अम्बरीष

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भगीरथ के प्रपौत्र, वैवस्वत मनु के पौत्र और नाभाग के पुत्र इक्ष्वाकुवंशी परमवीर राजा अंबरीष की कथा रामायण, महाभारत और पुराणों में विस्तार से वर्णित है। उन्होंने दस हज़ार राजाओं को पराजित करके ख्याति अर्जित की थी। वे विष्णु भक्त थे और अपना अधिकांश समय धार्मिक अनुष्ठानों में लगाते थे।

कथाऐं

प्रथम कथा

एक बार राजा ने व्रत रखा था। व्रत के पारण से कुछ ही पहले दुर्वासा ऋषि उनके यहाँ पहुँचे। राजा ने ऋषि को आमंत्रित किया। आमंत्रण स्वीकार करके ऋषि नित्यकर्म के लिए नदी तट पर चले गए और बहुत देर तक नहीं लौटे। जब व्रत पारण का समय बीतने लगा तो विद्वानों के परामर्श पर राजा ने जल ग्रहण कर लिया। लौटने पर जब दुर्वासा ने देखा कि अंबरीष ने उनकी प्रतीक्षा किए बिना ही जल ग्रहण कर लिया है तो वे कुपित हो उठे। उन्होंने अपनी जटा का एक बाल तोड़कर भूमि पर पटका, जो कृत्या बनकर तलवार हाथ में लिए राजा पर झपटी। उसी समय विष्णु का सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और कृत्या को नष्ट करके दुर्वासा के पीछे लग गया। ऋषि अपने प्राणों की रक्षा के लिए ब्रह्मा, शिव और अन्त में विष्णु के पास गए, पर किसी ने भी उन्हें शरण नहीं दी। अन्त में विष्णु के परामर्श पर ऋषि को अंबरीष की शरण में जाना पड़ा और इस प्रकार उन्हें मुक्ति मिली। कुछ विद्वानों का मत है कि इस कथा का मुख्य उद्देश्य विष्णु की महत्ता को श्रेष्ठ सिद्ध करना है।

द्वितीय कथा

अंबरीष की सुंदरी नामक एक सर्वगुण सम्पन्न कन्या थी। एक बार नारद और पर्वत दोनों उस पर मोहित हो गए। वे सहायता के लिए विष्णु के पास गए और दोनों ने उनसे एक-दूसरे को वानरमुख बना देने की प्रार्थना की। विष्णु ने दोनों की बात मानकर दोनों का मुख वानर का बना दिया। सुन्दरी दोनों के मुख देखकर भयभीत हो गई, किन्तु बाद में उसने देखा कि दोनों के बीच में विष्णु विराजमान हैं। अत: उसने वरमाला उन्हीं के गले में डाल दी।

तृतीय कथा

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार अंबरीष के यज्ञ-पशु को इन्द्र ने चुरा लिया। इस पर ब्राह्मणों ने राय दी कि इस दोष का निवारण मानव बलि से ही हो सकता है। तब राजा ने ऋषि ऋचीक को बहुत-सा धन देकर उनके पुत्र शुन:शेप को यज्ञ-पशु के रूप में ख़रीद लिया। अन्त में विश्वामित्र की सहायता से शुन:शेप के प्राणों की रक्षा हुई।


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