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'''आकाश''' किसी भी खगोलीय पिण्ड (जैसे धरती) के वाह्य अन्तरिक्ष का वह भाग है जो उस पिण्ड के सतह से दिखाई देता है। अनेक कारणों से इसे परिभाषित करना कठिन है। [[दिन]] के [[प्रकाश]] में [[पृथ्वी]] का आकाश गहरे-[[नीला रंग|नीले रंग]] के सतह जैसा प्रतीत होता है जो हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के परिणामस्वरूप घटित होता है। जबकि रात्रि में हमे धरती का आकाश तारों से भरा हुआ [[काला रंग|काले रंग]] का सतह जैसा जान पड़ता है। आसमान का [[रंग]] उसके नहीं होते है। [[सूर्य]] से आने वाले प्रकाश जब आकाश में उपस्थित धूल इत्यादि से मिलता है तो वह फैल जाता है। नीला रंग [[तरंग दैर्ध्य]] के कारण अन्य रंगों की अपेक्षा में अधिक फैलता है।
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*[[वैशेषिक दर्शन|वैशेषिक]] सूत्रकार [[कणाद]] ने [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[तेज]] और [[वायु देव|वायु]] की परिभाषा मुख्यत: उनमें समवाय सम्बन्ध से विद्यमान प्रमुख गुणों के आधार पर सकारात्मक विधि से की, किन्तु आकाश की परिभाषा का अवसर आने पर कणाद ने आरम्भ में नकारात्मक विधि से यह कहा कि आकाश वह है<ref>त आकाशे न विद्यन्ते, वै.सू. 2.1.5</ref> जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नामक गुण नहीं रहते। किन्तु बाद में उन्होंने यह बताया कि परिशेषानुमान से यह सिद्ध होता है कि आकाश वह है, जो शब्द का आश्रय है।
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*प्रशस्तपाद के कथनों का आशय भी यह है कि आकाश वह है, जिसका व्यापक शब्द है। आकाश एक पारिभाषिक संज्ञा है अर्थात आकाश को 'आकाश' बिना किसी निमित्त के वैसे ही कहा गया है, जैसे कि व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में किसी बालक को देवदत्त कह दिया जाता है। अत: 'आकाशत्व' जैसी कोई जाति (सामान्य) उसमें नहीं है। जिस प्रकार से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] घट का कार्यारम्भक द्रव्य है, उस प्रकार से आकाश किसी अवान्तर द्रव्य का आरम्भक नहीं होता। जैसी पृथ्वीत्व की परजाति (व्यापक सामान्य) द्रव्यत्व है और अपरजाति (व्याप्य सामान्य) घटत्व है, वैसी परजाति होने पर भी कोई अपरजाति आकाश की नहीं है। यद्यपि गुण और कर्म की अपेक्षा से भी अपरजाति की प्रतीति का विधान है, किन्तु आकाश में शब्द आदि जो छ: गुण बताये गए हैं, वे सामान्य गुण हैं। अत: उनमें अपरजाति का घटकत्व नहीं माना जा सकता। शब्द विशेष गुण होते हुए भी अनेक द्रव्यों का गुण नहीं है। अत: वह जाति का घटक नहीं होता। इस प्रकार अनेक वृत्तिता न होने के कारण आकाश में 'आकाशत्व' नामक सामान्य की अवधारणा नहीं की जा सकती।
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*किन्तु उपर्युक्त मन्तव्य का ख्यापन करने के अनन्तर भी प्रशस्तपाद यह कहते हैं कि आकाश में शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयाग और विभाग ये छ: गुण विद्यमान हैं और परिगणित गुणों में शब्द को सर्वप्रथम रखते हैं, जिससे वैशेषिक के उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी कणाद और प्रशस्तपाद के आशयों के अनुरूप शब्द को परिशेषानुमान के आधार पर आकाश का प्रमुख गुण मान लिया और इस प्रकार अन्नंभट्ट ने अन्तत: आकाश की यह परिभाषा की 'शब्दगुणकम् आकाशम्' अर्थात जिस द्रव्य में शब्द नामक गुण रहता है वह आकाश है। आकाश एक है, नित्य है और विभु है।<ref>शब्दगुणकमाकाशम्, त. सं.</ref> आकाश की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश, वह अखण्ड द्रव्य है, उसके अवयव नहीं होते। आकाश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। उसका ज्ञान परिशेषानुमान से होता है। 'इह पक्षी' आदि उदाहरणों के आधार पर मीमांसकों ने आकाश को प्रत्यक्षगम्य माना है, किन्तु वैशेषिकों के अनुसार 'इह पक्षी' आदि कथन आकाश का नहीं, अपितु आलोकमण्डल का संकेत करते हैं। अत: आकाश, शब्द द्वारा अनुमेय द्रव्य है।
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*वैशेषिकों के अनुसार शब्द का गुण है, गुण का आश्रय कोई न कोई द्रव्य होता है। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य शब्द के आश्रय नहीं हैं। अत: आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्यान्तर आश्रय के रूप में उपलब्ध न होने के कारण आकाश को परिशेषानुमान से शब्दगुण का आश्रय माना गया है। आकाश का कोई समवायि, असमवायि और निमित्त कारण नहीं है। शब्द उसका ज्ञापक हेतु है, कारक नहीं।
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*भाट्ट मीमांसक शब्द को गुण नहीं अपितु द्रव्य मानते हैं। किन्तु वैशेषिकों के अनुसार शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध नहीं होता। सूत्रकार कणाद ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि द्रव्य वह होता है, जिसके केवल एक ही नहीं, अपितु अनेक समवायिकारण हों। शब्द का केवल एक समवायिकारण है, वह आकाश है। अत: शब्द एकद्रव्याश्रयी गुण है।<ref>एकद्रव्यत्वान्न द्रव्यम्, वै.सू., 2.2.23</ref> वह द्रव्य नहीं है, अपितु द्रव्य से भिन्न है और गुण की कोटि में आता है। इस प्रकार वैशेषिक नयानुसार आकाश पृथक् रूप से एक विभु और नित्य द्रव्य है।
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10:01, 8 अप्रैल 2013 का अवतरण

आकाश किसी भी खगोलीय पिण्ड (जैसे धरती) के वाह्य अन्तरिक्ष का वह भाग है जो उस पिण्ड के सतह से दिखाई देता है। अनेक कारणों से इसे परिभाषित करना कठिन है। दिन के प्रकाश में पृथ्वी का आकाश गहरे-नीले रंग के सतह जैसा प्रतीत होता है जो हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के परिणामस्वरूप घटित होता है। जबकि रात्रि में हमे धरती का आकाश तारों से भरा हुआ काले रंग का सतह जैसा जान पड़ता है। आसमान का रंग उसके नहीं होते है। सूर्य से आने वाले प्रकाश जब आकाश में उपस्थित धूल इत्यादि से मिलता है तो वह फैल जाता है। नीला रंग तरंग दैर्ध्य के कारण अन्य रंगों की अपेक्षा में अधिक फैलता है।

आकाश के अन्य नाम

  1. नभ
  2. आसमान
  3. अम्बर
  4. व्योम
  5. निलाम्बर
  6. गगन

आकाश तत्त्व

  • वैशेषिक सूत्रकार कणाद ने पृथ्वी, जल, तेज और वायु की परिभाषा मुख्यत: उनमें समवाय सम्बन्ध से विद्यमान प्रमुख गुणों के आधार पर सकारात्मक विधि से की, किन्तु आकाश की परिभाषा का अवसर आने पर कणाद ने आरम्भ में नकारात्मक विधि से यह कहा कि आकाश वह है[1] जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नामक गुण नहीं रहते। किन्तु बाद में उन्होंने यह बताया कि परिशेषानुमान से यह सिद्ध होता है कि आकाश वह है, जो शब्द का आश्रय है।
  • प्रशस्तपाद के कथनों का आशय भी यह है कि आकाश वह है, जिसका व्यापक शब्द है। आकाश एक पारिभाषिक संज्ञा है अर्थात आकाश को 'आकाश' बिना किसी निमित्त के वैसे ही कहा गया है, जैसे कि व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में किसी बालक को देवदत्त कह दिया जाता है। अत: 'आकाशत्व' जैसी कोई जाति (सामान्य) उसमें नहीं है। जिस प्रकार से पृथ्वी घट का कार्यारम्भक द्रव्य है, उस प्रकार से आकाश किसी अवान्तर द्रव्य का आरम्भक नहीं होता। जैसी पृथ्वीत्व की परजाति (व्यापक सामान्य) द्रव्यत्व है और अपरजाति (व्याप्य सामान्य) घटत्व है, वैसी परजाति होने पर भी कोई अपरजाति आकाश की नहीं है। यद्यपि गुण और कर्म की अपेक्षा से भी अपरजाति की प्रतीति का विधान है, किन्तु आकाश में शब्द आदि जो छ: गुण बताये गए हैं, वे सामान्य गुण हैं। अत: उनमें अपरजाति का घटकत्व नहीं माना जा सकता। शब्द विशेष गुण होते हुए भी अनेक द्रव्यों का गुण नहीं है। अत: वह जाति का घटक नहीं होता। इस प्रकार अनेक वृत्तिता न होने के कारण आकाश में 'आकाशत्व' नामक सामान्य की अवधारणा नहीं की जा सकती।
  • किन्तु उपर्युक्त मन्तव्य का ख्यापन करने के अनन्तर भी प्रशस्तपाद यह कहते हैं कि आकाश में शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयाग और विभाग ये छ: गुण विद्यमान हैं और परिगणित गुणों में शब्द को सर्वप्रथम रखते हैं, जिससे वैशेषिक के उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी कणाद और प्रशस्तपाद के आशयों के अनुरूप शब्द को परिशेषानुमान के आधार पर आकाश का प्रमुख गुण मान लिया और इस प्रकार अन्नंभट्ट ने अन्तत: आकाश की यह परिभाषा की 'शब्दगुणकम् आकाशम्' अर्थात जिस द्रव्य में शब्द नामक गुण रहता है वह आकाश है। आकाश एक है, नित्य है और विभु है।[2] आकाश की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश, वह अखण्ड द्रव्य है, उसके अवयव नहीं होते। आकाश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। उसका ज्ञान परिशेषानुमान से होता है। 'इह पक्षी' आदि उदाहरणों के आधार पर मीमांसकों ने आकाश को प्रत्यक्षगम्य माना है, किन्तु वैशेषिकों के अनुसार 'इह पक्षी' आदि कथन आकाश का नहीं, अपितु आलोकमण्डल का संकेत करते हैं। अत: आकाश, शब्द द्वारा अनुमेय द्रव्य है।
  • वैशेषिकों के अनुसार शब्द का गुण है, गुण का आश्रय कोई न कोई द्रव्य होता है। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य शब्द के आश्रय नहीं हैं। अत: आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्यान्तर आश्रय के रूप में उपलब्ध न होने के कारण आकाश को परिशेषानुमान से शब्दगुण का आश्रय माना गया है। आकाश का कोई समवायि, असमवायि और निमित्त कारण नहीं है। शब्द उसका ज्ञापक हेतु है, कारक नहीं।
  • भाट्ट मीमांसक शब्द को गुण नहीं अपितु द्रव्य मानते हैं। किन्तु वैशेषिकों के अनुसार शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध नहीं होता। सूत्रकार कणाद ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि द्रव्य वह होता है, जिसके केवल एक ही नहीं, अपितु अनेक समवायिकारण हों। शब्द का केवल एक समवायिकारण है, वह आकाश है। अत: शब्द एकद्रव्याश्रयी गुण है।[3] वह द्रव्य नहीं है, अपितु द्रव्य से भिन्न है और गुण की कोटि में आता है। इस प्रकार वैशेषिक नयानुसार आकाश पृथक् रूप से एक विभु और नित्य द्रव्य है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त आकाशे न विद्यन्ते, वै.सू. 2.1.5
  2. शब्दगुणकमाकाशम्, त. सं.
  3. एकद्रव्यत्वान्न द्रव्यम्, वै.सू., 2.2.23

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