आंग्ल-बर्मा युद्ध तृतीय

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में लड़ा गया। उस समय 'थिबा' ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और 'मांडले' उसकी राजधानी थी। उस समय लॉर्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था। उधर मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा उसके अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी, जो उन्हें थिबा से मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं।

  • अंग्रेज़ों द्वारा 1852 ई. की पराजय से बर्मा का शासक 'थिबा' बुरी तरह चिढ़ा हुआ था।
  • उसने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया।
  • उस समय तक फ़्राँसीसियों ने कोचीन, चीन तथा उत्तरी बर्मा के पूर्व में स्थित टेन्किन में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
  • फ़्राँसीसियों के साथ बर्मियों के मेलजोल तथा थिबा की सरकार द्वारा एक अंग्रेज़ फ़र्म पर, जो उत्तरी बर्मा में लट्ठे का रोज़गार करती थी, भारी जुर्माना कर देने के कारण भारत की ब्रिटिश सरकार ने 1885 ई. में 'तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध' की घोषणा कर दी।
  • युद्ध के लिए अंग्रेज़ों ने काफ़ी पहले से ही तैयारियाँ पूरी तरह से कर रखी थी।
  • थिबा की फ़्राँसीसियों से सहायता प्राप्त करने की आशा मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई।
  • युद्ध की घोषणा 9 नवम्बर, 1885 ई. को की गई और बीस दिनों में ही मांडले पर अधिकार कर लिया गया।
  • राजा थिबा बंदी बना लिया गया और उसे अपदस्थ करके उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।
  • दक्षिणी बर्मा को मिलाकर एक नया सूबा बना दिया गया, रंगून (अब यांगून) को उसकी राजधानी बनाया गया।
  • इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पूर्वोत्तर में अपनी चरम सीमा तक प्रसारित हो गया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख