अह्ले किताब

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अह्ले किताब अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है- 'पुस्तक में शामिल लोग'। इस्लामी मान्यता के अनुसार, यहूदियों, ईसाईयों और पारसियों जैसे धर्मावलंबियों को, जिनके पास दैवी पुस्तकें[1] हैं, इस्लाम से अलग माना गया है, क्योंकि इनके धर्म दैवी ज्ञान पर आधारित नहीं हैं। इन अन्य धर्मों के अस्पष्ट वर्ग को 'सेबियन धर्मावलंबी' कहा गया, लेकिन इन्हें भी अह्ले किताब माना गया।[2]

  • पैग़म्बर मुहम्मद ने 'अह्ले किताब' को कई विशेषाधिकार दिए हैं, जो विधर्मियों को नहीं दिए जा सकते हैं।
  • अह्ले किताब को आराधना की स्वतंत्रता है। इस प्रकार आरंभिक मुस्लिम विजय अभियानों के दौरान यहूदियों और ईसाईयों को जबरन इस्लाम में धर्मांतरित नहीं किया गया और सैनिक सेवा से बचने के लिए उन्हें सिर्फ़ 'विशेष कर' अदा करना पड़ता था।
  • इन पर लोगों की रक्षा और कुशलता, मुस्लिम शासन या अधिकारी का दायित्व था। पैग़म्बर के एक कथन के अनुसार, "जो व्यक्ति यहूदी या ईसाई के साथ ग़लत व्यवहार करता है, क़यामत के दिन मैं उस पर अभियोग लगाऊंगा।"
  • मुहम्मद की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने अपने सिपहसालारों और सूबेदारों को सख़्त निर्देश दिए कि वे अह्ले किताब के पूजा-पाठ में दख़लंदाज़ी न करें और उनसे पूरे सम्मान के साथ व्यवहार करें।
  • मुस्लिम पुरुषों को अह्ले किताब समुदाय की स्त्री से विवाह की इजाज़त है, उस वक्त भी जब स्त्री अपने ही धर्म में बनी रहना चाहती है, लेकिन मुस्लिम स्त्रियों को ईसाई या यहूदी पुरुष से तब तक विवाह की अनुमति नहीं है, जब तक पुरुष इस्लाम में धर्मांतरित न हो जाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तोराह, गॉस्पेल और अवेस्ता
  2. भारत ज्ञानकोश, खण्ड-1 |लेखक: इंदु रामचंदानी |प्रकाशक: एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली और पॉप्युलर प्रकाशन, मुम्बई |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 103 |

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