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'''अभिनेता''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Actor'') वह पुरुष कलाकार है जो एक चलचित्र या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करता है। अनुकर्ता (अभिनयकर्ता) अभिनेता कहलाते हैं। अभिनेता में गुणों के अनुसार धीरललित, धीरप्रशानत, धीरोदात्त, धीरोद्धत तथा अवस्थानुसार दक्षिण, शठ, धृष्टनायक, पीठमर्द, उपनायक, पतिनायक, नायिका, नायिका की दूतियाँ आदि पात्र-पात्रियाँ आती हैं। अभिनेता के द्वारा ही नाटकादी की कथा प्रेक्षकों के सामने आकर्षक रूप में आती है और पाठक अध्ययन कक्षमें जिन चारित्रिक विशेषताओं और भावों की गहराइयाँ नहीं समझ पाता, उन्हें अभिनेता नाट्य संकेतों के अनुकूल अभिनय से [[प्रत्यक्ष]] कर देता है।
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'''अभिनेत्री''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Actor'') वह महिला कलाकार है जो एक चलचित्र या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करती है। अभिनेत्री में गुणों के अनुसार धीरललित, धीरप्रशानत, धीरोदात्त, धीरोद्धत तथा अवस्थानुसार दक्षिण, शठ, धृष्टनायक, पीठमर्द, उपनायक, पतिनायक, नायिका, नायिका की दूतियाँ आदि पात्र-पात्रियाँ आती हैं। [[अभिनेता]] और अभिनेत्री के द्वारा ही नाटकादि की कथा प्रेक्षकों के सामने आकर्षक रूप में आती है और पाठक अध्ययन कक्ष में जिन चारित्रिक विशेषताओं और भावों की गहराइयाँ नहीं समझ पाता, उन्हें अभिनेत्री नाट्य संकेतों के अनुकूल अभिनय से [[प्रत्यक्ष]] कर देती है।
 
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*भारतीय नाटय परंपरा में वस्तु ([[कथानक]]), अभिनेता-[[अभिनेत्री]], [[रस]] और [[संवाद]] चारों उपकरणों का महत्त्व है। रस की सृष्टि ही [[भारत]] में नाट्य-रचना का मुख्य उद्देश्य है।
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*भारतीय नाटय परंपरा में वस्तु (कथानक), [[अभिनेता]]-अभिनेत्री, [[रस]] और संवाद चारों उपकरणों का महत्त्व है। रस की सृष्टि ही [[भारत]] में नाट्य-रचना का मुख्य उद्देश्य है।
 
*अभिनेत्री में स्वयं रस को अनुभूत करने की प्रक्रिया गतिशील होनी चाहिए। यदि नहीं है तो वह सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्ति नहीं कर सकती।
 
*अभिनेत्री में स्वयं रस को अनुभूत करने की प्रक्रिया गतिशील होनी चाहिए। यदि नहीं है तो वह सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्ति नहीं कर सकती।
 
*ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य से [[संस्कृत]] काल में भी नाट्य प्रदर्शन, मात्र मनोरंजनार्थ बतलाया गया है।  
 
*ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य से [[संस्कृत]] काल में भी नाट्य प्रदर्शन, मात्र मनोरंजनार्थ बतलाया गया है।  
 
*संस्कृतकाल के नाट्य समीक्षकों में [[पतंजलि]] का नाम प्रमुख है जिन्होंने अपने [[महाकाव्य]] में दो प्रकार के अभिनयों का उल्लेख किया है।  
 
*संस्कृतकाल के नाट्य समीक्षकों में [[पतंजलि]] का नाम प्रमुख है जिन्होंने अपने [[महाकाव्य]] में दो प्रकार के अभिनयों का उल्लेख किया है।  
*काले और लाल रंगों से [[कंस]] और [[कृष्ण]] के पक्ष के अभिनेताओं को मंच पर बतलाया जाता था।  
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*भाष्य के अनुसार स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते थे जिन्हें भूकंस कहते थे। भूकंस अर्थात् स्त्री की भूमिका में आया हुआ पुरुष।  
 
*भाष्य के अनुसार स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते थे जिन्हें भूकंस कहते थे। भूकंस अर्थात् स्त्री की भूमिका में आया हुआ पुरुष।  
 
==भरत मुनि का दृष्टिकोण==
 
==भरत मुनि का दृष्टिकोण==
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[[भरत मुनि]] ने अपने नाट्यशास्त्र के द्वितीय अध्याय में [[रंगशाला]] के निर्माण के बारे में भी बताया है। उनकी रंगशाला के[नेपथ्यगृह से निकलने के दो द्वार होते हैं जिनसे निकल कर अभिनेता (या अभिनेत्री) आगे बढ़ता है। इनमें से एक द्वार पर नियति के [[देवता]] का वास होता है और दूसरे पर मृत्यु के देवता का। भरत मुनि सम्भवतः कहना चाहते हैं कि मृत्यु के बाद ही या बाद भी अभिनेता एक दूसरा जीवन धारण करता है जिसका कि उसे अभिनय करना होता है।  
  
  
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11:19, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

अभिनेत्री (अंग्रेज़ी: Actor) वह महिला कलाकार है जो एक चलचित्र या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करती है। अभिनेत्री में गुणों के अनुसार धीरललित, धीरप्रशानत, धीरोदात्त, धीरोद्धत तथा अवस्थानुसार दक्षिण, शठ, धृष्टनायक, पीठमर्द, उपनायक, पतिनायक, नायिका, नायिका की दूतियाँ आदि पात्र-पात्रियाँ आती हैं। अभिनेता और अभिनेत्री के द्वारा ही नाटकादि की कथा प्रेक्षकों के सामने आकर्षक रूप में आती है और पाठक अध्ययन कक्ष में जिन चारित्रिक विशेषताओं और भावों की गहराइयाँ नहीं समझ पाता, उन्हें अभिनेत्री नाट्य संकेतों के अनुकूल अभिनय से प्रत्यक्ष कर देती है।

विशेष बिंदु

  • भारतीय नाटय परंपरा में वस्तु (कथानक), अभिनेता-अभिनेत्री, रस और संवाद चारों उपकरणों का महत्त्व है। रस की सृष्टि ही भारत में नाट्य-रचना का मुख्य उद्देश्य है।
  • अभिनेत्री में स्वयं रस को अनुभूत करने की प्रक्रिया गतिशील होनी चाहिए। यदि नहीं है तो वह सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्ति नहीं कर सकती।
  • ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य से संस्कृत काल में भी नाट्य प्रदर्शन, मात्र मनोरंजनार्थ बतलाया गया है।
  • संस्कृतकाल के नाट्य समीक्षकों में पतंजलि का नाम प्रमुख है जिन्होंने अपने महाकाव्य में दो प्रकार के अभिनयों का उल्लेख किया है।
  • काले और लाल रंगों से कंस और कृष्ण के पक्ष के अभिनेताओं को मंच पर बतलाया जाता था।
  • भाष्य के अनुसार स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते थे जिन्हें भूकंस कहते थे। भूकंस अर्थात् स्त्री की भूमिका में आया हुआ पुरुष।

भरत मुनि का दृष्टिकोण

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के द्वितीय अध्याय में रंगशाला के निर्माण के बारे में भी बताया है। उनकी रंगशाला के[नेपथ्यगृह से निकलने के दो द्वार होते हैं जिनसे निकल कर अभिनेता (या अभिनेत्री) आगे बढ़ता है। इनमें से एक द्वार पर नियति के देवता का वास होता है और दूसरे पर मृत्यु के देवता का। भरत मुनि सम्भवतः कहना चाहते हैं कि मृत्यु के बाद ही या बाद भी अभिनेता एक दूसरा जीवन धारण करता है जिसका कि उसे अभिनय करना होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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