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06:58, 22 जुलाई 2014 का अवतरण
अर्द्ध मागधी मागधी और शौरसेनी प्राकृतों का वह मिश्रित रूप, जो कौशल में प्रचलित था। महावीर और बुद्ध के समय में यही कौशल की लोक-भाषा थी, अतः इसी में उनके धर्मोपदेश भी हुए थे। मौर्य सम्राट अशोक के पूर्वी शिलालेख भी इसी भाषा में अंकित हुए थे। आजकल की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियाँ इसी से निकली है।[1]
- अर्द्ध मागधी की स्थिति मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के बीच है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं।
- इस भाषा का महत्व जैन साहित्य के कारण अधिक है।
- अर्ध मागधी में ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है। इसमें दन्त्य का मूर्धन्य हो जाता है- स्थित > ठिप।
- इस भाषा में ष्, श्, स् में केवल स् का प्रयोग होता है तथा अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता।
- अर्ध-मागधी में कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि मागधी के समान एकारान्त तथा शौरसेनी के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्द्ध मागधी (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 जुलाई, 2014।