <br />
* तपस्या से लोगों को विस्मित न करें। यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति <br />
* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडल होम्स <br />
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण <br />
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा <br />
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===पीड़ितों की सेवा===<br />
* जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे। ~ गौतम बुद्ध <br />
* सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र करती है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, और यही जीवन का लक्ष्य है। ~ स्वामी शिवानंद <br />
* सेवा उसकी करो जिसे सेवा की ज़रूरत है। जिसे सेवा की ज़रूरत नहीं उसकी सेवा करना ढोंग है, दंभ है। ~ महात्मा गांधी <br />
* निष्ठावंत और निष्काम सेवा ज़्यादा दिन एकाकी नहीं रहने पाती। ~ विनोबा<br />
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===परिचय के पीछे स्वार्थ न हो===<br />
* प्रियतम की स्मृति भक्तों का परम धन है जो ज्ञान उन्हें इस धन से वंचित करता हुआ रस शून्य बनाने की प्रेरणा देता है उनकी दृष्टि में वह सर्वथा घातक है। ~ राम किंकर उपाध्याय <br />
* पराजय से सत्याग्रही और अहिंसक की आत्मा को निराशा नहीं होती। उससे तो कार्य-क्षमता और लगन बढ़ती है और सत्य से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत होकर उसका मार्ग-दर्शन करती है। ~ महात्मा गांधी <br />
* किसी को अपना परिचय देना बुरा नहीं है, बुरा तभी है जब वह किसी स्वार्थ या अहंकार से दिया जाता है। ~ अज्ञात<br />
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===पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो===<br />
* संगीत सिर्फ गले से ही निकलता हो, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी <br />
* पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो। ~ मैथिलीशरण गुप्त <br />
* एक बुराई दूसरी बुराई से उत्पन्न होती है। ~ टेरेंस <br />
* कभी न लौटने वाला समय जा रहा है। ~ अज्ञात <br />
* जितने में पेट भर जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत <br />
* बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी अपने वर्तमान दुखों के लिए रोया नहीं करते, अपितु वर्तमान में दु:ख के कारणों को रोका करते हैं। ~ शेक्सपियर<br />
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===पापी कहना पाप है===<br />
* इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर लेता है क्योंकि संतोष ही हमेशा इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी <br />
* मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव - स्वभाव पर एक लांछन है। ~ स्वामी विवेकानंद <br />
* विचारकों को जो चीज़ आज स्पष्ट दीखती है दुनिया उस पर कल अमल करती है। ~ विनोबा <br />
* मनुष्य की सबसे बड़ी विजय मन की दुर्बलताओं पर विजय पाना है। ~ अज्ञात <br />
* न तो कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से मित्र तथा शत्रु बन जाते हैं। ~ हितोपदेश <br />
* दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। ~ बाइबल<br />
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===पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है===<br />
* मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नए-नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद <br />
* जहां किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर तुम कोई पाप करने पर उतारू होते हो, वहीं ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करो। ~ स्वामी रामतीर्थ <br />
* जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वही पाप है। ~ महात्मा गांधी <br />
* पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है। ~ सुदर्शन <br />
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===पाप और पुण्य===<br />
* पाप-पुण्य सब मनोवृत्तियों के लक्षणों पर निर्भर है। यदि मनोवृत्ति शुद्ध हो और कोई व्यक्ति पाप कर बैठे तो पाप नहीं। यदि मनोवृत्ति दूषित हो और ऐसे समय में कोई पुण्य भी बन जाए तो उसका फल नहीं। ~ वृंदावनलाल वर्मा <br />
* मनुष्य के मस्तिष्क की तरह लचीली और कोई चीज़ नहीं है। बंद की हुई भाप की तरह जितना दबाव इस पर पड़ता है, उतनी ही शक्ति से यह दबाव के साथ लड़ती है। जितना अधिक काम इस पर आ पड़ता है, उतनी ही यह पूरा कर लेती है। ~ अज्ञात <br />
* मनोवृत्ति सुगंध के समान है जो छिपाने से नहीं छिपती। ~ प्रेमचंद <br />
* मन का पूर्ण निरोध करने में विषयहीन मन ही समर्थ होता है। ~ उपनिषद्<br />
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===पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं===<br />
* पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं। ~ अथर्ववेद <br />
* जहां पवित्र बुद्धि होती है, वहां सारी कामनाएं सिद्ध होती हैं। ~ ऋग्वेद <br />
* तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति<br />
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===पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य बढ़ता है===<br />
* भविष्यवाणी करने का एकमात्र मार्ग भविष्य को ढालने की शक्ति से संपन्न होना है। ~ ऐरिक हॉफर <br />
* उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात <br />
* पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास <br />
* धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप<br />
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===पुरुषों को महिलाओं से बात करने का लहजा नहीं आता===<br />
* मुझे लगता है कि पुरुषों का एक तबका अभी भी नहीं जानता कि महिलाओं से बात करने का लहजा क्या होना चाहिए। इसलिए इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इंसान निएंडरथल से आज के आधुनिक रूप में सामने आ गया हो। ~ सोनम कपूर, ऐक्ट्रेस <br />
* लोग नंगा सच देखना पसंद नहीं करते, इसके बजाय उन्हें ढका हुआ झूठ ज्यादा पसंद आता है। ~ राम गोपाल वर्मा, डायरेक्टर <br />
* रात के डर से सूरज अपनी रोशनी देना बंद नहीं करता, तो फिर नाकामयाबी के डर से क्यों हम अपना काम करना बंद कर दें। ~ भाग्यश्री, ऐक्ट्रेस<br />
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===[[प्रार्थना]]===<br />
* प्रार्थना तभी प्रार्थना है जब वह अपने आप हृदय से निकलती है। ~ महात्मा गांधी <br />
* दान तो वही श्रेष्ठ है जो किसी को दीन नहीं बनाता। दया या मेहरबानी से जो हम देते हैं उसके कारण दूसरे की गर्दन नीचे झुकाते हैं। ~ विनोबा <br />
* क्रोध न करके क्रोध को, भलाई करके बुराई को, दान करके कृपण को और सत्य बोलकर असत्य को जीतना चाहिए। ~ वेदव्यास <br />
* ग़लती कोई भी मनुष्य कर सकता है परंतु मूर्ख के सिवा कोई उसे जारी नहीं रख सकता। ~ सिसरो <br />
* जिन्हें कहीं से प्रशंसा नहीं मिलती, वे आत्म प्रशंसा करते हैं। ~ अज्ञात<br />
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===प्रार्थना धर्म का निचोड़ है===<br />
* प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। प्रार्थना दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति है, यह हृदय के भीतर चलने वाले अनुसंधानों का नाम है। ~ महात्मा गांधी <br />
* मैं भगवान से अष्टसिद्धि या मोक्ष की कामना नहीं करता। मेरी यही एक प्रार्थना है कि समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित होकर मैं ही उनके समस्त दुखों को सहूं। ~ श्रीमद्भागवत <br />
* बारिश का परिणाम शरीर पर और उसके द्वारा मन पर होता है तो प्रार्थना का परिणाम हृदय के द्वारा आत्मा पर होता है। ~ विनोबा<br />
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===प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है===<br />
* सब जगह पुरुष ही पंडित (बुद्धिमान)नहीं होता। जिस-तिस विषय में विलक्षण स्त्रियां भी पंडित होती हैं। ~ जातक <br />
* निरंतर परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर <br />
* वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गायें परोपकार के लिए दूध देती हैं, यह शरीर परोपकार के लिए ही है। ~ अज्ञात <br />
* जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे दिन हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड <br />
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं, हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी<br />
* हमारे भीतर जो प्राण शक्ति है, उसी का नाम अमृत है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल <br />
* जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुसार लक्ष्मी आती है, त्याग के अनुसार कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुसार विद्या प्राप्त होती है और कर्म के अनुसार बुद्धि बनती है। ~ अज्ञात <br />
* वही अच्छी प्रार्थना है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ईश्वर ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कॉलरिज <br />
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===प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है===<br />
* मन को विषाद ग्रस्त नहीं बनाना चाहिए। विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ सांप बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद व्यक्ति का नाश कर डालता है। ~ वाल्मीकि <br />
* वृक्ष अपने सिर पर गर्मी सह लेता है लेकिन अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता है। ~ कालिदास <br />
* विपत्ति आती है और चली जाती है, वीर वही है जो धीर रहे और न्याय, सचाई का त्याग न करे। ~ सुदर्शन <br />
* प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है। ~ जयशंकर प्रसाद<br />
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===प्रत्येक सत्य, ईश्वरीय सत्य है===<br />
* जितेंद्रिय पुरुष के मन में विघ्नकर वस्तुएं थोड़ा भी क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकती हैं। ~ कालिदास <br />
* प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ सेंट एम्ब्रोस <br />
* दुराग्रह से ग्रस्त चित्त वालों के लिए सुभाषित व्यर्थ हो जाते हैं। ~ माघ <br />
* जो जाति जितनी ही अधिक सौंदर्य प्रेमी है, उसमें मनुष्यता भी उतनी ही अधिक होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी<br />
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===पड़ोसी भाई से कहीं उत्तम है===<br />
* प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य <br />
* प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास <br />
* वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर <br />
* जीवन एक कहानी के सदृश है- वह कितनी लंबी है नहीं, वरन् कितनी अच्छी है, यह विचारणीय विषय है। ~ सेनेका<br />
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===परिश्रमी भाग्य को भी कर देता है परास्त===<br />
* शास्त्र को जानने वाला भी जो पुरुष लोक व्यवहार में पटु नहीं होता, वह मूर्ख के समान है। ~ चाणक्यसूत्राणि <br />
* विद्वान् तो बहुत होते हैं, पर विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले बहुत कम होते हैं। ~ सरदार वल्लभ भाई पटेल <br />
* संसार में दो ही व्यक्ति दुर्लभ हैं- उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय <br />
* निरंतर अथक परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर <br />
* प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय है। ~ बेकन<br />
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===परिश्रम के स्वार्जित भोजन से सबसे मधुर===<br />
* चाहे सूखी रोटी ही क्यों न हो, परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता। ~ तिरुवल्लुवर <br />
* करुणा करने वालों का शरीर परोपकारों से शोभा पाता है, चंदन से नहीं। ~ भतृहरि <br />
* वृक्ष फल लगने पर झुक जाते हैं। मेघ नए जलों से भरने पर नीचे दूर तक लटक जाते हैं। सत्पुरुष समृद्धियां पाने पर विनम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का यही स्वभाव है। ~ कालिदास <br />
* परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। ~ भारवि<br />
* मनुष्य परिस्थितियों के लिए सृष्टि नहीं है, बल्कि परिस्थितियां मनुष्य के लिए सृष्टि हैं। ~ डिजरायली <br />
* पागल बने बिना कोई महान् नहीं हो सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक पागल व्यक्ति महान् होता है। ~ सुभाषचंद्र बोस <br />
* उद्यमी व्यक्ति योग्य न हो, तो भी सफलता प्राप्त कर लेता है। ~ अज्ञात<br />
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===पराक्रमी मनुष्य के साथ समृद्धियां===<br />
* जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद<br />
* दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी<br />
* यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान<br />
* समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि<br />
* किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय<br />
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===पश्चाताप करने पर पाप मिट जाता है===<br />
* पापकर्म हो जाने पर जो सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह मनुष्य उस पाप से छूट जाता है। क्योंकि वह उसे नहीं दोहराने का निश्चय कर लेता है। ~ वेदव्यास <br />
* मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त <br />
* तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे। ~ मनुस्मृति <br />
* निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक <br />
* नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित<br />
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==फ==<br />
===फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा===<br />
* इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि पाप प्रारब्ध से होते हैं। पाप होते हैं मनुष्य की आसक्ति से। और उनका फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार <br />
* शरीर से तभी पाप होते हैं जब वे मन में होते हैं। छोटे बच्चे के मन में काम नहीं होता। वह युवतियों के वक्ष पर खेलता है, उसके शरीर में कोई विकार नहीं होता। ~ अज्ञात <br />
* संसार में प्राणी स्वतंत्र और स्वाभाविक जीवन व्यतीत करने के लिए आए हैं। उनको स्वार्थ के लिए कष्ट पहुंचाना महान् पाप है। ~ लोकमान्य तिलक <br />
* मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंस जाता है, तब वह उसी में और लिपटता जाता है। उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की एक श्रृंखला बन जाती है। फिर उसी के नए - नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद<br />
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===फल मनुष्य के कर्म के अधीन है। बुद्धि===<br />
* फल मनुष्य के कर्म के अधीन है। बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है। फिर भी विद्वान् और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं। ~ चाणक्य <br />
* मन से किया गया कर्म ही यथार्थ होता है, शरीर से किया गया नहीं। जिस शरीर से पत्नी को गले लगाया जाता है उसी शरीर से पुत्री को भी गले लगाते हैं, पर मन का भाव भी भिन्न होने के कारण दोनो मे अंतर रहता है। ~ अज्ञात <br />
* इस धरती पर कर्म करते सो साल तक जीने की इच्छा रखो क्योेंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्मनिष्ठा छोड़ कर भोग-वृत्ति रखता है वह मृत्यु का अधिकारी माना जाता है। ~ वेद <br />
* निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है। ईश्वर उसे सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ <br />
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===फुटबॉल की तरह धन का खेल===<br />
* फुटबॉल की तरह धन का खेल होना चाहिए। फुटबॉल को कोई अपने पास नहीं रखता। वह जिसके पास पहुंचती है, वही उसे आगे फेंक देता है। धन को इस तरह फेंकते जाएंगे तो समाज का आरोग्य क़ायम रहेगा। ~ विनोबा <br />
* पाप में पड़ना मानव-स्वभाव है। उसमें डूबे रहना शैतान-स्वभाव है। उस पर दुखी होना संत-स्वभाव है और सब पापों से मुक्त होना ईश्वर-स्वभाव है। ~ लांगफेलो <br />
* दान का भाव एक बड़ा उत्तम भाव है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाज में दान-पात्रों का एक वर्ग पैदा कर दिया जाए। ~ संपूर्णानंद <br />
* जैसे जल के द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान से मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास<br />
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==ब==<br />
===बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं है===<br />
* बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं, उम्र के कारण मिले हुए ज्ञान और चतुराई में भी है। ~ महात्मा गांधी <br />
* बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है, जिसकी आत्मा पवित्र है वही बड़ा है। ~ प्रेमचंद <br />
* किसी आदमी की बुराई-भलाई उस समय तक मालूम नहीं होती जब तक कि वह बातचीत न करे। ~ बालकृष्ण भट्ट <br />
* जो मनुष्य तौल कर बात नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ शेख सादी<br />
* पड़ोसी से प्रेम करने वाला विपत्ति में भी सुखी रहता है, जबकि पड़ोसी से वैर ठानने वाला संपत्ति पाकर भी दुखी रहता है। ~ रामप्रताप त्रिपाठी <br />
* अपना कर्तव्य करने से पहले दूसरे के कर्तव्य की आलोचना करना पाप होता है। ~ शरत्चंद्र <br />
* महान् ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद और उल्लास है। ~ जवाहर लाल नेहरू <br />
* जब तक मन नहीं जीता, राग-द्वेष शांत नहीं होते। ~ विनोबा भावे<br />
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===बुराई के बीज===<br />
* बुराई के बीज चाहे गुप्त से गुप्त स्थान में बोओ, वह स्थान किले की तरह चाहे सुरक्षित ही क्यों न हो, पर प्रकृति के अत्यंत कठोर, निर्दय, अमोघ, अपरिहार्य क़ानून के अनुसार तुम्हें ब्याज सहित कर्मों का मूल्य चुकाना होगा। ~ स्वामी रामतीर्थ <br />
* सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ~ रामचन्द्र शुक्ल <br />
* मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव समाज पर एक लांछन है। ~ विवेकानंद <br />
* जिस आदमी का मान उसके अपने ख्याल से मर चुका है, वह जितनी हानि अपने को पहुंचा सकता है उतनी दूसरा कोई और नहीं पहुंचा सकता। ~ महात्मा गांधी<br />
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===बिना विनय के विजय नहीं टिकती===<br />
* अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान <br />
* बिना विनय के विजय नहीं टिकती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र <br />
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास <br />
* मधुर वचन बोलने वालों के पास दारिद्रय कभी नहीं फटकता। ~ तिरुवल्लुवर <br />
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह<br />
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===बिना त्याग के धन की शोभा नहीं===<br />
* बिना त्याग के धन की शोभा नहीं होती। ~ अग्नि पुराण <br />
* रक्षा का पहला साधन तो अपने हृदय में पड़ा है। वह है ईश्वर में सरल श्रद्धा, दूसरा है पड़ोसियों की सद्भावना। ~ महात्मा गांधी <br />
* दुखती आंखों वाले को सामने रखी दीपशिखा अच्छी नहीं लगती है। ~ कालिदास <br />
* लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। ~ इतिवुत्तक <br />
* राग मिलाने वाला वासना है और द्वेष अलग करने वाली। ~ रामचंद्र शुक्ल <br />
* मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष<br />
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===बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है===<br />
* दु:ख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना। ~ वेदव्यास <br />
* 99 फीसदी अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य खुद को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उसकी कितनी ही भयंकर भूल क्यों न हो। ~ डिजरायली <br />
* बुरा आदमी तब और भी बुरा है जब वह साधु बनने का स्वांग रचता है। ~ बेकन <br />
* शरीर जल से पवित्र होता है, मन सत्य से, आत्मा धर्म से और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है। ~ मनुस्मृति <br />
* परोपकार के लिए कुछ छल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद <br />
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===बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत करें===<br />
* दो बैर करने वालों के बीच में बात ऐसे कहें कि यदि वे मित्र बन जाएं तो आपको लज्जित न होना पड़े। ~ शेख सादी <br />
* कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, पर कटु वचन रूपी बाण नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है। ~ वेदव्यास <br />
* हितकर किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि <br />
* जैसे सत्तू को सूप से परिष्कृत करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपनी बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत कर प्रस्तुत करते हैं। ~ ऋग्वेद <br />
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===बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है===<br />
* जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संगृहित किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं- वहां मानो लक्ष्मी स्वयंमेव आई हुई है। ~ चाणक्यनीति <br />
* बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है। संस्कृति का लक्ष्य पूर्णता है। ज्ञान का लक्ष्य प्रेम है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है। ~ सत्य साईं बाबा <br />
* मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष <br />
* लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य-मार्ग में बाधक है तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद <br />
* वचन का पालन करने वाला कंजूस की भांति तोल कर अपने मुख से शब्द निकालता है। ~ महात्मा गांधी <br />
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===बुद्धिमान के पास ही बल है===<br />
* जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा <br />
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र <br />
* जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल <br />
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण <br />
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य<br />
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===बुद्धिमानों की ग़लतियां अधिक मार्गदर्शक===<br />
* मनुष्य को कभी अपना अनादर नहीं करना चाहिए। जो स्वयं अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास <br />
* जिस प्रकार दीवाल पर फेंकी गेंद अपने ऊपर आ गिरती है उसी प्रकार दूसरे के लिए चाही हुई हानि अपने ऊपर आ पड़ती है। ~ सोमदेव <br />
* भीतर से कुटिल और बाहर से क्षमा-युक्त व्यक्ति निश्चय ही सर्व अनर्थकारी होता है। ~ नारायण पंडित <br />
* जल और अग्नि के समान धर्म और क्रोध का एक स्थान पर रहना स्वभाव-विरुद्ध है। ~ बाणभट्ट <br />
* प्रेम संयम और तप से उत्पन्न होता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की ज़रूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी <br />
* मूर्ख की सफलताओं की अपेक्षा बुद्धिमानों की ग़लतियां अधिक मार्गदर्शक होती हैं। ~ विलियम ब्लेक <br />
* जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन <br />
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===बलवान का बल उसकी विनयशीलता===<br />
* बलवान का बल उसकी विनयशीलता में है। शत्रुओं को परिवतिर्त करने के लिए बुद्धिमान का शस्त्र यही है। ~ तिरुवल्लुवर <br />
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक <br />
* दयालुता से दयालुता का और विश्वास से विश्वास का जन्म होता है। ~ सैमुअल स्माइल्स <br />
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल <br />
* समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना व्यर्थ है, धनाढ्यों को दान देना और दिन के समय दीये को जला देना निरर्थक है। ~ चाणक्यनीति <br />
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===बेवकूफी से अश्रद्धा अच्छी===<br />
* अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेकर <br />
* चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ हैं। ~ समर्थ रामदास <br />
* मनुष्य की श्रद्धा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वह मनुष्य की बुद्धि को पैनी और प्रखर बनाती है। जब श्रद्धा अंधी हो जाती है, तब वह मर जाती है। ~ महात्मा गांधी <br />
* मन में प्रसन्नता और बड़ी आकांक्षा पैदा कर देना श्रद्धा की पहचान है। ~ मिलिंदप्रश्न <br />
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===बंधे बैल और छुटे सांड में अंतर===<br />
* स्वाधीनता ही स्वाधीनता का अंत नहीं है। धर्म, शांति और काव्य - आनंद, यह सब और भी बड़े हैं। इनके विकास के लिए स्वाधीनता चाहिए, नहीं तो उसका मूल्य ही क्या है। ~ शरतचंद्र <br />
* पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय हज़ार गुना बेहतर है। ~ अज्ञात <br />
* स्वाधीनता पा लेना आसान है, लेकिन उसे बनाए रखना आसान नहीं। ~ माखनलाल चतुर्वेदी <br />
* बंधे बैल और छुटे सांड में बड़ा अंतर है। एक रातिब पाकर भी दुर्बल है, दूसरा घास - पात खाकर ही मस्त हो रहा है। स्वाधीनता बड़ी पोषक वस्तु है। ~ प्रेमचंद <br />
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===बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं===<br />
* कामों में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, शीघ्रता कार्यविनाशिनी होती है। ~ अज्ञात <br />
* शील की सदृशता पहले कभी न देखे हुए व्यक्ति को भी हृदय के समीप कर देती है। ~ बाणभट्ट <br />
* दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी <br />
* बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं। वास्तव में विद्वान् वही हैं जो क्रियावान हैं। ~ नारायण पंडित<br />
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==भ==<br />
===भलाई का जीवन===<br />
* दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम <br />
* नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद <br />
* भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्टल नारायण दासु <br />
* अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना <br />
* जिससे बहुत लोग भयभीत रहते हैं, वह स्वयं भी बहुतों से भयभीत रहता है। ~ पब्लिलियस साइरस <br />
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===भलाई करने वाला भलाई सिखाता है===<br />
* चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास <br />
* प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन <br />
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी <br />
* जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर <br />
* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन<br />
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===भलाई करो इसी में कल्याण है===<br />
* भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्ल नारायण दासु <br />
* अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना <br />
* नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद <br />
* जो मेरे साथ भलाई करता हे वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर <br />
* दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम <br />
<br />
===भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं===<br />
* भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। ~ बाल्मीकि <br />
* भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद <br />
* यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाज़ा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ <br />
* जो आदर्श हमने सच्चे अंत:करण से बनाया है, मन वचन और काया एक करके जिस आदर्श की सृष्टि की है, वह अवश्य ही हमारे सामने सत्य के रूप में प्रकट होगा। ~ स्वेट मार्डेन <br />
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===भीतर शांति हो तो संसार शांत दिखाई देता है===<br />
* अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवाशिष्ट <br />
* मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ <br />
* संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोष एक के भी होने पर सभी साथियों के हो सकते हैं। ~ भागवत <br />
* जिनके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुखी ही है। ~ वेदव्यास<br />
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===भूखा मनुष्य===<br />
* जो निषिद्ध कर्म का आचरण करते हैं, वे हीनतर होते जाते हैं। ~ तांड्य महाब्राह्मण <br />
* केवल अपनी प्रशंसा करने से मूर्ख जगत् में ख्याति नहीं पा सकता। गुफा में छिपे रहने पर भी विद्वान् की सर्वत्र प्रसिद्धि होती है। ~ महाभारत <br />
* संपत्ति और विपत्ति में महापुरुषों का व्यवहार एक सा रहता है। सूर्य उदय के समय रक्त वर्ण का होता है और अस्त के समय भी रक्त वर्ण का ही होता है। ~ पंचतंत्र <br />
* अवस्था के अनुरूप ही वेष होना चाहिए। ~ चाणक्यनीति <br />
* भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर सकता? ~ हितोपदेश <br />
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===भाग्य केवल कल्पना है===<br />
* सफलता का पहला सिद्धांत है अनवरत काम। ~ रामतीर्थ <br />
* भाग्य कुछ भी नहीं करता है, यह तो केवल कल्पना है। ~ योग वाशिष्ठ <br />
* जिस वृक्ष की छाया में बैठें अथवा लेटें, उसकी शाखा तक न तोडें। मित्र द्रोह पाप है। ~ जातक <br />
* भाग्य भी वीरों की ही सहायता करता है। ~ टैरेन्स <br />
* जब द्वार पर पूछताछ की मनाही होती है तो खिड़की पर शंका आ खड़ी होती है। ~ बेंजामिन जोवेट<br />
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===भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं===<br />
* भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं। बुद्धिमान तो पुरुषार्थ के द्वारा उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं। ~ योगवासिष्ठ <br />
* मेधावी पुरुष, थोड़ी सी भी आग को फूंक मार कर बढ़ा लेने की भांति, थोड़े से मूल धन से अपने को उन्नत कर लेता है। ~ जातक <br />
* अपने उपाय से ही उपकारी का उपाय करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष <br />
* प्राणी अकेले जन्म लेता है और अकेले मरता है। वह अकेले ही पुण्य और पाप का फल भोगता है। ~ भागवत <br />
* ठीक समय पर प्रारंभ की गई नीतियां अवश्य ही फल प्रदान करती हैं। ~ कालिदास <br />
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===भाग्य साथ है तो थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल===<br />
* भय से तब तक डरना चाहिए जब तक भय नहीं आया। भय उत्पन्न हो जाने पर निर्भीक के समान रहना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार <br />
* भाग्य की कल्पना मूढ़ लो ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवशिष्ठ <br />
* जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी तरह पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। ~ वेदव्यास <br />
* जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति <br />
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===भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है===<br />
* जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी <br />
* हम ऐसा मानने की ग़लती कभी न करें कि गुनाह में कोई छोटा-बड़ा होता है। ~ महात्मा गांधी <br />
* भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है। ~ जॉनसन <br />
* दूसरे को चुप करने के लिए पहले खुद चुप हो जाओ। ~ सेनेका <br />
* प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त <br />
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===भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां?===<br />
* आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन को गहराइयों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। ~ विवेकानंद <br />
* भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां? ~ माघ <br />
* मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान <br />
* अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित <br />
* न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। ~ चाणक्य नीति <br />
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===भूतकाल स्वप्न और भविष्यकाल अनुमान===<br />
* जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है। ~ वेदव्यास <br />
* जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। ~ आचारांग <br />
* भूतकाल स्वप्न है और भविष्य काल अनुमान है और वह समय जो वर्तमान है, उसे गनीमत समझ। ~ फारसी लोकोक्ति <br />
* सभ्यताओं का जन्म असाधारण रूप से कठिन परिवेशों में होता है, न कि असाधारण रूप से सरल परिवेशों में। ~ आर्नोल्ड टायनबी <br />
* दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में दु:ख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग<br />
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===भगवान तुम्हारे सामने है===<br />
* मनुष्य के अंतर में शुभ और अशुभ दोनों तरह की वृत्तियां हैं। लेकिन अंतरतम में तो शुभ ही भरा है। प्रार्थना से उस अंतरतम में प्रवेश होता है। ~ विनोबा <br />
* भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद <br />
* भगवान तुम्हारे सामने है। संसार से पीठ मोड़ो, वह तुम्हें अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। ~ सत्य साईं बाबा <br />
* यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाज़ा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्र <br />
* जो भलाई से प्रेम करता है वह देवताओं की पूजा करता है। जो आदरणीयों का सम्मान करता है वह ईश्वर की नजदीक रहता है। ~ इमर्सन <br />
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===भोलेपन के बिना बनावटी है सौंदर्य===<br />
* मैं हर बार हारा हूं, फिर भी मैं विजय के लिए जन्मा हूं। ~ एमर्सन <br />
* डूबते सूरज के प्रति लोग अपने द्वार बंद कर लेते हैं। ~ शेक्सपियर <br />
* जिस सौंदर्य में भोलेपन की झलक नहीं, वह बनावटी सौंदर्य है। ~ बालकृष्ण भट्ट <br />
* अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास <br />
* मंगलमयी कोमल वाणी वाला मनुष्य प्राणियों को आनंदित करता है। ~ अज्ञात<br />
<br />
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{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक1 |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''श्रोत्रियकुलीन''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित एक संज्ञा थी।<br />
<br />
*काशिका के अनुसार श्रोत्रिय कुल में उत्पन्न व्यक्ति की संज्ञा श्रोत्रियकुलीन थी। [[मनु]] ने बताया कि किस प्रकार [[विवाह]], वेदाभ्यास, [[यज्ञ]] - इन 3 उपायों से कुलों की प्रतिष्ठा बढ़कर [[महाकुल]] जैसी हो जाती थी।<ref>मनु 3/ 63; 66; 184-185</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=109|url=}}</ref><br />
<br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>पाणिनिकालीन भारतवर्ष में स्त्री चरणों के संस्थापक, सांग सरहस्य वेद का अध्ययन कराने वाले, उपनयन कराने के अधिकारी महान आचार्य शिक्षा के क्षेत्र में सर्वोच्च पद के अधिकारी थे। उन्हीं की कोटि पर पहुंचकर अध्यापन कार्य करने वाली विशिष्ट स्त्रियां '''आचार्या''' जैसे सम्मानित पद की अधिकारिणी होती थीं।<ref>4/1/49 सूत्र में पंडित आचार्यानी का प्रत्युदाहरण</ref><br />
<br />
*पुरुषों के समान ही सांग सरहस्य वेद का अध्यापन कराने और माणविकाओं का उपनयन कराने का जिसे अधिकार हो, वही आचार्या हो सकती थी।<br />
*शिक्षा की ऐसी उन्नत दशा में छात्राओं के लिए अलग आवास स्थानों का प्रबंध भी किया जाना आवश्यक था। [[पाणिनि]] ने विशेष रूप से छात्रिशालाओं का उल्लेख किया है।<ref>छात्र्यादय:शालायाम् 6/2/86</ref> आचार्यों के निरीक्षण में जो शिक्षा संस्थाएं चलती थीं, उन्हीं के अंतर्गत यह छात्रिशालाएं रहती होंगी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=102|url=}}</ref><br />
<br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''बंधु''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित एक शब्द था।<br />
<br />
*काशिका में स्पष्ट लिखा है कि ब्राह्मणत्व आदि जाति तो अव्यक्त है। वह जिन व्यक्तियों द्वारा पहचानी जाती है, वे '''बंधु''' कहलाते हैं।<br />
*बंधु शब्द में यह संकेत है कि एक जाति के सब सदस्य एक पूर्व पुरुष के उत्पन्न होने के कारण एक-दूसरे से बंधे हैं। इस कारण सब जाति भाई आपस में समान 'बंधु' या 'सबंधु' कहे जाते थे।<ref>6/3/85</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=105|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>पाणिनिकालीन भारतवर्ष में, जो [[परिवार]] वेदाध्ययन में प्रमाद करते अथवा किसी भी रूप में सदाचार का परित्याग करते थे, वह '''अकुल या हीनकुल''' माने जाते थे। ऐसे [[कुल]] में उत्पन्न व्यक्ति के लिए [[पाणिनि]] ने 'दुष्कुलीन' या 'दौष्यकुलेय' शब्दों के प्रयोग का उल्लेख किया है।<ref>4/2/142</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=110|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''कल्याणिनेय''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रयोग किया जाने वाला एक शब्द था। तत्कालीन समय में रूपवती [[माता]] का पुत्र 'कल्याणिनेय' कहलाता था।<ref>4।1।126</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=101|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>मूल आठ गोत्र और प्रत्येक के अंतर्गत उत्पन्न होने वाले गोत्र गणों की सूचियां प्राचीन समय में संग्रहित की गई थीं। ऐसी सबसे वृहत सूची 'बौधायन श्रोतसूत्र' के अंत में पाई जाती है, जिसका नाम '''महाप्रवरकांड''' है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=106|url=}}</ref><br />
<br />
*इस सूची में लगभग एक सहस्त्र नाम हैं। आपस्तंब, [[कात्यायन]] और [[आश्वलायन]] के श्रोतसूत्रों में भी गोत्रों की सूचियां हैं, जिनमें बौधायन की अपेक्षा नामों की संख्या कम है।<br />
<br />
<br />
{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''हृद्य''' पाणिनिकालीन भारत में प्रचलित एक शब्द था।<br />
<br />
*[[पाणिनि]] ने एक सूत्र में उन वशीकरण मंत्रों का भी उल्लेख किया है, जिनका जप करके पुरुष स्त्री के हृदय को अपने वश में कर लेता था। यह मंत्र वैदिक है, जो [[अथर्ववेद]] में संग्रहित है। स्त्री हृदय को बांधने वाले यह [[मंत्र]] ‘हृद्य’ कहलाते थे।<ref>बंधने चर्षौ, 4/4/ 96; पर हृदयम येन बध्यते वशीक्रियते स वशीकरण मंत्रों हृद्य इत्युच्यते</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=101|url=}}</ref><br />
<br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''भद्र मातुर''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित शब्द था। अच्छे शील वाली [[माता]] का पुत्र 'भद्र मातुर' कहलाता था।<ref>4/1/115</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=101|url=}}</ref><br />
<br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''मालवीय''' पाणिनि काल में [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] की एक संज्ञा थी।<br />
<br />
*पाणिनि सूत्र ब्रह्मणो जानपदाख्यायाम् 5।4।104 से विदित होता है कि भिन्न-भिन्न जनपदों में बस जाने के कारण ब्राह्मणों की विशेष संज्ञाएँ प्रचलित हो गई थीं।<br />
*अवंतिब्रह्म का तो सीधा अर्थ मालवीय ब्राह्मण ही है, किंतु जिस युग का यह मूर्धाभिषिक्त उदाहरण है, उस काल में [[अवंती जनपद]] का मालव नाम प्रसिद्ध ना हुआ था। चौथी शती के लगभग [[गुप्त काल]] में [[मध्य प्रदेश]] मालव कहलाने लगा और तब से अवंतीब्रह्म: के स्थान पर मालवीय यह नया नाम प्रचलित हो गया।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=105|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''काशकृत्स्ना''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में काशकृत्स्नि आचार्य की [[मीमांसा दर्शन|मीमांसा]] का अध्ययन करने वाली स्त्री को कहा जाता था।<ref>काशकृत्स्निना प्रोक्ता मीमांसा काशकृत्स्नी, तामधीते काशकृत्स्ना, भाष्य 4/1/14/, वा. 5; 4/1/93, वा. 9; 4/3/155 वा. 5)</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=102|url=}}</ref><br />
<br />
<br />
{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
<br />
[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''सनाभि''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलन में आने वाला एक शब्द था।<br />
<br />
*समान नाभि के स्थान में सनाभि आदेश होता है।<ref>6/3/ 85</ref> नाभि का यहाँ अर्थ "गर्भ की नाल" है।<br />
*[[ऋग्वेद]]<ref>ऋग्वेद 1 /139/ 9</ref> में ऋषि परुच्छेप का कथन है कि "हमारी नाभियाँ [[मनु]], [[अत्रि]] और [[कण्व]] आदि पूर्वजों के साथ मिली हुई हैं।<ref>अस्माकं तेषु नाभय:</ref><br />
*सनाभि के अंतर्गत पहली और पिछली सभी पीढ़ियों के [[रक्त]] संबंधी आ जाते हैं। पर मनु<ref> 5/184</ref> पर कुल्लुक ने सनाभ्य का अर्थ सपिंड किया है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=109|url=}}</ref><br />
<br />
<br />
{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
<br />
[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
__INDEX__</div>व्यवस्थापनhttps://bharatdiscovery.org/bharatkosh/w/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE_(%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3)&diff=627623कर्णिका (अलंकरण)2018-05-06T10:10:27Z<p>व्यवस्थापन: Text replacement - "Category:पाणिनिकालीन शब्दावली" to "Category:पाणिनिकालीन शब्दावली
Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''कर्णिका''' नामक एक अलंकरण का उल्लेख [[पाणिनि]] की '[[अष्टाध्यायी]]' में हुआ है। <br />
<br />
*'अष्टाध्यायी' में स्त्रियों के प्रसाधन और अलंकरण की सामग्री का भी उल्लेख पाया जाता है। कानों में पहनने वाले अलंकरण को ‘कर्णिका’ कहा जाता था।<ref>4/3/65</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103|url=}}</ref><br />
<br />
<br />
{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
<br />
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
<br />
[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''बह्वृची''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में ब्रह्मचारिणी कन्याओं के लिए प्रयुक्त होने वाली संज्ञा थी।<br />
<br />
*बह्वृच नामक [[ऋग्वेद]] के चरण में अध्ययन करने वाली ब्रह्मचारिणी कन्याएं '''बह्वृची''' संज्ञा की अधिकारिणी थीं। इससे ज्ञात होता है कि चरणों में जो मान मर्यादा छात्रों को होती थी, वही छात्राओं के लिए भी थी। अन्य उदाहरण सूचित करते हैं कि [[मीमांसा दर्शन|मीमांसा]] और व्याकरण शास्त्र जैसे जटिल विषयों का अध्ययन भी स्त्रियां करती थीं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=102|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''माणविका''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में शिक्षा में प्रवीण कन्या को कहा जाता था।<br />
<br />
*शिक्षा में प्रवीण माणविका के साथ [[विवाह]] करने वाला पति उसके कारण अपने आपको गौरवान्वित मानकर उसके नाम से अपना नामकरण करता था, जैसे-<br />
<br />
"औपगवी माणविका भार्या अस्य औपगवी भार्य:, ग्लूचुकायनी माणविका भार्या अस्य ग्लुचुकायनीभार्य:"<ref>भाष्य 4/1/93, वा. 9</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=102|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''अभिषिक्तवंश्य''' पाणिनिकालीन भारत में राजसत्ता के अधिकारी लोगों को कहा जाता था, क्योंकि केवल इन्हीं कुलों में उत्पन्न किसी व्यक्ति को ‘राजा’ पद पर अभीषिक्त होने का अधिकार प्राप्त था।<br />
<br />
*विशेषत: गण या संघ राज्य प्रणाली में ‘अभीषिक्तिवंश्य’ कुलों का महत्व अधिक था। संघ की मंगल पुष्करिणी से अभिषेक के लिए [[जल]] लेने के वही अधिकारी थे। प्रत्येक गण में ऐसे कुलों की संख्या नियत होती थी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=104|url=}}</ref><br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''केशवेश''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में स्त्रियों की साज-सज्जा से सम्बंधित एक शब्द था।<br />
<br />
*[[पाणिनि]] की '[[अष्टाध्यायी]]' में स्त्रियों के प्रसाधन और अलंकरण की सामग्री का भी उल्लेख पाया जाता है। केश संस्कार को ‘केशवेश’ कहा जाता था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103|url=}}</ref><br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''आपिशला''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में आपिशलि आचार्य के [[व्याकरण]] को पढ़ने वाली स्त्रियों को कहा जाता था।<ref>आपिशलमधीते ब्राह्मणी आपिशला, भाष्य 2/1/14, वा, 3</ref><br />
<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=102|url=}}</ref><br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''ग्रैवेयक''' नामक एक अलंकरण का उल्लेख [[पाणिनि]] की '[[अष्टाध्यायी]]' में हुआ है। <br />
<br />
*'अष्टाध्यायी' में स्त्रियों के प्रसाधन और अलंकरण की सामग्री का भी उल्लेख पाया जाता है। ग्रीवा में पहनने वाले अलंकरणों को ‘ग्रैवेयक’ कहा जाता था।<ref>4/1/96</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103|url=}}</ref><br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''श्रमण''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित एक शब्द था। यह शब्द प्राय: ब्राह्मणेत्तर सन्यासियों के लिए प्रयुक्त होता था।<br />
<br />
*[[अशोक|मौर्य सम्राट अशोक]] के लेखों में ‘ब्राह्मण श्रमण’ यह पद बहुधा आता है। वहां श्रमण शब्द अवश्य ही [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] [[भिक्कु|भिक्षुओं]] के लिए है।<br />
*कौमार अवस्था में संन्यास लेकर भिक्षुणी बनने की व्यवस्था [[बुद्ध]] ने स्त्रियों के लिए की थी। बुद्ध के समय में भिक्षुणी संघ नियमित संस्था बन गई थी। कुमारी श्रमणा या कुमार श्रमणा पद का प्रयोग [[भाषा]] में भिक्षुणी संघ की स्थापना के बाद ही चलने की अधिक संभावना थी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
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==संबंधित लेख==<br />
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{{बौद्ध धर्म}}<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''जन''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित एक शब्द था।<br />
<br />
*[[वैदिक काल|वैदिक युग]] में जन की सत्ता प्रधान थी। एक ही पूर्वज की वंश परंपरा में उत्पन्न कुल लोगों का समुदाय 'जन' कहलाता था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=104|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
<br />
[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>'''उय्यानकीडा''' पाणिनिकालीन भारतवर्ष में प्रचलित एक शब्द था।<br />
<br />
*[[पाणिनि]] ने प्राच्य देश की क्रीड़ाओं का उल्लेख किया है<ref>6।2।74</ref>, जिसके उदाहरण [[टीका|टीकाओं]] में ये मिलते हैं- <br />
#शालभञ्जिका<br />
#उद्दालकपुष्पभंजिका<br />
#अशोकपुष्पप्रचायिका<br />
#वीरणपुष्पप्रचायिका<br />
<br />
<br />
*उपरोक्त सभी स्त्रियों की उद्यान क्रीड़ाएँ थीं। [[जातक कथा|जातकों]] में इन्हें 'उय्यानकीडा' कहा गया है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103|url=}}</ref><br />
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{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
{{बौद्ध धर्म}}<br />
[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:बौद्ध धर्म कोश]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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Category:पाणिनिकालीन भारत"</p>
<hr />
<div>पाणिनिकालीन भारतवर्ष के पूर्वी भागों में स्त्रियों के नाम में ‘आयन’ [[प्रत्यय]] का बहुधा प्रयोग होता था (प्राचां ष्फ तद्धित:), जैसे- गर्ग गोत्र की स्त्री पूर्व में ‘गार्ग्यायणी’ और अन्यत्र ‘गार्गी’ कहलाती थी।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत|लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=101-102|url=}}</ref><br />
<br />
<br />
{{seealso|पाणिनि|अष्टाध्यायी|भारत का इतिहास}}<br />
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पाणिनिकालीन शब्दावली}}<br />
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[[Category:पाणिनिकालीन शब्दावली]]<br />
[[Category:पाणिनिकालीन भारत]][[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:इतिहास कोश]]<br />
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