अप्रमा

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अप्रमा न्यायमत में ज्ञान दो प्रकार का होता है। संस्कार मात्र से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान 'स्मृति' कहलाता है तथा स्मृति में भिन्न ज्ञान 'अनुभव' कहा जाता हैं। यह 'अनुभव' दो प्रकार का होता है -

  1. यथार्थ अनुभव तथा
  2. अयथार्थ अनुभव।

जो वस्तु जैसी हो उसका उसी रूप में अनुभव होना यथार्थ अनुभव है (यथाभूतोऽर्थो यस्मिन्‌ स:)। घट का घट रूप मे अनुभव होना यथार्थ कहलाएगा। यथार्थ अनुभव की ही अपर संज्ञा 'प्रमा' हैं। 'अयं घट:' (यह घड़ा है) इस प्रमा में हमारे अनुभव का विषय है घट (विशेष्य) जिसमें 'घटत्व' द्वारा सूचित विशेषण की सत्ता वर्तमान रहती है तथा यही घटत्व घट ज्ञान का विशिष्ट च्ह्रि है। और इसीलिए इसे 'प्रकार' कहते हैं। जब घटत्व से विशिष्ट घट का अनुभव यही होता है कि वह कोई घटत्च से युक्त घट है, तब यह प्रमा होती है---घटत्ववद् घटविशेष्यक---घटत्वप्रकारक अनुभव। प्रमा से विपरीत अनुभव को 'अप्रमा' कहते हैं अर्थात्‌ किसी वस्तु मे किसी गुण का अनुभव जिसमें वह गुण विद्यमान ही नही रहता। रजत में 'रजतत्व' का ज्ञान अप्रमा है। प्रमा के दृष्टांत में 'घटत्व' घट का विशेषण है और घट ज्ञान का प्रकार हैं। फलत: 'विशेषण' किसी भैतिक द्रव्य का गुण होता है, परंतु 'प्रकार' ज्ञान का गुण होता हैं।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 149 |