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*यहीं किसी असंयम के कारण और किसी ऋषि के शाप के कारण पांडु की मृत्यु हुई थी और उनका अंतिम संस्कार शतश्रंग निवासियों को ही करना पड़ा था-
 
*यहीं किसी असंयम के कारण और किसी ऋषि के शाप के कारण पांडु की मृत्यु हुई थी और उनका अंतिम संस्कार शतश्रंग निवासियों को ही करना पड़ा था-
 
‘अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतश्रृंरंगनिवासिनः, तापसा विधियवच्चक्रुश्चारणाऋषिभिः सह’<ref>महाभारत आदिपर्व 124,1 से आगे दाक्षिणात्य पाठ</ref>  
 
‘अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतश्रृंरंगनिवासिनः, तापसा विधियवच्चक्रुश्चारणाऋषिभिः सह’<ref>महाभारत आदिपर्व 124,1 से आगे दाक्षिणात्य पाठ</ref>  
*प्रसंगानुसार यह पर्वत हिमालय की उत्तरी शृंखला में स्थित जान पड़ता है।  
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*प्रसंगानुसार यह पर्वत हिमालय की उत्तरी श्रृंखला में स्थित जान पड़ता है।  
 
*यहां से [[हस्तिनापुर]] तक के मार्ग को महाभारत में बहुत लम्बा बताया है -
 
*यहां से [[हस्तिनापुर]] तक के मार्ग को महाभारत में बहुत लम्बा बताया है -
 
‘प्रपन्न दीर्घपध्बानं संक्षिप्तं तदमन्यत’।<ref> आदिपर्व 125,8</ref>
 
‘प्रपन्न दीर्घपध्बानं संक्षिप्तं तदमन्यत’।<ref> आदिपर्व 125,8</ref>

11:53, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

शतश्रृंग हिमालय के उत्तर में स्थित पर्वत है, जहाँ महाभारत के अनुसार महाराज पांडु अपनी रानियों माद्री और कुंती के साथ जाकर रहने लगे थे। यहीं पर पांचो पांडवों की देवताओं के आह्वन द्वारा उत्पत्ति हुई थी।

  • शतश्रंग तक पहुंचने में महाराज पांडु को चैवरथ कालकूट और हिमालय को पार करने के बाद गंधमादन, इंदुद्युम्न सर तथा हंसकूट के उत्तर में जाना पड़ा था-

‘स चैत्ररथमासाद्य कालकूटमतीत्य च हिमंवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गंधमादनम्।
रक्ष्याभाणो महाभूतैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः उवास स महाराज तापसः समतप्यत’।[1]

  • शतश्रृंग निवासियों को पांडु के पांचों पुत्रों से बड़ा प्रेम था -

‘मुदं परमिकां लेभे ननन्द च नराधिपः ऋषाणामपि सर्वेषां शतश्रंगनिवासिनाम्’।[2]

  • यहीं किसी असंयम के कारण और किसी ऋषि के शाप के कारण पांडु की मृत्यु हुई थी और उनका अंतिम संस्कार शतश्रंग निवासियों को ही करना पड़ा था-

‘अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतश्रृंरंगनिवासिनः, तापसा विधियवच्चक्रुश्चारणाऋषिभिः सह’[3]

  • प्रसंगानुसार यह पर्वत हिमालय की उत्तरी श्रृंखला में स्थित जान पड़ता है।
  • यहां से हस्तिनापुर तक के मार्ग को महाभारत में बहुत लम्बा बताया है -

‘प्रपन्न दीर्घपध्बानं संक्षिप्तं तदमन्यत’।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व 118,48.49-50
  2. आदिपर्व 122,124
  3. महाभारत आदिपर्व 124,1 से आगे दाक्षिणात्य पाठ
  4. आदिपर्व 125,8

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