"गीता 11:20" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>')
 
छो (Text replacement - "दृष्टा " to "द्रष्टा")
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
 
<table class="gita" width="100%" align="left">
 
<table class="gita" width="100%" align="left">
 
<tr>
 
<tr>
पंक्ति 21: पंक्ति 20:
 
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
 
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
  
हे <balloon title="मधुसूदन, केशव, पुरुषोत्तम, महात्मन्, वासुदेव, माधव, जनार्दन और वार्ष्णेय सभी भगवान् कृष्ण का ही सम्बोधन है।" style="color:green">महात्मन्</balloon> ! यह स्वर्ग और [[पृथ्वी]] के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं; तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं ।।20।।
+
हे महात्मन्<ref>मधुसूदन, केशव, पुरुषोत्तम, महात्मन्, वासुदेव, माधव, जनार्दन और वार्ष्णेय सभी भगवान् [[कृष्ण]] का ही सम्बोधन है।</ref> ! यह स्वर्ग और [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] के बीच का सम्पूर्ण [[आकाश]] तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं; तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं ।।20।।
  
 
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
 
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
पंक्ति 32: पंक्ति 31:
 
|-
 
|-
 
| style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" |
 
| style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" |
महात्मन् = हे महात्मन्; इदम् = यह; द्यावापृथिव्यो: स्वर्ग और पृथिवीके अन्तरम् = बीच का संपूर्ण आकाश; सर्वा: = सब; दिश: = दिशाएं; एकेन; एक; त्वया = आपसे; हि = ही; व्याप्तम्  = परिपूर्ण हैं(तथा); तव = आपके; इदम् = इस; अभ्दुतम् = अलौकिक(और); उग्रम् = भयंकर; रूपम् = रूप को; दृष्टा = देखकर; लोकत्रयम् = तीनों लोक; प्रव्यथितम् = अति व्यथाको प्राप्त हो रहे हैं  
+
महात्मन् = हे महात्मन्; इदम् = यह; द्यावापृथिव्यो: स्वर्ग और पृथिवीके अन्तरम् = बीच का संपूर्ण आकाश; सर्वा: = सब; दिश: = दिशाएं; एकेन; एक; त्वया = आपसे; हि = ही; व्याप्तम्  = परिपूर्ण हैं(तथा); तव = आपके; इदम् = इस; अभ्दुतम् = अलौकिक(और); उग्रम् = भयंकर; रूपम् = रूप को; द्रष्टा= देखकर; लोकत्रयम् = तीनों लोक; प्रव्यथितम् = अति व्यथाको प्राप्त हो रहे हैं  
 
|-
 
|-
 
|}
 
|}
पंक्ति 56: पंक्ति 55:
 
<tr>
 
<tr>
 
<td>
 
<td>
{{महाभारत}}
+
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 +
<references/>
 +
==संबंधित लेख==
 +
{{गीता2}}
 
</td>
 
</td>
 
</tr>
 
</tr>
 
<tr>
 
<tr>
 
<td>
 
<td>
{{गीता2}}
+
{{महाभारत}}
 
</td>
 
</td>
 
</tr>
 
</tr>

05:04, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-11 श्लोक-20 / Gita Chapter-11 Verse-20


द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं दिशश्च सर्वा: ।
दृष्ट्वाद्भुतं स्पमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ।।20।।



हे महात्मन्[1] ! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं; तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं ।।20।।

Although You are one, You are spread throughout the sky and the planets and all space between. O great one, as I behold this terrible form, I see that all the planetary systems are perplexed. (20)


महात्मन् = हे महात्मन्; इदम् = यह; द्यावापृथिव्यो: स्वर्ग और पृथिवीके अन्तरम् = बीच का संपूर्ण आकाश; सर्वा: = सब; दिश: = दिशाएं; एकेन; एक; त्वया = आपसे; हि = ही; व्याप्तम् = परिपूर्ण हैं(तथा); तव = आपके; इदम् = इस; अभ्दुतम् = अलौकिक(और); उग्रम् = भयंकर; रूपम् = रूप को; द्रष्टा= देखकर; लोकत्रयम् = तीनों लोक; प्रव्यथितम् = अति व्यथाको प्राप्त हो रहे हैं



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10, 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26, 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41, 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मधुसूदन, केशव, पुरुषोत्तम, महात्मन्, वासुदेव, माधव, जनार्दन और वार्ष्णेय सभी भगवान् कृष्ण का ही सम्बोधन है।

संबंधित लेख