अटल बिहारी वाजपेयी

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भारत के दसवें प्रधानमंत्री के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रथम बार केवल 13 दिन के लिए अपने पद पर रह पाए। भारतीय प्रधानमंत्रियों में उनका कार्यकाल सबसे संक्षिप्त रहा है। लेकिन वह बाद में लम्बे समय के लिए प्रधानमंत्री बने और अपना कार्यकाल भी पूर्ण किया। इनका नाम भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में सम्मिलित किया जाता है। श्री नरसिम्हा राव के बाद 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी मात्र 13 दिन के लिए ही प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह कार्यकाल भी प्रधानमंत्री कार्यकाल के रूप में जाना जाता है। इसके बाद 1998 में हुए चुनावों के माध्यम से वह दोबारा प्रधानमंत्री बने। इस कारण 1996 और 1998 के मध्य बने दो प्रधानमंत्रियों-एच. डी. देवगौड़ा तथा इन्द्र कुमार गुजराल को आगे स्थान दिया गया है। तत्पश्चात् अटल बिहारी वाजपेयी अक्टूबर, 1999 में पुन: प्रधानमंत्री बने और यह कार्यकाल उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इसके पूर्व वह अप्रैल 1999 से अक्टूबर 1999 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे।  

जन्म एवं परिवार

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर] (बड़ा दिन) 1924 को लश्कर, ग्वालियर में हुआ था, जो कि मध्य प्रदेश में है। तब कौन जानता था कि 'शिंके का बाड़ा मुहल्ले' में जन्म लेने वाला वह बालक कितना बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुआ है। इनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं। श्री वाजपेयी संतान क्रम में सातवें थे। इनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे, साथ ही साथ काफ़ी प्रतिभा सम्पन्न भी। अटल बिहारी वाजपेयी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है।

विद्यार्थी जीवन

अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षण व्यवसाय से सम्बन्धित थे, इस कारण इन्हें कई स्थानों पर रहना पड़ता था। लेकिन अटलजी की आरम्भिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में सम्पन्न हुई। बड़नगर में इनके पिता प्रधानाध्यापक के पद पर थे। इस विद्यालय में अटलजी ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। वक्ता के रूप में इन्हें इसी विद्यालय से पहचान प्राप्त हुई थी। जब वह कक्षा पाँच में थे तब पाठ्येतर गतिविधियों के अंतर्गत उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण अटलजी को ग्वालियर जाना पड़ा। इनका नामांकन विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में हुआ। नौवीं कक्षा से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई अटलजी ने इसी विद्यालय से पूर्ण की। इस विद्यालय में रहते हुए उनकी वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिभा को उचित प्रवाह प्राप्त हुआ। वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम भी आए।

इंटरमीडिएट करने के बाद अटलजी ने विक्टोरिया कॉलेज (जो कि बाद में रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के नाम से जाना गया) में स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की शिक्षा हेतु उन्होंने तीनों विषय भाषा पर आधारित लिए जो संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेज़ी थे। अटलजी की साहित्यिक प्रकृति थी, जिससे वह तीनों भाषाओं के प्रति आकृष्ट हुए। कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। शुरू में वह छात्र संगठन से जुड़े। नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता थे। ग्वालियर में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में अपने दायित्वों की पूर्ति की। कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताओं की रचना करना आरम्भ कर दिया था। इनकी साहित्यिक अभिरुचि उसी समय काफ़ी परवान चढ़ी। इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था। इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली। 1943 में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अटलजी कानपुर आ गए ताकि राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एल. एल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया। चूंकि स्नातक परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इस कारण इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हो रही थी। इस प्रकार कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से इन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।

व्यावसायिक जीवन

शिक्षक पिता की संतान होने के कारण अटलजी शिक्षा का महत्व अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण पी. एच. डी. करने के लिए वह लखनऊ चले गए और वक़ालत की पढ़ाई स्थगित कर दी। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों का भी सम्पादन करने लगे। लेकिन अटलजी पी. एच. डी. करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उन दिनों राष्ट्रधर्म नामक समाचार पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सम्पादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार पत्र का सम्पादकीय स्वयं लिखते थे और अख़बार का बाक़ी कार्य अटलजी एवं इनके सहायक करते थे। लेकिन सही मायने में अटलजी ही इसके सम्पादक थे। अटलजी के आने के बाद 'राष्ट्रधर्म' समाचार पत्र का प्रसार काफ़ी बढ़ गया। ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबन्ध किया गया। इस प्रेस का नाम भारत प्रेस रखा गया था।

कुछ समय के बाद 'भारत प्रेस' से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र 'पाँचजन्य' भी प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र का सम्पादन पूर्ण रूप से अटलजी करते थे। देश आज़ाद हो गया था। कुछ समय के बाद 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। नाथूराम गोडसे का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से होने के कारण भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबन्धत कर दिया। चूंकि 'भारत प्रेस' भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी, इसीलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया। लेकिन अटल जी को अब पत्रकारिता में अत्यन्त आनन्द आने लगा था। इस कारण वह इलाहाबाद चले गए और उन्होंने 'क्राइसिस टाइम्स' नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए अपनी सेवाएँ देना आरम्भ कर दिया। परन्तु 'क्राइसिस टाइम्स' का साथ 'क्राइसिस' रहने तक ही था। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा तो वह 'क्राइसिस टाइम्स' भी गुज़र गया। अटलजी पुन: लखनऊ लौटे और उनके सम्पादन में 'स्वदेश' नामक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हो गया। थोड़े ही दिनों में जहाँ 'स्वदेश' लोकप्रिय हुआ, वहीं अटलजी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने। लेकिन लगातार होने वाली हानि के कारण 'स्वदेश' को बंद कर देना पड़ा। तब अटलजी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था। 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने हुए एक पत्रकार के रूप में इन्हें काफ़ी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। अत: राजनेता से पूर्व अटलजी को एक कवि और पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी।

राजनीतिक जीवन

यह सच है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर. एस. एस.) हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है और वह हिन्दुओं के हित में सदैव आवाज़ बुलन्द करती है। लेकिन भारत सरकार की नज़र में वह अलागववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। इस कारण आर. एस. एस. पर कई प्रकार के राजनयिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। ऐसे में आर. एस. एस. ने भारतीय जनसंघ का गठन किया जो राजनीतिक विचारधारा वाला दल था। भारतीय जनसंघ का जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ, जिसके अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। अटलजी उस समय से ही इस संस्था के संगठनात्मक ढाँचे से जुड़ गए। तब वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे। इस कारण उन्हें जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है। भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम 1952 के आम चुनावों में भाग लिया। तब उसका चुनाव चिह्न दीपक था। चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष क़ामयाबी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उस समय भी कश्मीर का मामला अत्यन्त संवेदनशील था। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटलजी के साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वह कश्मीर के हिन्दुओं को अपने अधिकारों के लिए जाग्रत कर रहे थे। लेकिन सरकार ने इसे साम्प्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉक्टर मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया। डॉक्टर मुखर्जी की 23 जून 1953 को जेल में ही मृत्यु हो गई। तब जनसंघ के समर्थकों ने उनकी मृत्यु को एक गहरी साज़िश मानते हुए इसे हत्या क़रार दिया।

दूसरा आम चुनाव

अब भारतीय जनसंघ का काम अटलजी प्रमुख रूप से देखने लगे। इन पर राजनीतिक रंग पूरी तरह से हावी हो चुका था। तभी दूसरा आम चुनाव आ गया। 1957 के इन चुनावों में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। अटलजी पहली बार बलरामपुर सीट से विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि 1957 में लोकसभा चुनाव हेतु अटलजी ने तीन स्थानों से नामांकन पत्र दाख़िल किया था। बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और मथुरा से भी पर्चे भरे थे। बलरामपुर एक रियासत थी। जिसका आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में विलय कर दिया गया था। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अच्छा दबदबा था। प्रताप नारायण तिवारी ने यहाँ जनसंघ के लिए दृढ़ आधार तैयार किया था। चूंकि बलरामपुर कभी रियासत थी, इस कारण रजवाड़ों का भी यहाँ दबदबा था। रजवाड़े कांग्रेस से नाराज़ थे, क्योंकि आज़ादी के बाद वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। यही कारण है कि बलरामपुर की सीट कांग्रेस के बजाए जनसंघ की झोली में चली गई और अटलजी प्रथम बार लोकसभा में पहुँचे। वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजय हुए थे। लेकिन अटलजी बाक़ी दो स्थानों पर हार गए। मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की विजय हुई थी। उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त करे अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी। भारतीय जनसंघ को 6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद् जैसी पार्टियों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत वोट नहीं मिले थे।

कश्मीर मुद्दे पर विचार

अटलजी ने संसद में पहुँचने के पश्चात् कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए और संसद ने उन्हें बेहद ध्यान से सुना। अटलजी ने कहा कि कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं भेजा जाना चाहिए था, क्योंकि वहाँ से कोई समाधान नहीं प्राप्त होगा। भारत को अपने स्तर पर ही प्रयास करके पाकिस्तान के अधिकार वाले कश्मीर के विषय में सोचना होगा। अटलजी का यह अनुमान आज भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर समस्या का समाधान आज तक नहीं खोजा है। अटलजी का तर्क था कि कश्मीर में पाकिस्तान हमलावर था, अत: राष्ट्र संघ को त्वरित कार्यवाही करनी चाहिए थी। कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना एक ऐतिहासिक भूल थी। भारत को चाहिए था कि वह हमलावर को अपनी ज़मीन से हटा देता और इसके लिए आवश्यक सैनिक कार्यवाही करता।

1962 के आम चुनाव

अटलजी ने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। फिर 1962 के आम चुनाव आ गए। वह पुन: बलरामपुर की सीट से भारतीय जनसंघ के टिकट पर खड़े हुए लेकिन उन्हें इस बार पराजय का मुँह देखना पड़ा। कांग्रेसी उम्मीदवार को 1052 वोटों से विजय प्राप्त हुई। यह वाकई आश्चर्य की बात थी कि अटलजी को संसद में प्रशंसनीय कार्य करने के बाद भी जीत नसीब नहीं हुई। वैसे यह चुनाव इस कारण भी विवादास्पद रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी ने उचित-अनुचित सभी प्रकार के पैंतरे अपनाए थे। इस चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी बिगड़ा। इस कारण भयवश हज़ारों हिन्दू नारियों ने अपने मताधिकारों का प्रयोग नहीं किया। फिर भी 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और संसद में उसके 14 प्रतिनिधि पहुँचने में सफल रहे। इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा में भेजे गए। चूंकि राष्ट्रपति ही राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, इस कारण सर्वपल्ली राधाकृष्णन सभापति थे। उन्होंने अटलजी को राज्यसभा की प्रथम दीर्घा में बैठने को अनुप्रेरित किया। अटलजी ने राज्यसभा में भी अपने दायित्वों का निर्वहन योग्यता के साथ किया। इस कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई। अटलजी ने अनुठी भाषा-शैली में उन्हें श्रद्धांजली अर्पित की। दोनों श्रद्धांजलियों को राज्यसभा के पटल पर सुरक्षित रखा गया।

चौथे आम चुनाव

चौथे आम चुनाव 1967 में सम्पन्न हुए। अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने। उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को लगभग 32 हज़ार वोटों से हराया। अपने इस कार्यकाल में अटलजी ने यह साबित कर दिया कि वह धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण समर्थक हैं तथा धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण नहीं चाहते। काहिरा में आयोजित हुए इस्लामी सम्मेलन के बारे में उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मज़हबी कट्टरता का पोषण नहीं होना चाहिए। ऐसे सम्मेलन विश्व बंधुत्व के आधार पर होने चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने मज़हबी आधार पर गुट बनाने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया और भारत सरकार को भी इस बारे में आगाह किया। धारा 370 के अंतर्गत कश्मीर को जो विशिष्ट दर्जा प्रदान किया गया था, उन्होंने उसका भी विरोध किया और धारा 370 समाप्त करने की मांग की। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत सरकार से यह मांग की कि कश्मीर में रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाएँ और शिक्षा के स्तर में वृद्धि हो।

इसी प्रकार विदेशी राजनीति भी अटलजी का पसंदीदा विषय थी। जब अमेरिका ने वियतनाम पर हमला किया तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में निंदा की। वियतनाम को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी को भी अटलजी ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। अटलजी ने कहा था कि वियतनाम की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ रही है और अमेरिका उसे युद्ध में तबाह करके अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। लेकिन अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए कि वियतनाम हार नहीं मानेगा और अंतत: अमेरिकी फ़ौजों को वहाँ से जाना ही होगा। इस मुद्दे पर उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। उस युद्ध में वाकई अमेरिका को पराजय का सामना करना पड़ा और वियतनाम युद्ध आज भी अमेरिका के लिए एक दाग की भाँति है। यही नहीं, अमेरिका की जनता ने भी बाद में वियतमान युद्ध का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया था।

काव्य की रचना

अटलजी पाँचवी लोकसभा में भी पहुँचने में क़ामयाब रहे। सन् 1972 का लोकसभा चुनाव उन्होंने गृहनगर यानी ग्वालियर से लड़ा था। बलरामपुर संसदीय चुनाव का उन्होंने परित्याग कर दिया था। इस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। लेकिन जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया। उनमें अटलजी भी शामिल थे। उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया। जेल में रहते हुए ही अटलजी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और छठवीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव घोषित हुए। जब विपक्ष के नेता जेल में बंद थे, तब भी उनमें वैचारिक मंथन हुआ।

विदेश मंत्री

आपातकाल के कारण विपक्ष संगठित होने में सफल रहा। फिर लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव नहीं जीत सकीं। संगठित विपक्ष द्वारा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटलजी विदेश मंत्री बनाए गए। उन्हें विदेशी मामलों का विशेषज्ञ भी माना जाता था। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और भारत का पक्ष रखा। अटलजी की विदेश यात्राओं के कारण मोरारजी देसाई ने इन्हें टोका था कि कभी-कभी देश में भी रहा करो। अटलजी ने पाकिस्तान की भी यात्रा की। उन्होंने तत्कालीन फ़ौजी शासक जिया-उल-हक़ से वार्तालाप के दौरान फ़रक्का-गंगाजल बंटवारे का मसौदा तय किया। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के मध्य रेल सेवा की बहाली भी तय की गई। अटलजी बंग्लोदश के साथ भी गंगाजल के वितरण पर समझौते की दिशा में बढ़े। उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारतीय अणु शक्ति के सम्बन्ध में नीति स्पष्ट की और अणु ऊर्जा को भारतीय आवश्यकताओं के लिए ज़रूरी बताया। अटलजी ने नेपाल के विदेश मंत्री के साथ व्यापार और पारगमन की नई नीति के सम्बन्ध में भी चर्चा की। 4 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिन्दी में सम्बोधन दिया। इसके पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था।

राज्यसभा के लिए चुन गए

जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् 1980 में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। इसके बाद 1996 तक अटलजी विपक्ष में रहे। 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न कमल का फूल रखा गया। उस समय अटलजी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति की लहर कांग्रेस के साथ थी। यही कारण है कि विपक्ष के अनेक दिग्गजों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अटलजी भी ग्वालियर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। लेकिन 1986 में इन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया। फिर समय ने पलटा खाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।

लोकसभा भंग

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा को बाहर से ही समर्थन प्रदान किया। लेकिन 13 मार्च, 1991 को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में नए चुनाव सम्पन्न हुए। सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया को दो चरणों में होना था। चुनाव के प्रथम चरण के बाद तमिलनाडु में राजीव गांधी की हत्या होने और द्वितीय चरण के मतदान में कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलने से पी. वी. नरसिम्हा राव कांग्रेस के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इनका प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने के बाद 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।

प्रधानमंत्री पद पर

1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 21 मई, 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। 31 मई, 1996 को इन्हें अन्तिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, लेकिन विपक्ष संगठित नहीं था। इस कारण अटलजी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा को सौंप दिया।

विभिन्न उपलब्धियाँ

19 मार्च, 1998 को नए चुनावों के माध्यम से अटलजी पुन: प्रधानमंत्री बने। इस समय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों की संख्या 182 थी। तेलुगुदेशम, तृणमूल कांग्रेस और जयललिता की ए. आई. डी. एम. के. ने भाजपा को समर्थन दिया। अप्रैल 1999 तक अटलजी दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर रहे। इनका कार्यकाल इस बार 14 महीनों तक रहा। द्वितीय कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में निम्नलिखित उपलब्धियाँ हासिल प्राप्त कीं-

  • अटलजी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर 11 मई 1998 को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।
  • अटलजी ने भारतीय सुरक्षा को महत्व दिया और देश को परमाणु बम से लैस किया। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता का नारा दिया।
  • परमाणु बम बना लेने के कारण अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अटलजी ने प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारत को स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्य किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है और उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों की कोई भी परवाह नहीं है।
  • अटलजी ने पोखरन में जय जवान, जय किसान का नारा देकर अपने समस्त इरादे दुनिया के सामने जाहिर कर दिए कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश है। अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसे भी परमाणु बम बनाने का अधिकार है।
  • अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' (युवा प्रतिभाओं में विदेश गमन की अभिरुचि) को रोकने की ज़रूरत बताई। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे मातृभूमि की सेवा पर ध्यान दें।
  • अटलजी ने सेनाओं का मनोबल ऊँचा उठाने कार्य किया। साथ ही परमाणु कार्यक्रम की आधार शिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी उन्होंने धन्यवाद दिया। अटलजी के लिए राष्ट्रहित दलगत राजनीति से सदैव ऊपर रहा। अटलजी को उदारमना ही कहना चाहिए कि उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी सराहा।

मात्र चौदह महीनों के कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं को सफल साबित कर किया। उन्हें पता था कि वह साझा सरकार के रूप में काम कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इस कारण उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शायद यह कार्यकाल भी पूर्ण न हो पाए। फिर यही हुआ भी। इसके पश्चात् ए. आई. डी. एम. के. की जयललिता ने सशर्त समर्थन देना चाहा लेकिन अटलजी ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय कोई भी पार्टी केन्द्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं थी। इस कारण सितम्बर-अक्टूबर के मध्य चुनाव कराए गए और इस समय तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व अटलजी ने ही सम्भाला। लेकिन उसकी चर्चा करने से पूर्व उनके द्वितीय कार्यकाल में हुए कारगिल युद्ध का विवरण दिया जाना प्रासंगिक ही नहीं वरन् अत्यावश्यक भी होगा।  

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