अप्पर स्वामीलिंगम

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अप्पर स्वामीलिंगम दक्षिण शैव सिद्धांत के मूल चार प्रवर्तकों में से थे। इनका समय छठी ईस्वी के तृतीय चरण से लेकर सातवीं शती के मध्य तक माना जाता है। अप्पर स्वामीलिंगम का बचपन का नाम 'मरुल निकियर' था। यह एक परिश्रमी किसान के रूप में जीवन यापन करते थे।[1]

  • अप्पर स्वामीलिंगम का जन्म दक्षिण आर्काड के तिरुवायूर गांव में अब्राह्मण परिवार में हुआ था।
  • ये दक्षिण शैव सिद्धांत के मूल चार प्रवर्तकों में से एक थे। अन्य तीन प्रवर्तक हैं-
  1. तिरुज्ञान संबंध
  2. सुंदरर
  3. माणिक्य वाचकर
  • तमिल, संस्कृत और प्राकृत के प्रकांड विद्वान अप्पर स्वामीलिंगम का समय छठी ईस्वी के तृतीय चरण से लेकर सातवीं शती के मध्य तक माना जाता है।
  • अप्पर स्वामीलिंगम वैदिक और जैन धर्मों के महान ज्ञाता तथा प्रभावशाली वक्ता और सिद्धहस्त कवि थे।
  • आरंभ में अप्पर स्वामीलिंगम का झुकाव अधिकतर शैव धर्म की ओर था, पर पाटलिपुत्र जाने पर जैन धर्म स्वीकार कर लिया और वहां आचार्य बन गए। गंभीर अस्वस्थता के कारण जब यह बचपन में इन्हें पालने वाली बड़ी बहन के पास वापस गए तो उसके प्रभाव से पुनः शैव धर्म स्वीकार कर लिया। इस पर पहले तो जैन राजा ने इन्हें अनेक कष्ट दिए, किंतु बाद में इनके प्रभाव से वह स्वयं भी शैव बन गया। अब वे विभिन्न मंदिरों और तीर्थों में जाकर शैव धर्म का प्रचार करने लगे।
  • कांची के पल्लव राजा महेंद्र वर्मा प्रथम (लगभग 600 से 625 ईसवी) को भी अप्पर स्वामीलिंगम ने शैव धर्म में दीक्षित किया।
  • 80 वर्ष की उम्र में तंजौर ज़िले में अप्पर स्वामीलिंगम का देहांत हुआ।
  • इनकी उपलब्ध रचनाएं दास्य भाव की हैं, जिनमें इष्ट देव शिव के प्रति विरह निवेदन किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 30-31 |

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