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[[अकबर]] समझ आने के समय ही से [[भारत]] के चाल व्यवहार आदि को बहुत पसन्द करता था। इसके बाद वह अपने पिता के उपदेशों पर, जिसने [[फ़ारस]] के शाह [[तहमास्प]] की सम्मति मान ली थी, चला। (निर्वासन के समय) [[हुमायूँ]] के साथ बातचीत करते हुए भारत तथा राज्य छिन जाने के विषय में चर्चा चलाकर उसने कहा कि ऐसा ज्ञात होता है कि '''भारत में दो दल हैं, जो युद्ध कला तथा सैनिक संचालन में प्रसिद्ध हैं। अफ़ग़ान तथा राजपूत।''' इस समय पारस्परिक अविश्वास के कारण [[अफ़ग़ान]] आपके पक्ष में नहीं आ सकते, इसलिए उन्हें सेवक न रखकर व्यापारी बनाओ और राजपूतों को मिला रखो। अकबर ने इस दल को मिला रखना एक भारी राजनैतिक चाल माना और इसके लिए पूरा प्रयत्न किया। यहाँ तक की उनकी चाल अपनाई, '''गायों को मारना बंद कर दिया, दाड़ी बनवाता, मोतियों के माले पहनता, दशहरा तथा दिवाली त्यौहार मनाता आदि।''' अबुल फ़ज़ल का बादशाह पर प्रभाव था। इस सबका उसी पर उल्टा असर पड़ा।
 
[[अकबर]] समझ आने के समय ही से [[भारत]] के चाल व्यवहार आदि को बहुत पसन्द करता था। इसके बाद वह अपने पिता के उपदेशों पर, जिसने [[फ़ारस]] के शाह [[तहमास्प]] की सम्मति मान ली थी, चला। (निर्वासन के समय) [[हुमायूँ]] के साथ बातचीत करते हुए भारत तथा राज्य छिन जाने के विषय में चर्चा चलाकर उसने कहा कि ऐसा ज्ञात होता है कि '''भारत में दो दल हैं, जो युद्ध कला तथा सैनिक संचालन में प्रसिद्ध हैं। अफ़ग़ान तथा राजपूत।''' इस समय पारस्परिक अविश्वास के कारण [[अफ़ग़ान]] आपके पक्ष में नहीं आ सकते, इसलिए उन्हें सेवक न रखकर व्यापारी बनाओ और राजपूतों को मिला रखो। अकबर ने इस दल को मिला रखना एक भारी राजनैतिक चाल माना और इसके लिए पूरा प्रयत्न किया। यहाँ तक की उनकी चाल अपनाई, '''गायों को मारना बंद कर दिया, दाड़ी बनवाता, मोतियों के माले पहनता, दशहरा तथा दिवाली त्यौहार मनाता आदि।''' अबुल फ़ज़ल का बादशाह पर प्रभाव था। इस सबका उसी पर उल्टा असर पड़ा।
 
====नेकदिल इंसान====
 
====नेकदिल इंसान====
[[जख़ीरतुल ख़वानीन]] में लिखा है, कि शेख़ रात्रि में दर्वेशों के यहाँ जाता, उनमें अशर्फ़ियाँ बाँटता और अपने धर्म के लिए उनसे दुआ माँगता। इसकी प्रार्थना यही होती थी कि 'शोक' क्या करना चाहिए? तब अपने हाथ घुटनों पर रखकर गहरी साँस खींचता। इसने अपने नौकरों को कभी कुवचन नहीं कहा, अनुपस्थिति के लिए कभी दंड नहीं लगाया और न उनकी मज़दूरी आदि ज़ब्त किया। जिसे एक बार नौकर रख लिया, उसे यथा सम्भव ठीक काम न करने पर भी कभी नहीं छुड़ाया। यह कहता कि लोग कहेंगे कि इसमें बुद्धि की कमी है, जो बिना समझे कि कौन कैसा है, रख लेता है। जिस दिन [[सूर्य]] मेष राशि में जाता है उस दिन यह सब घराऊ सामान सामने मँगवाकर उसकी सूची बनवा लेता और अपने पास रखता। यह अपने बही ख़ातों को जलवा देता और कुल कपड़ों को नैरोज को नौकरों में बाँट देता, केवल पैज़ामों को सामने जलवा देता। इसका भोजन आश्चर्यजनक था। कहते हैं कि ईधन पानी छोड़कर उसका नित्य भोजन 22 सेर था। इसका पुत्र [[अब्दुर्रहमान]] इसे भोजन कराता और पास रहता। बाबर्चीख़ाना का निरीक्षक मुसलमान था, जो खड़ा होकर देखता रहता। जिस तश्तरी में शेख़ दो बार हाथ डालता, वह दूसरे दिन फिर तैयार किया जाता। यदि कुछ स्वाद रहित होता, तो वह उसे अपने पुत्र को खाने को देता और तब वह जाकर बाबर्चियों को कहता था। शेख़ स्वयं कुछ नहीं कहते थे।
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[[जख़ीरतुल ख़वानीन]] में लिखा है, कि अबुल फ़ज़ल रात्रि में दर्वेशों के यहाँ जाता, उनमें अशर्फ़ियाँ बाँटता और अपने धर्म के लिए उनसे दुआ माँगता। इसकी प्रार्थना यही होती थी कि 'शोक' क्या करना चाहिए? तब अपने हाथ घुटनों पर रखकर गहरी साँस खींचता। इसने अपने नौकरों को कभी कुवचन नहीं कहा, अनुपस्थिति के लिए कभी दंड नहीं लगाया और न उनकी मज़दूरी आदि ज़ब्त किया। जिसे एक बार नौकर रख लिया, उसे यथा सम्भव ठीक काम न करने पर भी कभी नहीं छुड़ाया। यह कहता कि लोग कहेंगे कि इसमें बुद्धि की कमी है, जो बिना समझे कि कौन कैसा है, रख लेता है। जिस दिन [[सूर्य]] मेष राशि में जाता है उस दिन यह सब घराऊ सामान सामने मँगवाकर उसकी सूची बनवा लेता और अपने पास रखता। यह अपने बही ख़ातों को जलवा देता और कुल कपड़ों को नौरोज को नौकरों में बाँट देता, केवल पैजामों को सामने जलवा देता। इसका भोजन आश्चर्यजनक था। इसका पुत्र [[अब्दुर्रहमान]] इसे भोजन कराता और पास रहता। बाबर्चीख़ाना का निरीक्षक मुसलमान था, जो खड़ा होकर देखता रहता। जिस तश्तरी में अबुल फ़ज़ल दो बार हाथ डालता, वह दूसरे दिन फिर तैयार किया जाता। यदि कुछ स्वाद रहित होता, तो वह उसे अपने पुत्र को खाने को देता और तब वह जाकर बाबर्चियों को कहता था। अबुल फ़ज़ल स्वयं कुछ नहीं कहते थे।
 
====विनम्रता की मिसाल====
 
====विनम्रता की मिसाल====
{{highright}}[[चगत्ताई वंश]] में नियम था कि शाहज़ादों की मृत्यु का समाचार बादशाहों को खुले रूप से नहीं दिया जाता था। उनके वक़ील नीला रूमाल हाथ में बाँधकर कोर्निश (झुककर सलाम करना) करते थे, जिससे बादशाह उक्त समाचार से अवगत हो जाते थे। शेख़ की मृत्यु का समाचार बादशाह को कहने का जब किसी को साहस नहीं हुआ, तब यही नियम बरता गया।{{highclose}}
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{{highright}}[[चगत्ताई वंश]] में नियम था कि शाहज़ादों की मृत्यु का समाचार बादशाहों को खुले रूप से नहीं दिया जाता था। उनके वक़ील नीला रूमाल हाथ में बाँधकर कोर्निश (झुककर सलाम करना) करते थे, जिससे बादशाह उक्त समाचार से अवगत हो जाते थे। अबुल फ़ज़ल की मृत्यु का समाचार बादशाह को कहने का जब किसी को साहस नहीं हुआ, तब यही नियम बरता गया।{{highclose}}
कहते हैं कि दक्षिण की चढ़ाई के समय इसके साथ के प्रबन्ध और कारख़ाने ऐसे थे जो कि विचार से परे थे। चेवल रावटी में शेख़ के लिए मसनद बिछता और प्रतिदिन एक सहस्र थालियों में भोजन आता तथा अफ़सरों में बँटता। बाहर एक नौग़जी लगी रहती, जिसमें दिन–रात सबको पकी–पकाई खिचड़ी बँटती रहती थी। कहा जाता है कि जब शेख़ वक़ील मुलतक़ था, तब एक दिन ख़ानख़ानाँ सिंध के शासक [[मिर्ज़ा जानीबेग़]] के साथ इससे मिलने के लिए आया। शेख़ बिस्तर पर लम्बा सोया हुआ [[अकबरनामा]] देख रहा था। इसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और उसी प्रकार पड़े हुए कहा कि '''मिर्ज़ा आओ और बैठो।''' मिर्ज़ा जानीबेग़ में सल्तनत की बू थी, इसलिए वह कूढ़कर लौट गया। दूसरी बार ख़ानख़ानाँ के बहुत कहने से मिर्ज़ा शेख़ के गृह पर गए। शेख़ फ़ाटक तक स्वागत को आया और बहुत सुव्यवहार करके कहा कि '''हम लोग आपके साथी नागरिक हैं और आपके सेवक हैं।''' मिर्ज़ा ने आश्चर्य में पड़कर ख़ानख़ानाँ से पूछा कि '''उस दिन के अंहकार और आज की नम्रता का क्या अर्थ है?''' ख़ानख़ानाँ ने उत्तर दिया, कि '''उस दिन प्रधान अमात्य के पद का विचार था, छाया को वास्तविकता के समान माना। आज भातृत्व का बर्ताव है।'''
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कहते हैं कि दक्षिण की चढ़ाई के समय इसके साथ के प्रबन्ध और कारख़ाने ऐसे थे जो कि विचार से परे थे। चेवल रावटी में अबुल फ़ज़ल के लिए मसनद बिछता और प्रतिदिन एक सहस्र थालियों में भोजन आता तथा अफ़सरों में बँटता। बाहर एक नौगज़ी लगी रहती, जिसमें दिन–रात सबको पकी–पकाई खिचड़ी बँटती रहती थी। कहा जाता है कि जब अबुल फ़ज़ल वक़ील मुलतक़ था, तब एक दिन [[रहीम|ख़ानख़ानाँ]] सिंध के शासक [[मिर्ज़ा जानीबेग़]] के साथ इससे मिलने के लिए आया। अबुल फ़ज़ल बिस्तर पर लम्बा सोया हुआ [[अकबरनामा]] देख रहा था। इसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और उसी प्रकार पड़े हुए कहा कि, '''मिर्ज़ा आओ और बैठो।''' मिर्ज़ा जानीबेग़ में सल्तनत की बू थी, इसलिए वह कुढ़कर लौट गया। दूसरी बार ख़ानख़ानाँ के बहुत कहने से मिर्ज़ा, अबुल फ़ज़ल के गृह पर गए। अबुल फ़ज़ल फ़ाटक तक स्वागत को आया और बहुत सुव्यवहार करके कहा कि '''हम लोग आपके साथी नागरिक हैं और आपके सेवक हैं।''' मिर्ज़ा ने आश्चर्य में पड़कर ख़ानख़ानाँ से पूछा कि '''उस दिन के अंहकार और आज की नम्रता का क्या अर्थ है?''' [[रहीम|ख़ानख़ानाँ]] ने उत्तर दिया, कि '''उस दिन प्रधान अमात्य के पद का विचार था, छाया को वास्तविकता के समान माना। आज भातृत्व का बर्ताव है।'''
 
====असमय हत्या====
 
====असमय हत्या====
अबुल फ़ज़ल बहुत वर्षों तक [[अकबर]] का विश्वासपात्र वज़ीर और सलाहकार रहा। वह केवल दरबारी और आला अफ़सर ही नहीं था, वरन् बड़ा विद्वान था और उसने अनेक पुस्तकें भी लिखी थीं। उसकी [[आइना-ए-अकबरी]] में अकबर के साम्राज्य का विवरण मिलता है और [[अकबरनामा]] में उसने अकबर के समय का इतिहास लिखा है। उसका भाई [[फ़ैज़ी]] भी अकबर का दरबारी शायर था। '''1602 ई. में बुन्देला राजा [[वीरसिंह]] ने शाहज़ादा [[सलीम]] के उक़साने से अबुल फ़ज़ल की हत्या कर डाली।''' <ref>(पुस्तक "मुग़ल दरबार के सरदार") पेज नं0 – 258 पर</ref>
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अबुल फ़ज़ल बहुत वर्षों तक [[अकबर]] का विश्वासपात्र वज़ीर और सलाहकार रहा। वह केवल दरबारी और आला अफ़सर ही नहीं था, वरन् बड़ा विद्वान था और उसने अनेक पुस्तकें भी लिखी थीं। उसकी [[आइना-ए-अकबरी]] में अकबर के साम्राज्य का विवरण मिलता है और [[अकबरनामा]] में उसने अकबर के समय का इतिहास लिखा है। उसका भाई [[फ़ैज़ी]] भी अकबर का दरबारी शायर था। '''1602 ई. में बुन्देला राजा [[वीरसिंहदेव]] ने शाहज़ादा [[सलीम]] के उकसाने से अबुल फ़ज़ल की हत्या कर डाली।''' <ref>(पुस्तक "मुग़ल दरबार के सरदार") पेज नं0 – 258 पर</ref>
  
 
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13:50, 14 दिसम्बर 2010 का अवतरण

अबुल फ़ज़ल शेख़ मुबारक़ नागौरी का द्वितीय पुत्र था। इसका जन्म 958 हिजरी (6 मुहर्रम, 14 जनवरी सन् 1551 ई0) में हुआ था। वह बहुत पढ़ा-लिखा और विद्वान था और उसकी विद्वता का लोग आदर करते थे।

बुद्धि व वाकचातुर्य का धनी

यह अपनी बुद्धि–तीव्रता, योग्यता, प्रतिभा तथा वाकचातुरी से शीघ्र अपने समय का अद्वितीय एवं असामान्य पुरुष हो गया। 15वें वर्ष तक इसने दर्शन शास्त्र तथा हदीस में पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कहते हैं कि शिक्षा के आरम्भिक दिनों में जब वह 20 वर्ष का भी नहीं हुआ था, तब सिफ़ाहानी या इस्फ़हानी की व्याख्या इसको मिली, जिसका आधे से अधिक अंश दीमक खा गए थे और इस कारण से वह समझ में नहीं आ रहा था। इसने दीमक खाए हुए हिस्से को अलग कर सादे कागज़ जोड़े और थोड़ा विचार करके प्रत्येक पंक्ति का आरम्भ तथा अन्त समझ कर सादे भाग को अन्दाज़ से भर डाला। बाद में जब दूसरी प्रति मिल गई और दोनों का मिलान किया गया, तो वे मिल गए। दो–तीन स्थानों पर समानार्थी शब्द–योजना की विभिन्नता थी और तीन-चार स्थानों पर के उद्धरण भिन्न थे, पर उनमें भी भाव प्रायः मूल के ही थे। सबको यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इनका स्वभाव एकांतप्रिय था, इसलिए इन्हे एकांत अच्छा लगता था और इन्होंने लोगों से मिलना–जुलना कम कर दिया तथा स्वतंत्र जीवन व्यतीत करना चाहा।

अकबर से भेंट

अबुल फ़ज़ल ने किसी व्यापार के द्वार को खोलने का प्रयत्न नहीं किया। मित्रों के कहने पर 19वें वर्ष में यह बादशाह अकबर के दरबार में उस समय उपस्थित हुआ, जब वह पूर्वीय प्रान्तों की ओर जा रहा था और इसने अयातुल कुर्सी पर लिखी हुई अपनी टीका उसे भेंट में दी। जब अकबर दूसरी बार फ़तेहपुर लौटा तब यह दूसरी बार उसके यहाँ पर गया। इसकी विद्वता तथा योग्यता की ख्याति अकबर के पास कई बार पहुँच चुकी थी। इसीलिए इन पर असीम कृपाएँ हुईं। जब अकबर कट्टर मुल्लाओं से बिगाड़ बैठा तब ये दोनों भाई (अबुल फ़ज़ल व फ़ैज़ी), जो अपनी उच्च कोटि की विद्वता तथा योग्यता के साथ धूर्तता तथा चापलूसी में भी कम नहीं थे, बार-बार शेख़ अब्दुन्नवी और मख़दूमुलमुल्क़ से, जो अपने ज्ञान तथा प्रचलित विद्याओं की जानकारी से साम्राज्य के स्तम्भ थे, तर्क करके उन्हें चुप कर देने में अकबर की सहायता करते रहते थे, जिससे दिन–प्रतिदिन उनका प्रभुत्व और बादशाह से मित्रता बढ़ती गई। अबुल फ़ज़ल तथा उसके बड़े भाई शेख़ फ़ैज़ी का स्वभाव बादशाह की प्रकृति से मिलता था, इससे अबुल फ़ज़ल अमीर हो गया। 32वें वर्ष में यह एक हज़ारी मनसब हो गया। 34वें वर्ष में जब अबुल फ़ज़ल की माँ की मृत्यु हुई तब अकबर ने शोक मनाने के लिए इसके गृह पर जाकर इसको समझाया कि, यदि मनुष्य अमर होता और एक–एक कर न मरता तो सहानुभूतिशील ह्रदयों के विरक्ति की आवश्यकता ही न रह जाती। इस सराय में कोई भी अधिक दिनों तक नहीं रहता, तब क्यों हम लोग असंतोष का दोष अपने ऊपर लें। 37वें वर्ष में इनका मनसब दो हज़ारी हो गया।

अकबर से घनिष्ठता

जब अबुल फ़ज़ल का बादशाह पर इतना प्रभाव बढ़ गया कि शहज़ादे भी इससे ईर्ष्या करने लगे, तब अफ़सरों का कहना ही क्या और यह बराबर बादशाह के पास रत्न तथा कुंदन के समान रहने लगा। तब कई असंतुष्ट सरदारों ने अकबर को अबुल फ़ज़ल को दक्षिण भेजने के लिए बाध्य किया। यह प्रसिद्ध है कि एक दिन सुल्तान सलीम शेख़ के घर आया और चालीस लेखकों को क़ुरान तथा उसकी व्याख्या की प्रतिलिपि करते देखा। वह उन सबको पुस्तकों के साथ बादशाह के पास ले गया, जो सशंकित होकर विचारने लगा कि यह हमको तो और क़िस्म की बातें सिखलाता है और अपने गृह के एकान्त में दूसरा करता है। उस दिन से उनकी मित्रता की बातों तथा दोस्ती में फर्क़ पड़ गया।

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जख़ीरतुल ख़वानीन में लिखा है, कि अबुल फ़ज़ल रात्रि में दर्वेशों के यहाँ जाता, उनमें अशर्फ़ियाँ बाँटता और अपने धर्म के लिए उनसे दुआ माँगता। इसकी प्रार्थना यही होती थी कि 'शोक' क्या करना चाहिए? तब अपने हाथ घुटनों पर रखकर गहरी साँस खींचता। इसने अपने नौकरों को कभी कुवचन नहीं कहा, अनुपस्थिति के लिए कभी दंड नहीं लगाया और न उनकी मज़दूरी आदि ज़ब्त किया। जिसे एक बार नौकर रख लिया, उसे यथासम्भव ठीक काम न करने पर भी कभी नहीं छुड़ाया। इसका भोजन आश्चर्यजनक था। इसका पुत्र अब्दुर्रहमान इसे भोजन कराता और पास रहता। बावर्चीख़ाना का निरीक्षक मुसलमान था, जो खड़ा होकर देखता रहता। जिस तश्तरी में अबुल फ़ज़ल दो बार हाथ डालता, वह दूसरे दिन फिर तैयार किया जाता। यदि कुछ स्वाद रहित होता तो वह उसे अपने पुत्र को खाने को देता और तब वह जाकर बावर्चियों को कहता था। अबुल फ़ज़ल स्वयं कुछ नहीं कहते थे।Blockquote-close.gif |}

43वें इलाही वर्ष में यह दक्षिण शाहज़ादा मुराद को लाने भेजा गया। इसे आज्ञा मिली थी कि वहाँ के रक्षार्थ नियुक्त अफ़सर ठीक कार्य कर रहे हों तो वह शाहज़ादे के साथ लौट आवे और यदि ऐसा न हो तो शाहज़ादे को भेज दे, मिर्ज़ा साहब के साथ वहाँ का प्रबन्ध ठीक करे। जब वह बुरहानपुर पहुँचा तब ख़ानदेश के अध्यक्ष बहादुर ख़ाँ ने, जिसके भाई से अबुल फ़ज़ल की बहन ब्याही हुई थी, चाहा कि इसे अपने घर लिवा लाए व जाकर इसकी ख़ातिर करें। अबुल फ़ज़ल ने कहा कि यदि तुम मेरे साथ बादशाह के कार्य में योग देने चलो तो हम निमंत्रण स्वीकार कर लें। जब यह मार्ग बन्द हो गया, तब उसने कुछ वस्त्र तथा रुपये भेंट भेजे। अबुल फ़ज़ल ने उत्तर दिया कि मैंने ख़ुदा से शपथ ली है कि जब तक चार शर्तें पूरी न हों तब तक मैं कुछ उपहार स्वीकार नहीं करूँगा। पहली शर्त प्रेम है, दूसरी यह कि उपहार का मैं विशेष मूल्य नहीं समझूँगा, तीसरी यह कि मैंने उसको माँगा न हो और चौथी यह की उसकी मुझे आवश्यकता हो। इनमें पहली तीन तो पूरी हो सकती हैं पर चौथी कैसे पूरी होगी? क्योंकि शहंशाह की कृपा ने इच्छा रहने ही नहीं दी है।

धैर्यवान चित्त का मालिक

शाहज़ादा मुराद, जो अहमदनगर से असफल होकर लौटने के कारण मस्तिष्क विकार से ग्रसित हो रहा था और उसके पुत्र रुस्तम मिर्ज़ा की मृत्यु से उसमें अधिक सहायता मिली, अन्य मदिरा पायियों के प्रोत्साहन से पान करने लगा और उसे लकवा की बीमारी हो गई। जब उसे अपने बुलाए जाने की आज्ञा का समाचार मिला, तो वह अहमदनगर चला गया। जिसमें इस चढ़ाई को दरबार न जाने का एक बहाना बना ले। यह पूर्ना नदी के किनारे दीहारी पहुँच कर सन 1007 हिजरी (1599 ई0) में मर गया। उसी दिन अबुल फ़ज़ल फुर्ती से कूच कर पड़ाव में पहुँचा। वहाँ अत्यन्त गड़बड़ मचा हुआ था। छोटे–बड़े सभी लौट जाना चाहते थे, पर अबुल फ़ज़ल ने यह सोच कर की ऐसे समय जब शत्रु पास में है और वे विदेश में हैं, लौटना अपनी हानि करना है। बहुतेरे क्रुद्ध होकर लौट गए, पर इसने दृढ़ ह्रदय तथा सच्चे साहस के साथ सरदारों को शान्त कर सेना को एकत्रित रखा और दक्षिण विजय के लिए कूच कर दिया। थोड़े ही समय में भागे हुए भी आ मिले और उसने कुल प्रान्त की अच्छी तरह से रक्षा की। नासिक बहुत दूर था, इसलिए नहीं लिया जा सका, पर बहुत से स्थान, बटियाला, तलतुम, सितूँदा आदि साम्राज्य में मिला लिए गए। गोदावरी के तट पर पड़ाव डाल चारों ओर योग्य सेना भेजी। संदेश मिलने पर इसने चाँदबीबी से यह ठीक प्रतिज्ञा तथा वचन ले लिया कि अभग ख़ाँ हब्शी के, जिससे उसका विरोध चल रहा था, दंड पा जाने पर वह अपने लिए जुनेर जागीर में लेकर अहमदनगर दे देगी। शेरशाहगढ़ से उस ओर को रवाना हुआ।

अकबर का चहेता

इसी समय अकबर उज्जैन आया और उसे ज्ञात हुआ कि आसीर के अध्यक्ष बहादुर ख़ाँ ने शाहज़ादा दानियाल को कोर्निश (झुककर सलाम करना) नहीं किया है तथा शाहज़ादा उसे दंड देना चाहता है। बादशाह बुरहानपुर तक जाना चाहते थे, इसलिए शाहज़ादे को लिखा कि वह अहमदनगर लेने में प्रयत्न करे। इस पर पत्र शाहज़ादे के यहाँ से अबुल फ़ज़ल के पास आने लगा कि उसका उत्साह दूर–दूर तक लोगों को मालूम है, पर अकबर चाहता है कि शाहज़ादा अहमदनगर विजय करे। इसलिए अबुल फ़ज़ल इस लड़ाई से हाथ खींचे। जब शाहज़ादा बुरहानपुर से चला तब अबुल फ़ज़ल आज्ञानुसार मीर मुर्तज़ा तथा ख़्वाज़ा अबुलहसन के साथ मिर्ज़ा शाहरुख़ के अधीन कंप छोड़कर दरबार चला गया। 14 रमज़ान सन् 1008 हिजरी (19 मार्च सन् 1600 ई0) को 45वें वर्ष के आरम्भ में बीजापुर राज्य में करगाँव में बादशाह से भेंट की। अकबर के होंठ पर इस आशय का शेर था —

सुन्दर रात्रि तथा सुशोभित चन्द्र हो, जिसमें, तुम्हारे साथ हर विषय पर मैं बातचीत करूँ।


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कहते हैं कि शिक्षा के आरम्भिक दिनों में जब वह 20 वर्ष का भी नहीं हुआ था, तब सिफ़ाहानी या इस्फ़हानी की व्याख्या इसको मिली, जिसका आधे से अधिक अंश दीमक खा गए थे और इस कारण से वह समझ में नहीं आ रहा था। इसने दीमक खाए हुए हिस्से को अलग कर सादे काग़ज़ जोड़े और थोड़ा विचार करके प्रत्येक पंक्ति का आरम्भ तथा अन्त समझ कर सादे भाग को अन्दाज़ से भर डाला। बाद में जब दूसरी प्रति मिल गई और दोनों का मिलान किया गया तो वे मिल गए। दो–तीन स्थानों पर समानार्थी शब्द–योजना की विभिन्नता थी और तीर–चार स्थानों पर के उद्धरण भिन्न थे, पर उनमें भी भाव प्रायः मूल के ही थे।Blockquote-close.gif |}

चार हज़ारी मनसब एवं आसीरगढ़ की विजय

मिर्ज़ा अजीज कोका, आसफ़ ख़ाँ और शेख़ फ़रीद बख़्शी के साथ अबुल फ़ज़ल दुर्ग आसीर घेरने पर नियत हुए और ख़ानदेश प्रान्त का शासन उसे मिला। उसने अपने पुत्र तथा भाई के अधीन अपने आदमियों को भेजकर 22 थाने स्थापित किए और विद्रोहियों का दमन करने का प्रयत्न किया। इसी समय इसने चार हज़ारी मनसब का झण्डा फहराया। एक दिन अबुल फ़ज़ल तोपख़ाने का निरीक्षण करने गए। घिरे हुओं में से एक आदमी ने, जो तोपख़ाने के मनुष्यों से आ मिला था, मालीगढ़ के दीवार तक पहुँचने का एक मार्ग बतला दिया। आसीर के पर्वत के मध्य में उत्तर की ओर दो प्रसिद्ध दुर्ग माली और अंतरमाली हैं, जिनमें से होकर ही लोग उक्त दुर्ग में जा सकते थे। इसके सिवा वायव्य, उत्तर तथा ईशान में एक और दुर्ग जूना माली है। इसके दीवार पूरे नहीं हुए थे। पूर्व से नैऋत्य तक कई छोटी पहाड़ियाँ हैं और दक्षिण में ऊँची पहाड़ी कोर्था है। दक्षिण-पश्चिम में सापन नामक ऊँची पहाड़ी है। यह अन्तिम शाही सेना के हाथ में आ गया था, इससे अबुल फ़ज़ल ने तोपख़ाने के अफ़सरों से यह निश्चित् किया कि जब वे डंडे तुरही आदि का शब्द सुनें तब सभी सीढ़ी लेकर बाहर निकल आवें और बड़ा डंका पीटें। वह स्वयं एक अंधकारपूर्ण तथा बादलमय रात्रि में अपने सैनिकों के साथ सापन पर चढ़ आया और वहाँ पर से आदमियों को पता देकर आगे भेजा। उन सबने माली का फाटक तोड़ डाला और भीतर घुसकर डंका पीटने और तुरही बजाने लगे। दुर्ग वाले लड़ने लगे, पर अबुल फ़ज़ल भी सुबह होते–होते आ पहुँचा। तब दुर्गवाले आसीरगढ़ में चले गए। जब दिन हुआ तब घेरने वाले कोर्था, जूनामाली आदि सब ओर से आ पहुँचे और बड़ी भारी विजय हुई। बहादुर ख़ाँ शरणागत हुआ और ख़ानेआज़म कोका के मध्यस्थ होने पर कोर्निश (झुककर सलाम करना) करने की उसे आज्ञा मिली। जब शाहज़ादा दानियाल आसीर विजय की खुशी में दरबार आया तब राजूमना के कारण वहाँ गड़बड़ मचा और निज़ामशाह के चाचा के लड़के शाहअली को गद्दी पर बैठाने का प्रयत्न हुआ। ख़ानख़ानाँ अहमदनगर आया और अबुल फ़ज़ल को नासिक विजय करने की आज्ञा मिली। पर शाहअली के पुत्र को लेकर बहुत से आदमी आशान्ति मचाए हुए थे, इसलिए आज्ञानुसार अबुल फ़ज़ल वहाँ से लौटकर ख़ानख़ानाँ के साथ अहमदनगर गया।

राजूमना से युद्ध

जब 46वें वर्ष में अकबर बुरहानपुर से हिन्दुस्तान लौटा तब शाहज़ादा दानियाल वहीं पर रह गया। जब ख़ानख़ानाँ ने अहमदनगर को अपना निवास स्थान बनाया, तब सेनापतित्व और युद्ध संचालन का भार अबुल फ़ज़ल पर आ पड़ा। युद्धों के होने के बाद अबुल फ़ज़ल ने शाहअली के लड़के से संधि कर ली और तब राजूमना को दंड देने की तैयारी की। जालनापुर तथा आस–पास के प्रान्त पर, जिसमें शत्रु थे, अधिकार कर वह दौलताबाद घाटी तथा रौजा की ओर बढ़ा। कटक चतवारा से कूच कर राजूमना से युद्ध किया और विजयी रहा। राजू ने दौलताबाद में कुछ दिन शरण ली और फिर उपद्रव करता पहुँचा। थोड़ी ही लड़ाई पर वह पुनः भागा और पकड़ा जा चुका था कि वह दुर्ग की खाई में कूद पड़ा। उसका सारा सामान लूट लिया गया।

जहाँगीर की साज़िश

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जब वह बुरहानपुर पहुँचा तब ख़ानदेश के अध्यक्ष बहादुर ख़ाँ ने, जिसके भाई से अबुल फ़ज़ल की बहन ब्याही हुई थी, चाहा कि इसे अपने घर लिवा लाए व जाकर इसकी ख़ातिर करें। अबुल फ़ज़ल ने कहा कि यदि तुम मेरे साथ बादशाह के कार्य में योग देने चलो तो हम निमंत्रण स्वीकार कर लें। जब यह मार्ग बन्द हो गया तब उसने कुछ वस्त्र तथा रुपये भेंट भेजे। अबुल फ़ज़ल ने उत्तर दिया कि मैंन ख़ुदा से शपथ ली है कि जब तक चार शर्तें पूरी न हों तब तक मैं कुछ उपहार स्वीकार नहीं करूँगा। पहली शर्त प्रेम है, दूसरी यह कि उपहार का मैं विशेष मूल्य नहीं समझूँगा, तीसरी यह कि मैंने उसको माँगा न हो और चौथी यह की उसकी मुझे आवश्यकता हो। इनमें पहली तीन तो पूरी हो सकती हैं पर चौथी कैसे पूरी होगी? क्योंकि शाहंशहा की कृपा ने इच्छा रहने ही नहीं दी है।Blockquote-close.gif |} 47वें वर्ष में जब अकबर शाहज़ादा सलीम से कुछ घटनाओं के कारण ख़फ़ा हो गया, तब उसने, क्योंकि उसके नौकर शाहज़ादा का पक्ष ले रहे थे और सत्यता तथा विश्वास में कोई भी अबुल फ़ज़ल के बराबर नहीं था, अबुल फ़ज़ल को अपना कुल सामान वहीं पर छोड़कर बिना सेना लिए फुर्ती से लौट आने के लिए लिखा। अबुल फ़ज़ल अपने पुत्र अब्दुर्रहमान के अधीन अपनी सेना तथा सहायक अफ़सरों को दक्षिण में छोड़कर फुर्ती से रवाना हो गया। जहाँगीर ने इसकी अपने स्वामी के प्रति भक्ति तथा श्रद्धा के कारण इस पर शंका की तथा इसके आने को अपने कार्य में बाधक समझा और इसके इस प्रकार अकेले आने में अपना लाभ माना। अगुणग्राहकता से अबुल फ़ज़ल को अपने मार्ग से हटा देने को उसने अपने साम्राज्य की प्रथम सीढ़ी मान लिया और वीरसिंहदेव बुंदेला को बहुत सा वादा कर, जिसके राज्य में से होकर अबुल फ़ज़ल आना वाला था, उसे मार डालने पर तैयार कर लिया। तब लोगों ने राय दी कि उसे मालवा के घाटी चाँदा के मार्ग से जाना चाहिए। अबुल फ़ज़ल ने कहा कि "डाकुओं की क्या मजाल है कि मेरा रास्ता रोकें।" 4 रबीउल् अव्वल सन् 1011 हिजरी (12 अगस्त, 1602 ई0) को शुक्रवार के दिन बड़ा की सराय से आधा कोस पर, जो नरवर से 6 कोस पर है, वीरसिंहदेव ने भारी घुड़ सवार तथा पैदल सेना के साथ धावा किया। अबुल फ़ज़ल के शुभचिन्तकों ने अबुल फ़ज़ल को युद्ध स्थल से हटा ले जाने का प्रयत्न किया और इसके एक पुराने सेवक गदाई अफ़ग़ाने ने कहा भी कि आंतरी बस्ती के पास ही रायरायान तथा राजा सूरजसिंह तीन हज़ार घुड़सवारों सहित मौजूद हैं, जिन्हें लेकर उसे शत्रु का दमन करना चाहिए, पर अबुल फ़ज़ल ने भागने की अप्रतिष्ठा नहीं उठानी चाही और जीवन के सिक्के को वीरता से खेल डाला।

चगत्ताई वंश में नियम था कि शाहज़ादों की मृत्यु का समाचार बादशाहों को खुले रूप से नहीं दिया जाता था। उनके वक़ील नीला रूमाल हाथ में बाँधकर कोर्निश (झुककर सलाम करना) करते थे, जिससे बादशाह उक्त समाचार से अवगत हो जाते थे। अबुल फ़ज़ल की मृत्यु का समाचार बादशाह को कहने का जब किसी को साहस नहीं हुआ, तब यही नियम बरता गया। अकबर को अपने पुत्रों की मृत्यु से अधिक शोक हुआ और कुल वृत्त सुनकर कहा कि यदि शाहज़ादा बादशाहत चाहता था, तो उसे मुझे मारना चाहिए था और अबुल फ़ज़ल की रक्षा करनी चाहिए थी। उसने यह शैर एकाएक पढ़ा —

जब शेख़ हमारी ओर बड़े आग्रह से आया, तब हमारे पैर चूमने की इच्छा के बिना सिर पैर के आया।

ख़ाने आज़म ने अबुल फ़ज़ल की मृत्यु की तारीख़ इस मुअम्मा में कहा—'ख़ुदा के पैगम्बर ने बाग़ी का सिर काट डाला।' (1011 हि0 1602 ई0)।

कहते हैं कि अबुल फ़ज़ल ने स्वप्न में उससे कहा कि 'मेरी मृत्यु की तारीख़ बंदः अबुल फ़ज़ल है, क्योंकि ख़ुदा की दुनिया में भटके हुओं पर विशेष कृपा होती है। किसी को भी निराश नहीं होना चाहिए। शाह अबुल् मआलीक़ादिरी के विषय में, जो लाहौर के शेख़ों का एक मुखिया था, कहा जाता है कि उसने कहा था कि, अबुल फ़ज़ल के कार्यों का विरोध करो। एक रात्रि मैंने स्वप्न में देखा कि अबुल फ़ज़ल पैगम्बर के जलसे में लाया गया। उसने अपनी कृपा दृष्टि उस पर डाली और अपने जलसे में स्थान दिया। उसने कृपा कर कहा कि इस आदमी ने अपने जीवन के कुछ भाग कुकार्य में व्यतीत किए पर इनकी यह दुआ, जिसका आरम्भ यों है कि 'ऐ ख़ुदा, अच्छे लोगों को उनकी अच्छाई का पुरस्कार दे और बुरों पर अपनी उच्चता से दया कर', उसकी मुक्ति का कारण हो गई।"

जन-मानस के विचार

छोटे–बड़े सभी के मुख पर यह बात थी कि अबुल फ़ज़ल क़ाफ़िर था। कोई उसे हिन्दू कह कर उसकी निन्दा करता था, तो कोई अग्नि पूजक बतलाता था तथा मतांध की पदवी देता था। कुछ लोगों ने यहाँ तक अपनी घृणा दिखलाई है कि उसे नापाक़ तथा अनीश्वर वादी तक कहा है। पर दूसरे जिनमें न्याय बुद्धि अधिक है और जो सूफ़ी मत के अनुयायियों के समान बुरे नाम वालों को अच्छे नाम देते हैं, इसे उनमें गिनते हैं, जो सबसे शान्ति रखते हैं, अत्यन्त उदार ह्रदय हैं, सब धर्मों को मानते हैं, नियम को ढीला करते हैं तथा स्वतंत्र प्रकृति के हैं। आलमआरा अब्बासी का लेखक लिखता है कि शेख़ अबुल फ़ज़ल नुक़तवी था, जैसा कि एक अक्षर के रूप में लिखे हुए एक मन्शूर से मालूम होता है, जिसे अबुल फ़ज़ल ने मीर सैयद अहमद काशी के पास भेजा था, जो मत का एक मुखिया तथा उस नुक्ता मत की पुस्तकों का एक लेखक था। यह सन् 1002 हिजरी (सन् 1594 ई0) में, जब क़ाफ़िरों को फ़ारस में मार रहे थे, काशान में शाह अब्बास के निजी हाथों से मारा गया था। नुक्तामत कुफ़्र, अपवित्रता, वंकचता और घोर ईसाईपन है और नुक्तवी लोग दार्शनिकों के सामान विश्व को अनादि मानते हैं। वे प्रलय तथा अन्तिम दिन और अच्छे–बुरे कर्मों के बदले को नहीं मानते। वे स्वर्ग और नरक को यहीं सांसारिक सुख और दुख मानते हैं। ख़ुदा हमें बचावे।

अकबर के विचार

अकबर समझ आने के समय ही से भारत के चाल व्यवहार आदि को बहुत पसन्द करता था। इसके बाद वह अपने पिता के उपदेशों पर, जिसने फ़ारस के शाह तहमास्प की सम्मति मान ली थी, चला। (निर्वासन के समय) हुमायूँ के साथ बातचीत करते हुए भारत तथा राज्य छिन जाने के विषय में चर्चा चलाकर उसने कहा कि ऐसा ज्ञात होता है कि भारत में दो दल हैं, जो युद्ध कला तथा सैनिक संचालन में प्रसिद्ध हैं। अफ़ग़ान तथा राजपूत। इस समय पारस्परिक अविश्वास के कारण अफ़ग़ान आपके पक्ष में नहीं आ सकते, इसलिए उन्हें सेवक न रखकर व्यापारी बनाओ और राजपूतों को मिला रखो। अकबर ने इस दल को मिला रखना एक भारी राजनैतिक चाल माना और इसके लिए पूरा प्रयत्न किया। यहाँ तक की उनकी चाल अपनाई, गायों को मारना बंद कर दिया, दाड़ी बनवाता, मोतियों के माले पहनता, दशहरा तथा दिवाली त्यौहार मनाता आदि। अबुल फ़ज़ल का बादशाह पर प्रभाव था। इस सबका उसी पर उल्टा असर पड़ा।

नेकदिल इंसान

जख़ीरतुल ख़वानीन में लिखा है, कि अबुल फ़ज़ल रात्रि में दर्वेशों के यहाँ जाता, उनमें अशर्फ़ियाँ बाँटता और अपने धर्म के लिए उनसे दुआ माँगता। इसकी प्रार्थना यही होती थी कि 'शोक' क्या करना चाहिए? तब अपने हाथ घुटनों पर रखकर गहरी साँस खींचता। इसने अपने नौकरों को कभी कुवचन नहीं कहा, अनुपस्थिति के लिए कभी दंड नहीं लगाया और न उनकी मज़दूरी आदि ज़ब्त किया। जिसे एक बार नौकर रख लिया, उसे यथा सम्भव ठीक काम न करने पर भी कभी नहीं छुड़ाया। यह कहता कि लोग कहेंगे कि इसमें बुद्धि की कमी है, जो बिना समझे कि कौन कैसा है, रख लेता है। जिस दिन सूर्य मेष राशि में जाता है उस दिन यह सब घराऊ सामान सामने मँगवाकर उसकी सूची बनवा लेता और अपने पास रखता। यह अपने बही ख़ातों को जलवा देता और कुल कपड़ों को नौरोज को नौकरों में बाँट देता, केवल पैजामों को सामने जलवा देता। इसका भोजन आश्चर्यजनक था। इसका पुत्र अब्दुर्रहमान इसे भोजन कराता और पास रहता। बाबर्चीख़ाना का निरीक्षक मुसलमान था, जो खड़ा होकर देखता रहता। जिस तश्तरी में अबुल फ़ज़ल दो बार हाथ डालता, वह दूसरे दिन फिर तैयार किया जाता। यदि कुछ स्वाद रहित होता, तो वह उसे अपने पुत्र को खाने को देता और तब वह जाकर बाबर्चियों को कहता था। अबुल फ़ज़ल स्वयं कुछ नहीं कहते थे।

विनम्रता की मिसाल

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चगत्ताई वंश में नियम था कि शाहज़ादों की मृत्यु का समाचार बादशाहों को खुले रूप से नहीं दिया जाता था। उनके वक़ील नीला रूमाल हाथ में बाँधकर कोर्निश (झुककर सलाम करना) करते थे, जिससे बादशाह उक्त समाचार से अवगत हो जाते थे। अबुल फ़ज़ल की मृत्यु का समाचार बादशाह को कहने का जब किसी को साहस नहीं हुआ, तब यही नियम बरता गया।Blockquote-close.gif |} कहते हैं कि दक्षिण की चढ़ाई के समय इसके साथ के प्रबन्ध और कारख़ाने ऐसे थे जो कि विचार से परे थे। चेवल रावटी में अबुल फ़ज़ल के लिए मसनद बिछता और प्रतिदिन एक सहस्र थालियों में भोजन आता तथा अफ़सरों में बँटता। बाहर एक नौगज़ी लगी रहती, जिसमें दिन–रात सबको पकी–पकाई खिचड़ी बँटती रहती थी। कहा जाता है कि जब अबुल फ़ज़ल वक़ील मुलतक़ था, तब एक दिन ख़ानख़ानाँ सिंध के शासक मिर्ज़ा जानीबेग़ के साथ इससे मिलने के लिए आया। अबुल फ़ज़ल बिस्तर पर लम्बा सोया हुआ अकबरनामा देख रहा था। इसने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और उसी प्रकार पड़े हुए कहा कि, मिर्ज़ा आओ और बैठो। मिर्ज़ा जानीबेग़ में सल्तनत की बू थी, इसलिए वह कुढ़कर लौट गया। दूसरी बार ख़ानख़ानाँ के बहुत कहने से मिर्ज़ा, अबुल फ़ज़ल के गृह पर गए। अबुल फ़ज़ल फ़ाटक तक स्वागत को आया और बहुत सुव्यवहार करके कहा कि हम लोग आपके साथी नागरिक हैं और आपके सेवक हैं। मिर्ज़ा ने आश्चर्य में पड़कर ख़ानख़ानाँ से पूछा कि उस दिन के अंहकार और आज की नम्रता का क्या अर्थ है? ख़ानख़ानाँ ने उत्तर दिया, कि उस दिन प्रधान अमात्य के पद का विचार था, छाया को वास्तविकता के समान माना। आज भातृत्व का बर्ताव है।

असमय हत्या

अबुल फ़ज़ल बहुत वर्षों तक अकबर का विश्वासपात्र वज़ीर और सलाहकार रहा। वह केवल दरबारी और आला अफ़सर ही नहीं था, वरन् बड़ा विद्वान था और उसने अनेक पुस्तकें भी लिखी थीं। उसकी आइना-ए-अकबरी में अकबर के साम्राज्य का विवरण मिलता है और अकबरनामा में उसने अकबर के समय का इतिहास लिखा है। उसका भाई फ़ैज़ी भी अकबर का दरबारी शायर था। 1602 ई. में बुन्देला राजा वीरसिंहदेव ने शाहज़ादा सलीम के उकसाने से अबुल फ़ज़ल की हत्या कर डाली। [1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (पुस्तक "मुग़ल दरबार के सरदार") पेज नं0 – 258 पर

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