अम्बरीष

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भक्तवर अम्बरीष वैवस्वत मनु के पौत्र महाराज नाभाग के पुत्र थे।


श्री दुर्वासा ने तपोबल से जान लिया था कि कालिन्दी-कुल से मेरे आने के पूर्व ही इन्होंने श्री हरि का चरणामृत ले लिया है। द्वादशी केवल एक घण्टा शेष थीं। वर्षभर का एकादशी व्रत आज सविधि पूर्ण हुआ था। वस्त्राभूषणों से सुसज्जित अनेकों गायें दान दी गयी थीं और सादर ब्राह्मण-भोजन कराया गया था। पारण-विधि की रक्षा के लिये अम्बरीष ने यह व्यवस्था ली थी, पर ऋषि क्रोधित हो गये:

'धनोन्मत्त अम्बरीष! तुमने मेरा अनादर किया है। तू श्रीविष्णु का भक्त नहीं। तू महा अभिमानी और धृष्ट है। आमन्त्रण देकर अनादृत करने का दण्ड दिये बिना मैं मनहीं रह सकूँगां'

ऋषि ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर पटक दिया। महाभयानक कृत्या हाथ में तीक्ष्ण खड़ग लिये उत्पन्न हो गयी। वह अम्बरीष पर झपटी ही थी कि तेजोमय चक्र चमक उठा, कृत्या वहीं राख हो गयीं ऋषि प्राण लेकर दौड़े, पर वह तीव्र प्रकाशपुंज उनके पीछे पड़ गया था। दसों दिशाओं और चतुर्दश भुवनों में ऋषि घूमते-घूमते थक गये, पर कहीं आश्रय नहीं मिला और वह सुदर्शन चक्र उनके प्राण की क्षुधा लिये आतुरता से पीछे लगा था। श्रीविष्णु के चरणों में प्रणिपात करते ही उत्तर मिला,

'मैं विवश हूँ, महामुने! अपनी रक्षा चाहते हैं तो आप अम्बरीष से ही क्षमा माँगें। वे ही आपको शान्ति दे सकते हैं।'

अम्बरीष ने रोते हुए प्रार्थना की:

'समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभु मुझ पर सन्तुष्ट हों तो ऋषि का संकट दूर हो।'

ब्राह्मण को अपना पैर स्पर्श करते देखकर वे काँप उठे थे। अत्यन्त दु:ख से एक वर्ष से वे केवल जल पर जीवन चला रहे थे। ऋषि के पीछे सुदर्शन-चक्र को लगे इतना समय हो गया था। सुदर्शन के अदृश्य होने पर ऋषि के मुँह से निकल पड़ा:

'भगवान के भक्तों का स्वरूप मैंने अब समझा!' वे काँटों पर सोकर भी दूसरे के लिये सुमन-शय्या प्रस्तुत कर देते हैं। दूसरे का सुख ही उनका अपना सुख है।'

ऋषि की आँखें गीली हो गयी थीं और श्रीअम्बरीष का मस्तक उनके चरणों पर था।