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'क़ुरान' के अनुसार काल तथा अन्य पर्वों में 'हज्ज़' विदित है। इस्लाम की क़ुर्बानी कोई नयी चीज नहीं है। इष्टों और देवताओं को पशु का बलिदान करना बहुत पुराने समय से चला आता है। विक्रमपर्व अष्टम शताब्दी में, 'तिग्लतपेशर्' और 'शल्मेशर', 'असुर' राजाओं के इष्ट 'सक्कथ–वेनथ' बवेरु (बाबुल) नगर के विशाल मन्दिर में बैठे बलि ग्रहण करते थे। 'नर्गल', 'अशिम', 'निमज', 'तर्तक', 'अद्रम्लेश', 'अम्लेश', 'नाशरश', 'देगन' आदि देव–समुदाय विक्रम से अनेक शताब्दियाँ पूर्व आधुनिक लघु एशिया के पुराने नगरों 'कथ', 'ड्रामा', 'अलित', 'सफर्वेम' में रहते हुए बलि ग्रहण करते थे। मूर्ति पूजक समुदाय तो प्रायः सारा हि इस पशुबलि–क्रिया में अत्यन्त श्रृद्धालु देखा जाता है। किन्तु अमूर्ति पूजक धर्म भी इससे विंचित नहीं रहा। यहूदियों की भव्य वेदियाँ सदा पशु–रक्त से रंजित रहती रही हैं। उनकी शुष्क और दग्ध बलियाँ 'बाइबिल' पढ़ने वालों को अविदित नहीं। इस्लाम ने अधिकांश यहूदी सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों या कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण कर लिया। बलि का सिद्धान्त भी उसी प्रकार यहूदी धर्म से लिया गया है। यहाँ पर दोनों की बलि के विषय में समता दिखाने के लिए 'तौरेत' और 'क़ुरान' दोनों से कुछ वाक्य उदधृत किए जाते हैं—
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'क़ुरान' के अनुसार काल तथा अन्य पर्वों में 'हज्ज़' विदित है। इस्लाम की क़ुर्बानी कोई नयी चीज़ नहीं है। इष्टों और देवताओं को पशु का बलिदान करना बहुत पुराने समय से चला आता है। विक्रमपर्व अष्टम शताब्दी में, 'तिग्लतपेशर्' और 'शल्मेशर', 'असुर' राजाओं के इष्ट 'सक्कथ–वेनथ' बवेरु (बाबुल) नगर के विशाल मन्दिर में बैठे बलि ग्रहण करते थे। 'नर्गल', 'अशिम', 'निमज', 'तर्तक', 'अद्रम्लेश', 'अम्लेश', 'नाशरश', 'देगन' आदि देव–समुदाय विक्रम से अनेक शताब्दियाँ पूर्व आधुनिक लघु एशिया के पुराने नगरों 'कथ', 'ड्रामा', 'अलित', 'सफर्वेम' में रहते हुए बलि ग्रहण करते थे। मूर्ति पूजक समुदाय तो प्रायः सारा हि इस पशुबलि–क्रिया में अत्यन्त श्रृद्धालु देखा जाता है। किन्तु अमूर्ति पूजक धर्म भी इससे विंचित नहीं रहा। यहूदियों की भव्य वेदियाँ सदा पशु–रक्त से रंजित रहती रही हैं। उनकी शुष्क और दग्ध बलियाँ 'बाइबिल' पढ़ने वालों को अविदित नहीं। इस्लाम ने अधिकांश यहूदी सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों या कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण कर लिया। बलि का सिद्धान्त भी उसी प्रकार यहूदी धर्म से लिया गया है। यहाँ पर दोनों की बलि के विषय में समता दिखाने के लिए 'तौरेत' और 'क़ुरान' दोनों से कुछ वाक्य उदधृत किए जाते हैं—
 
<blockquote><span style="color: #8080e3">“That will offer his oblation for all his vows or for all his freewill offerings, which they will offer unto the lord for a burnt offering. Ye shall offer at your own will a male without blemish, of the beeves, of the sheep, or of the goats. Blind or broken or maimed, or having a wen, scurvy or scubbed, ye shall not offer these unto the lord, nor make an offering by fire of them upon the altar unto the lord…Ye shall not offer unto the lord, that which is bruised, or crushed, or broken or cut”<ref>Leviticus 22: 20-24</ref>.</span></blockquote>  
 
<blockquote><span style="color: #8080e3">“That will offer his oblation for all his vows or for all his freewill offerings, which they will offer unto the lord for a burnt offering. Ye shall offer at your own will a male without blemish, of the beeves, of the sheep, or of the goats. Blind or broken or maimed, or having a wen, scurvy or scubbed, ye shall not offer these unto the lord, nor make an offering by fire of them upon the altar unto the lord…Ye shall not offer unto the lord, that which is bruised, or crushed, or broken or cut”<ref>Leviticus 22: 20-24</ref>.</span></blockquote>  
 
"जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि परमेश्वर तुमको आज्ञा देता है कि एक गौ बलि चढ़ाओ...(वह) बोले—अपने ईश्वर से हमारे लिए पूछ कि हमें बतावे—वह कैसी हो। कहा—(ईश्वर) आज्ञा देता है कि वह गौ न वृद्धा और न ही ब्याई हो, दोनों के बीच की हो। सो जिसके लिए आज्ञा दी गई, उसके करो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, उसका [[रंग]] कैसा हो। बोला—वह (ईश्वर) कहता है, पीला चमकीला रंग जो देखने वाले को पसन्द हो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, किस प्रकार की गाय हो। बोला—कहता है, ऐसी गौ नहीं, जो कि परिश्रम करने वाली, खेत जोतती या खेत सींचती है। जो पूरे अंग वाली बेदाग़ हों।"<ref>(2:8:6-9)</ref>
 
"जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि परमेश्वर तुमको आज्ञा देता है कि एक गौ बलि चढ़ाओ...(वह) बोले—अपने ईश्वर से हमारे लिए पूछ कि हमें बतावे—वह कैसी हो। कहा—(ईश्वर) आज्ञा देता है कि वह गौ न वृद्धा और न ही ब्याई हो, दोनों के बीच की हो। सो जिसके लिए आज्ञा दी गई, उसके करो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, उसका [[रंग]] कैसा हो। बोला—वह (ईश्वर) कहता है, पीला चमकीला रंग जो देखने वाले को पसन्द हो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, किस प्रकार की गाय हो। बोला—कहता है, ऐसी गौ नहीं, जो कि परिश्रम करने वाली, खेत जोतती या खेत सींचती है। जो पूरे अंग वाली बेदाग़ हों।"<ref>(2:8:6-9)</ref>

08:06, 8 जुलाई 2011 का अवतरण

इस्लाम धर्म का प्रतीक

पैगम्बर मुहम्मद की कही हुई बातें और उनकी स्मृतियों का 'हदीस' नामक ग्रन्थ में संग्रह है।

आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धरती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) इसके प्रवर्तक नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं।[1]

अर्थ

इस्लाम शब्द का अर्थ है – 'अल्लाह को समर्पण'। इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया, अर्थात इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके 'कलमे' में दोहराई जाती है - ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अर्थात 'अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर।' कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व मुसलमान यह क़लमा पढ़ते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना गया है, जो इस दुनिया से काफ़ी दूर सातवें आसमान पर रहता है। वह अभाव (शून्य) में सिर्फ़ 'कुन' कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फ़रिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं। गुमराह फ़रिश्तों को 'शैतान' कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य सिर्फ़ एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (क़यामत) के दिन जी उठता है और मनुष्य के रूप में किये गये अपने कर्मों के अनुसार ही 'जन्नत' (स्वर्ग) या 'नरक' पाता है।

भारत में इस्लाम का प्रवेश

712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में अरब के मुसलमानों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमला करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह बार हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।

महात्मा की दृढ़ता

'इस्लाम' को बालपन ही से सबका विरोध सहना पड़ा। उसने निर्भीकतापूर्वक जब दूसरों के मिथ्याविश्वासों का खण्डन किया, तो सभी ने भरसक इस्लाम को उखाड़ फैंकने का प्रयत्न किया। सचमुच जिस प्रकार का विरोध था, यदि उसी प्रकार की दृढ़ता मुसलमानों और उनके धर्मगुरु ने न दिखाई होती तो कौन कह सकता है कि इस्लाम इस प्रकार संसार के इतिहास को पलट देने में समर्थ होता।

अरब

अत्यंत प्राचीन काल में ‘जदीस’, ‘आद’, ‘समूद’ आदि जातियाँ, जिनका अब नाममात्र शेष है, अरब में निवास करती थीं, किन्तु भारत-सम्राट हर्षवर्द्धन के सम-सामयिक हज़रत मुहम्मद के समय ‘क़हतान’, ‘इस्माईल’ और ‘यहूदी’ वंश के लोग ही अरब में निवास करते थे। प्राचीन काल में अरब-निवासी सुसभ्य और शिल्प-कला में प्रवीण थे। परन्तु ‘नीचैर्गच्छत्युपरि च तथा चक्रनेमिक्रमेण’ के अनुसार कालान्तर में उनके वंशज घोर अविद्यान्धकार में निमग्न हो गये और सारी शिल्पकलाओं को भूल कर ऊँट-बकरी चराना मात्र उनकी जीविका का उपाय रह गया। वह इसके लिए एक स्रोत से दूसरे स्रोत, एक स्थान से दूसरे स्थान में हरे चरागाहों को खोजते हुए खेमों में निवास करके कालक्षेप करने लगे। कनखजूरा, गोह, गिरगिट आदि सारे जीव उनके भक्ष्य थे। प्रज्ज्वलित अग्नि में जीवित मनुष्य को डाल देना उनके समीप कोई असाधु कर्म नहीं समझा जाता था। हिन्दू-पुत्र अम्रु ने अपने भाई के मारे जाने पर एक के बदले सौ के मारने की प्रतिज्ञा की।

हज़रत मुहम्मद

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 570 ई. को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने ख़दीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछडी, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किलोमीटर उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिजरत' कहलाती है। इसी दिन से 'हिजरी संवत' का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्तर में 630 ई. में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात 8 जून, 632 को उनका निधन हो गया।

तत्कालीन मूर्तियाँ

‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक कबील में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखादेखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था - कुरेश - वंशियों का इष्ट था। ‘जय[2] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होते है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।

श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा - विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। उनके और अपनी यात्राओं में अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विमुख बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफा में एकान्त-सेवन और ईश्वर - प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभु के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छित हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘ख़दीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवत्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था। इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवतता) का समय प्रास्म्भ होता है।

इस्लाम का प्रचार और कष्ट

Blockquote-open.gif यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है - परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं। Blockquote-close.gif

ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के ख़ास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था; किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।

मदीना-प्रवास

अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते हैं। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[3] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।

मुहम्मद अन्तिम पैग़म्बर

"जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।"[4] महात्मा मुहम्मद के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। "तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।"[5] यह कह ही आए हैं कि अरब के लोग उस समय एकदम असभ्य थे। उन्हें छोटे–छोटे से लेकर बड़े–बड़े आचार और सभ्यता–सम्बन्धी व्यवहारों को भी बतलाना पड़ता था। उनको गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, बड़े-छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा-भतीजा वाला पहला सम्बन्ध; यथा- "मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु-प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।"[6] 'मुसलमानों का उस (मुहम्मद) के साथ प्राण से भी अधिक सम्बन्ध है और उसकी स्त्रियाँ तुम्हारी (मुसलमानों) की माताएँ हैं।'

क़ुरान शरीफ़

इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हजार छः सौ छियासठ) है।[7]

लौह महफूज में क़ुरान

क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है[8] अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्त्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- “हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है।“ [9]

जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित मुहम्मद के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।[10]

इस्लाम के सिद्धान्त

अरबी के 'मज़हब' और 'दीन' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हैं, उसे अंग्रेज़ी का रिलीजन शब्द तो अवश्य व्यक्त कर सकता है। किन्तु संस्कृत या हिन्दी में उनका पर्यायवाची कोई एक शब्द नहीं मिलता। यद्यपि 'पन्थ' शब्द ठीक 'मज़हब' शब्द के ही धात्वर्थ को प्रकाशित करता है। किन्तु जिस प्रकार 'धर्म' शब्द अतिव्याप्त है, उसी प्रकार यह अव्याप्ति–दोषग्रस्त है। इस निबन्ध के वर्णनानुसार जो मार्ग मनुष्य के ऐहिक और आयुष्मिक श्रेय की प्राप्ति के लिए अनुसरण करने के योग्य है, वही इस्लाम पन्थ, धर्म या सम्प्रदाय है। आसानी के लिए हम प्रायः 'पन्थ' शब्द ही को इसके लिए प्रयुक्त करेंगे। हर एक पन्थ में दो प्रकार के मन्तव्य होते हैं। एक विश्वासात्मक, दूसरा क्रियात्मक। नीचे दोनों प्रकार के इस्लामी मन्तव्यों को क़ुरान के शब्दों ही में उदधृत किया जाता है— "यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है—परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।"[11]

पुरानी कथाएँ

"यह (वह) बस्तियाँ हैं, जिनका वृत्तान्त तुझे (हम) सुनाते हैं।"[12] "सो तू (मुहम्मद) कथा वर्णन कर, शायद यह विचार करे।"[13] क़ुरान का एक विशेष भाग शिक्षाप्रद इतिवृत्तों और कथाओं से पूर्ण है। उपर्युक्त वाक्य इसके साक्षी हैं। क़ुरान में वर्णित सभी विषयों का सामान्य ज्ञान इस क़ुरानसार की रचना से अभिप्रेत है। अतः यहाँ पर उन कथाओं का थोड़ा–सा वर्णन कर दिया जाता है। इनमें से अनेक कथाएँ कुछ घटा - बढ़ा कर वहीं हैं जो बाइबिल में आई हैं। इन महात्माओं के बारे में है-

अल्लाह, फ़रिश्ते, शैतान

दुनिया के सारे धर्म प्रायः सारे पदार्थों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं, अर्थात जड़ और चेतन। चेतन के भी दो भेद हैं - ईश्वर, जीव। जीवों में ही फ़रिश्ते शैतान भी हैं।

अल्लाह

ईश्वर को ‘क़ुरान’ ने सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता माना है, जैसा कि उसके निम्न उद्धरणों से मालूम होगा -

  • “वह (ईश्वर) जिसने भूमि में जो कुछ है (सबको) तुम्हारे लिए बनाया।“[14]
  • “उसने सचमुच भूमि और आकाश बनाया। मनुष्य का क्षुद्र वीर्य – बिन्दु से बनाया। उसने पशु बनाए, जिनसे गर्म वस्त्र पाते तथा और भी अनेक प्रकार के लाभ उठाते हो, एवं उन्हें खाते हो।“[15]
  • “वह तुम्हारा ईश्वर चीजों का बनाने वाला है। उसके सिवाय कोई भी पूज्य नहीं है।“[16]
  • “ईश्वर सब चीजों का सृष्टा तथा अधिकारी है।“[17]
  • “निस्सन्देह ईश्वर भूमि और आकाश को धारण किए हुए है कि वह नष्ट न हो जाए।“[18]
  • “जो परमेश्वर मारता और जिलाता है।“[19]
  • ईश्वर बड़ा ही दयालु है, वह अपराधों को क्षमा कर देता है -

“निस्सन्देह तेरा ईश्वर मनुष्यों के लिए उनके अपराधों का क्षमा करने वाला है।“[20]

  • आस्तिकों पर ही नहीं, फ़रिश्तों पर भी—

“इस बात में (हे मुहम्मद !) तेरा कुछ नहीं, चाह वह (ईश्वर) उन (क़फ़िरों) को क्षमा करे या उन पर विपद डाले, यदि वह अत्याचारी है।“[21]

  • ईश्वर सत्य है -

“परमेश्वर सत्य है।“[22]

  • ईश्वर का न्यायकारी होना इस प्रकार से कहा गया है -

“क़यामत के दिन हम ठीक तौलेंगे, किसी जीव पर कुछ भी अन्याय नहीं किया जाएगा। चाहे वह एक सरसों के बराबर ही क्यों न हो, किन्तु हमारे पास में पूरा हिसाब रहेगा।“[23]

  • निम्न वाक्य के अनेक ईश्वरीय गुण बतलाए गए हैं -

“परमेश्वर जिसके सिवाय कोई भी ईश्वर नहीं है - जीवन और सत् है। उसे नींद या औंघ नहीं आती। जो कुछ भी भूमि और प्रकाश में है, वह उसी के लिए ही है। जो कि उसकी आज्ञा के बिना उसके पास सिफ़ारिश करे? वह जानता है, जो कुछ उनके आगे या पीछ है, वह कोई बात उससे छिपा नहीं सकते, सिवाय इसके कि जिसे वह चाहे विशाल भूमि और प्रकाश की कुर्सी, जिसकी रक्षा उसे नहीं थकाती वह उत्तम और महान है।“

[24]

  • परमेश्वर माता - पिता - स्त्री - पुत्रादि रहित है -

“न वह किसी से पैदा हुआ है, न उससे कोई पैदा है।“[25]

  • ईश्वर में मार्ग में खर्च करने का वर्णन इस प्रकार है -

“कौन है जो कि ईश्वर को अच्छा कर्ज़ दे, वह उसे कई गुना बढ़ाएगा।“[26]

“निस्सन्देह दाता स्त्री–पुरुषों ने परमेश्वर को अच्छा कर्ज़ दिया है, उनका वह दुगुना होगा, और उनके लिए (इसका) अच्छा बदला है।“[27]

फ़रिश्ता

जिस प्रकार पुराणों में परमेश्वर के बाद अनेक देवता भिन्न–भिन्न काम करने वाले माने जाते हैं, यमराज मृत्यु के अध्यक्ष, इन्द्र वृष्टि के अध्यक्ष इत्यादि, इसी प्रकार ‘इस्लाम’ ने फ़रिश्तों’ को माना है। पहले फ़रिश्तों के सम्बन्ध में क़ुरान में आए कुछ वाक्य देने पर इस पर विचार करना अच्छा होगा, इसलिए यहाँ वे वाक्य उदधृत किए जाते हैं- “जब हमें (परमेश्वर) ने फ़रिश्तों को (आदम के लिए) दण्डवत करने को कहा, तो सबने दण्डवत की, किन्तु इब्लीस ने इन्कार कर दिया, घमण्ड किया और (वह) नास्तिकों में से था।“[28] “जब हमने फ़रिश्तों को दण्डवत करने का कहा, तो इब्लीस के अतिरिक्त सभी ने किया। (इब्लीस) बोला - क्या मैं उसे दण्डवत करूँ जो मिट्टी से बना है।“[29] “जब हमने फ़रिश्तों को कहा - आदम को दण्डवत करो तो (उन्होंने) दण्डवत की, किन्तु इब्लीस, जो कि जिन्नों में से था - ने न किया।“[30]

ऊपर के वाक्यों में फ़रिश्तों का वर्णन आया है। भगवान ने आदम (मनुष्य के आदि पिता) को बनाकर उन्हें आदम को दण्डवत करने को कहा। सबने वैसा किया, किन्तु इब्लीस ने न किया। यह इब्लीस उस समय फ़रिश्तों में सबसे ऊपर (देवेन्द्र) था। तृतीय वाक्य में जो उसे ‘जिन्न’ कहा गया है, उससे ज्ञात होता है कि फ़रिश्ते और जिन्न एक ही हैं या जिन्न फ़रिश्तों के अंतर्गत ही कोई जाति है। इब्लीस ने यह कह कर आदम को दण्डवत करने से इन्कार किया कि वह मिट्टी से बना है। अतः मालूम पड़ता है कि उत्पत्ति किसी और अच्छे पदार्थ से हुई है। अन्यत्र इब्लीस के वाक्य ही से मालूम हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है। अपने भक्तों की रक्षा के लिए ईश्वर इन फ़रिश्तों को भेजते हैं।

शैतान

फ़रिश्तों के अतिरिक्त क़ुरान में एक प्रकार और भी अदृष्ट प्राणी कहे गए हैं, जो सब जगह आने–जाने में फ़रिश्तों के समान ही हैं; किन्तु वह शुभकर्म से हटाने और अशुभ कराने के लिए मनुष्यों को प्रेरणा देते रहते हैं। इन्हें शैतान कहते हैं। उनके लिए पापात्मा शब्द आता है। शैतानों में सबका सरदार वही इब्लीस है। शैतान के विषय में कहा गया है- यह केवल शैतान है, जो तुम्हें अपने दोस्तों से डराता है।[31] शैतान किस प्रकार मनुष्यों को अशुभ कर्म की ओर प्रेरित करता है, उसको इस वाक्य में कहा गया है- “शैतान उनके कर्मों को सँवार देता है तथा कहता है - अब कोई भी मनुष्य तुम्हें जीत नहीं सकता, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ, किन्तु जब दोनों पक्ष आमने–सामने आते हैं, तो वह मुँह मोड़ लेता है और कहता है - मैं तुमसे अलग हूँ, मैं निस्सन्देह देखता हूँ, जिसे तुम नहीं देखते, और परमेश्वर पाप का कठोर नाशक है।“[32]

इसलिए कहा है - “कह, मेरे शरण के प्रलोभनों में मैं तेरी शरण (आया) हूँ।“[33] काम कर चुकने पर शैतान क्या चाहता है, यह इस वाक्य में है - “काम समाप्त हो जाने पर शैतान ने कहा - निस्सन्देह तुमसे ईश्वर ने ठीक प्रतिज्ञा की थी और मैंने तुमसे प्रतिज्ञा की, फिर तोड़ दी मेरा तुम पर अधिकार नहीं, इसके सिवाय कि मैंने पुकारा और तुमने (मेरी बात) स्वीकार की। सो मुझे दोष मत दो, अपने आपको दोष दो। मैं न तुम्हारा सहायक हूँ और न तुम मेरे सहायक।“[34]

भेद

इस्लाम धर्म के पाँच भेद किये जाते हैं-

(i) नित्य वे आधारभूत हैं, जिन्हें हर रोज़ करना चाहिए। इस्लाम में निम्न पाँच कर्तव्यों को हर मुसलमान के लिए अनिवार्य बताया गया है-

  1. प्रतिदिन पाँच वक़्त (फ़जर, जुहर, असर, मगरिब, इशा) नमाज़ पढ़ना
  2. ज़रूरतमंदों को ज़कात (दान) देना
  3. रमज़ान के महीने में सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक रोज़ा रखना
  4. जीवन में कम से कम एक बार हज अर्थात मक्का स्थित काबा की यात्रा करना तथा
  5. इस्लाम की रक्षा के लिए ज़िहाद (धर्मयुद्ध) करना।

(ii) नैमित्तिक कर्म वे कर्म हैं, जिन्हें करने पर पुण्य होता है, परन्तु न करने से पाप नहीं होता।

(iii) काम्य वे कर्म हैं जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं।

(iv) असम्मत वे कर्म हैं जिनकों करने की धर्म सम्मति तो नहीं देता, किन्तु करने पर कर्ता को दण्डनीय भी नहीं ठहराता।

(v) निषिद्ध (हराम) कर्म वे हैं, जिन्हें करने की धर्म मनाही करता है और इसके कर्ता को दण्डनीय ठहराता है।

इस्लाम के सम्प्रदाय

इस्लाम में दो मुख्य सम्प्रदाय- शिया और सुन्नी मिलते हैं। मुहम्मद साहब की पुत्री फ़ातिमा और दामाद अली के बेटों हसन और हुसैन को पैगम्बर का उत्तराधिकारी मानने वाले मुसलमान 'शिया' कहलाते हैं। दूसरी ओर सुन्नी सम्प्रदाय ऐसा मानने से इन्कार करता है।

सलाम

मिलने जुलने आने जाने में सलाम का रिवाज़ है। सलाम करने वाला "अस्स्लामु अलैक़मु" कहता है जिसका अर्थ है तुम पर ख़ुदा की तरफ़ से सलामती हो, इसका जवाब है। "व अलेकुम अस्सलाम" अर्थात तुम पर सलामती हो।

यहूदी

यहूदी धर्म के महात्मा, इब्राहीम इशाक़, दाऊद, सुलेमान के भी माननीय महात्मा और रसूल है। अपने वंश के प्रति बड़े अभिमानी यहूदी लोग महात्मा के मदीना (यस्रिब्) आने पर पहले कुछ समय तक तो मुसलमानों के विरोधी न थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि हमारी प्रधानता अब घट रही है और मुहम्मद का प्रभाव अधिक बढ़ता जा रहा है, तो वह भी द्रोही हो गये। इस्लाम की शिक्षा का बहुत-सा भाग यहूदी और ईसाई धर्मों से लिया गया है। दोनों धर्मों के प्रति आरम्भ ही से महात्मा की बड़ी श्रद्धा थी। यहाँ तक कि ‘नमाज़’ भी पहले मुसलमान लोग उन्हीं पवित्र स्थान ‘योरुशिलम्’ की ओर मुँह करके पढ़ते आ रहे थे। जब यहूदियों ने शत्रुता करनी शुरू की तो महात्मा मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को ‘योरुशिलम्’ से मुँह हटाकर ‘काबा’ को अपना ‘किब्ला’ (सम्मुख का स्थान) बनाने की आज्ञा दी। यहूदियों के व्यवहार के विषय में कहा गया है- ‘यहुदियों में कुछ लोग ईश्वर-वाक्य (क़ुरान) को सुनते हैं। फिर जो कुछ उन्होंने जाना था, उसे बदल देते है और इसे वह जानते हैं।‘[35] ‘यहूदी वाक्य को उसके स्थान से बदल देते है’।[36]

मुनाफ़िक

मदीना आने पर जिन मूर्तिपूजकों ने इस्लाम-धर्म स्वीकार किया, उन्हें ‘अंसार’ कहा जाता है; इनमें बहुत से वंचक मुसलमान भी थे जिन्हें ‘मुनाफ़िक’ का नाम दिया गया है। इन्हीं के विषय में कहा गया है- ‘हम निर्णय-दिन (क़यामत) और भगवान पर विश्वास रखते हैं; ऐसा कहते हुए भी वह विश्वासी (मुसलमान) नहीं हैं। परमेश्वर और मुसलमानों को ठगते हुए वह अपने ही को ठगते हैं।‘[37]

विश्वासियों (मुसलमानों) के पास जब गये, तो कहा हम विश्वास रखते हैं; राक्षसों (नास्तिकों) के पास निकल जाते हैं तो कहते हैं-(मुसलमानों से) हँसी करते हैं, अन्यथा हम तो तुम्हारे साथ हैं।‘[38] “वह दोनों के बीच लटकते हैं, न इधर हैं, न उधर के।“[39] इसीलिए मरने पर- “निस्सहाय होकर (वह) नरक की अग्नि के सबसे निचले तल में रहेंगे।“[40]

काफ़िर

उस समय ‘अरब’ में मूर्तिपूजा का बहुत अधिक प्रचार था। क़ुरान में सबसे अधिक जोर से इसी का खण्डन किया गया है। महात्मा मुहम्मद ने जब यह सुना कि ‘काबा’ मन्दिर के निर्माता हमारे पूर्वज महात्मा ‘इब्राहीम’ थे, जो मूर्तिपूजक नहीं थे, तो उन्हें इस अपने काम में और बल-सा प्राप्त हुआ मालूम होने लगा। उनकी यह इच्छा अत्यन्त बलवती हो गई कि कब ‘काबा’ फिर मूर्तिरहित होगा। उन्होंने सच्चे देवता की पूजा का प्रचार और झूठे देवता की पूजा का खण्डन अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य रखकर बराबर अपने काम को जारी रखा। ‘अरब’ की काशी ‘मक्का’ में ‘कुरैशी’ पण्डों का बड़ा जोर था। यह लोग अपने अनुयायियों को कहते थे- ‘वद्द’, ‘सुबाअ’, ‘यगूस’, ‘नस्र’ अपने इष्टों को कभी न छोड़ना चाहिये।[41] ‘क़ुरान’ के उपदेश को वह लोग कहते थे- यह इस मुहम्मद की मन-गढ़न्त है।[42] ‘इसको कोई विदेशी सिखाता है।... हम अच्छी तरह जानते हैं, उस सिखाने वाले की भाषा अरबी से भिन्न है और यह अरबी।‘[43] वह लोग विश्वास के रसूल होने के बारे में कहते थे- वह लोग विश्वास नहीं करते जब तक वह भूमि से (जल का) सोता न निकाल दे या खजूर, अंगूर आदि का (ऐसा) बगीचा न उत्पन्न कर दे जिसमें कि नहर बहती हो। अथवा अपने कहे अनुसार आकाश को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर न गिरा दे। या देवदूतों को प्रतिभू (जामिन) के तौर पर न लावे। या अच्छा महल (इसके लिए) हो जाय। अथवा आकाश पर चढ़ जाय। किन्तु उसके चढ़ने पर भी हम विश्वास नहीं करेंगे जब तक हम लोगों के पढ़ने लायक़ कोई लेख न लाये।“[44]

शरीयत

इस्लाम में शरीयत का तात्पर्य धार्मिक विधिशास्त्र से है। वे क़ानून, जो क़ुरान शरीफ़ तथा हदीस के विवरणों पर आधारित होते हैं तथा इस्लाम के आचार-व्यवहार का पालन करते हैं, शरीयत के अन्तर्गत आते हैं। शरीयत के चार प्रमुख स्रोत हैं—

  • क़ुरान मज़ीद,
  • हदीस या सुन्नत,
  • इज्माअ तथा
  • किआस।

इन चारों को इस्लाम की आधार शिला भी माना जाता है।

क़ायनात, कर्मफल, जन्नत, दोज़ख़

यहाँ पर मनुष्य के कर्म और उसके परिपाक के साधन सृष्टि, स्वर्ग आदि का वर्णन किया जाता है। सृष्टि तो उसके सिरजनहार का अनुमान होता है, जैसे कार्य से उसके कारण का। व्यवस्था की विचित्रता, रचना की विचित्रता, सौन्दर्य आदि गुणों की अधिकता से जगत किसी असाधारण शिल्प चतुरता से पूर्ण शक्ति का बनाया हुआ है। कोई–कोई दार्शनिक सृष्टि को भ्रमात्मक कहकर परमार्थ में उसकी सत्ता के इन्कारी होते हैं, किन्तु क़ुरान ऐसे जगत के मिथ्या होने को स्वीकार नहीं करता। कहा है—

आकाश, पृथ्वी और जो कुछ उनके मध्य में है, इन सबको मिथ्या नहीं, एक निर्दिष्ट उद्देश्य से उत्पन्न किया गया है।[45]

संसार की तुच्छता का वर्णन उसकी अस्थिरता के कारण है। संसार में ही स्वार्गादि स्थान नित्य हैं, इसलिए उनका प्रलोभन सत्कर्मियों को स्थान–स्थान पर दिया गया है। संसार और संसार की वस्तुएँ ईश्वर की अनुग्रह की इच्छा का निदर्शन (नमूना) भूत है। इसीलिए बहुत जगह ईश्वर की कृतज्ञता के भार से नम्र होने का उपदेश किया गया है।

क़ायनात

“क्यों नहीं परमात्मा पर विश्वास करते, तुम मृतक थे, फिर उसने तुम्हें जिलाया, और फिर मारता है, तदनन्तर जिलायेगा, अन्त में उसके पास ही जाओगे। वह जिसने तुम्हें और जो कुछ पृथ्वी में है, सबको उत्पन्न किया, फिर आकाश पर चढ़ा और उसे सात आकाशों में विभक्त किया। वह निस्सन्देह सब वस्तुओं का ज्ञाता है।“[46]

  • पुनश्च -

“वह जिसने तुम्हारे लिए नक्षत्रों का निर्माण किया कि जिससे जंगल, समुद्र और अन्धकार में रास्ता पावें।....वह जो आकाश से जल गिरता है। फिर उससे सारी उदिभद्यमान वस्तुएँ निकलीं। उससे मैं (प्रभु) ने वनस्पति निकाली, फिर उससे संयुक्त फलों को उत्पन्न करता हूँ, कितने ही खजूर की बाल में लटकते हैं, अनुपम और सोपम अँगूर, अनार और जैतून के उद्यान। जब वह फलते और पकते हैं तो उनके फलों को दखो। इसमें ही विश्वासी जातियों के लिए प्रमाण् हैं।“[47]

  • अपरञ्च—

“क्या तू नहीं देखता, परमेश्वर ही ने जल उतारा, फिर उससे अनेक प्रकार के फल और पर्वतों में श्वेत, रक्त, अति कृष्ण आदि अनेक वर्ण की उपत्यका उत्पन्न हुई। कीड़े, पशु और मनुष्यों में बहुत प्रकार के वर्ण वाले प्राणी हैं। इस प्रकार के ज्ञान वाले भगवान से डरते हैं। परमेश्वर निस्सन्देह क्षमाशील और बलिष्ठ है।“[48] ईश्वर की कृपा कटाक्ष द्वारा मनुष्यों का कोटि–कोटि उपकार हो रहा है, इसलिए उससे कृतध्न होना ठीक नहीं।

  • क़ुरान में वर्णित जगत की उत्पत्ति, उसके दो शब्दों के अर्थ से भली प्रकार विदित हो सकती है। वह है—‘क़ुनु फ़–यकुन’ (हो, फिर होता है)। भगवान ने कहा—हो, फिर यह जगत हो जाता है। उपादान आदि कारणों का कोई झगड़ा नहीं है। सर्वशक्तिमान होने से उसने बिना उपादान कारण ही के जगत बना डाला। इस प्रकार असद से सद की उत्पत्ति ही क़ुरान प्रतिपादित सृष्टि है। यहूदी और ईसाई धर्म में भी यही सृष्टि–विषयक सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। उनके विचार में, यदि दूसरे प्रकार से माना जाए तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं रह सकता। किसी को सन्देह हो कि क्या जाने अभिन्न निमित्तोपादानता (वह निमित्त और वही उपादान कारण है) को स्वीकार करते हों। किन्तु इस बात को इस वाक्य ने ही स्पष्ट कर दिया, जिसमें कहा है—‘न वह उत्पादक है और न वह उत्पन्न हुआ है।‘ यहाँ उपादान कारण से जगत उत्पन्न करने में भगवान की उत्पादकता का निषेध है। न कि बिना उपादान ही असत से। उनका कहना है, यदि स्वयं उपादान कारण है तो निर्विकार नहीं रह सकता, यदि उसे अन्य उपादान कारण की अपेक्षा है तो सर्वशक्तिमान नहीं रहता। जहाँ–तहाँ सृष्टि विषय को यहाँ संक्षेप में उद्धृत किया जाता है।

जन्नत

मनुष्य का यह जन्म सर्वप्रथम और अन्तिम है। इस जन्म में फलभोग सम्भव नहीं। मरने पर पुण्यात्मा स्वर्ग को, पापी नर्क को, किसी–किसी के मत में दोनों की समानता वाला ‘एराफ़’ (इअराफ़) को जाता है। जैसे वहाँ नन्दकानन को सौन्दर्य की खान अप्सराएँ अलंकृत करती हैं, वैसे ही यहाँ भी ‘जन्नत’ के उद्यान को शोभा–राशि ‘हूर’ आनन्दमय बनाती है। ‘क़ुरान’ में विश्वासियों (मुसलमानों) को उनके शुभ कर्म के फलस्वरूप स्वर्ग का अत्यधिक वर्णन है। उनमें से थोड़ा–सा यहाँ पर उदधृत किया जाता है—

  • “शुभ कर्म करने वाले विश्वासियों को शुभ–सन्देश सुना—उनके लिए उद्यान (बाग़) हैं, उससे नीचे नहरें बहती हैं, सारे अच्छे फल वहाँ लाए गए हैं। (स्वर्ग वाले) उन लोगों को जैसा कि पहले (कहा गया था), वैसा ही यह उपहार दिया है। उसमें उनके लिए सुन्दर (स्त्रियाँ हैं) और वह (पुण्यात्ला लोग) सर्वदा वहाँ के निवासी होंगे।“[49]
  • “उस दिन स्वर्ग वाले कार्य में आसक्त संलाप करते हैं। वह और उनकी स्त्रियाँ छाया में तकिया लगाए तख्तों पर बैठी होंगी, वहाँ उनके लिए अच्छे फल और जो कुछ वह चाहते हैं (वर्तमान होगा)।“[50]

दोज़ख़

उपर्युक्त वाक्यों से क़ुरान–प्रतिपादित स्वर्ग का अनुमान हो सकता है। किन्हीं–किन्हीं आधुनिक व्याख्याताओं का मत है कि यह सब वाक्य–जार्डन आदि नदियों से सुसिचित ‘यमन’ आदि प्रदेशों पर मुसलमानी विजय के लिए भविष्यवाणी है, किन्तु यह मत न प्राचीन भाष्यकारों द्वारा अनुमोदित है और न यह सारे सामान वहाँ के लिए घटित होते हैं। वह बीसवीं शताब्दी के अनुकूल इसे बनाना चाहते हैं, किन्तु ऐसी भविष्यवाणी ही पर कहाँ बीसवीं शताब्दी विश्वास करती है। अस्तु कुछ थोड़े से नवीन विचार वालों को छोड़कर सारा इस्लामी संसार उपर्युक्त प्रकार का ही स्वर्ग मानता है। स्वर्ग ऐसी अदृष्ट वस्तु वस्तुतः कल्पना की सीमा के बाहर की है, उसमें ईश्वरीय आदेश ही प्रमाणभूत है।

कर्मकाण्ड

रोज़ा

"हे विश्वासियों (मुसलमानों) ! पूर्वजों के समान तुम पर भी कुछ दिनों के लिए उपवास (रखने का विधान) लिखा गया है, जिससे कि तुम संयमी बनो। फिर जो कोई तुममें से रोगी हो या यात्रा में हो, तो वह बदले में एक ग़रीब को भोजन देवे। जो खुशी से शुभ कर्म करो तो वह लमंग है, और यदि उपवास करो तो तुम्हारे लिए शुभ हैं, यदि तुम जानते हो।

रमज़ान का मास पवित्र है, जिनमें स्पष्ट, मार्गप्रदर्शक, मानवशिक्षक (सत्यासत्य) विभाजक, क़ुरान उतारा गयां इसलिए तुममें से जो कोई रमज़ान महीने को प्राप्त हो, उपवास करे।[51]

नमाज़

नमाज़ (सलात् प्रार्थना)—प्रत्येक मुसलमान का नित्य कर्म है जिसका न करने वाला पापभोगी होता है। कहा है—

सलात् और मध्य सलात् के लिए सावधान रहो। नम्रतापूर्वक परमेश्वर के लिए खड़े हो। यदि ख़तरे में हो तो पैदल या सवार ही (उसे पूरा कर लो) पुनः जब शान्त हो.....तो प्रभु को स्मरण करो।[52]

'नमाज़ का स्थान इस्लाम में वही है जो हिन्दू धर्म में संध्या या ब्रह्म–यज्ञ का। यद्यपि क़ुरान में 'पंचगाना' या पाँच वक़्त की नमाज़ का वर्णन कहीं पर भी नहीं आया है। वह एक प्रकार से सर्वमान्य है। पंचगाना नमाज़ है—

  1. 'सलातुल्फज़' (प्रातः प्रार्थना) यह उषाकाल ही में करना पड़ती है।
  2. 'सलातु–ज्जोहन' (मध्याह्नोत्तर तृतीय पहरारम्भिक प्रार्थना)—यह दोपहर के बाद तीसरे पहर के प्रारम्भ में होती है।
  3. 'सलातुल्–अस्र। (मध्याह्नोत्तर चतुर्थ पहरारम्भिक प्रार्थना)—यह चौथे पहर के आरम्भ में होती है।
  4. 'मलातुल्—मग्रिब' (सान्ध्य प्रार्थना)—यह सूर्यास्त् के बाद तुरन्त होती है।
  5. 'सलातुल्—इशा' (रात्रि प्रथमयाम प्रार्थना)—रात्रि में पहले पहर के अन्त में होती है।

क़ाबा

जैसे उच्च भाव और ईश्वर के प्रति प्रेम नमाज़ (=नमस्) की उपर्युक्त प्रार्थनाओं में वर्णित है, पाठक उस पर स्वयं विचार कर सकते हैं। सांधिक नमाज़ का इस्लाम में बड़ा मान है। वस्तुतः वह संघशक्ति को बढ़ाने वाला भी है। सहस्रों एशिया, योरप और अफ़्रीका निवासी मुसलमान जिस समय एक ही स्वर, एक ही भाषा और एक भाव से प्रेरित हो ईश्वर के चरणार्विन्द में अपनी भक्ति पुष्पाजंलि अर्पण करने के लिए एकत्र होते हैं, तो कैसा आनन्दमय दृश्य होता है। उस समय की समानता का क्या कहना। एक ही पंक्ति में दरिद्र और बादशाह दोनों खड़े होकर बता देते हैं कि ईश्वर के सामने सब ही बराबर हैं। इस्लाम के चार धर्म–स्कन्धों में 'हज्ज़' या 'क़ाबा' यात्रा भी एक है। 'क़ाबा' अरब का प्राचीन मन्दिर है। जो मक्का शहर में है। विक्रम की प्रथम शताब्दी के आरम्भ में रोमक इतिहास लेखक 'द्यौद्रस् सलस्' लिखता है—

यहाँ इस देश में एक मन्दिर है, जो अरबों का अत्यन्त पूजनीय है।

महात्मा मुहम्मद के जन्म से प्रायः 600 वर्ष पूर्व ही इस मन्दिर की इतनी ख्याति थी कि 'सिरिया, अराक' आदि प्रदेशों से सहस्रों यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थ वहाँ पर जाया करते थे। पुराणों में भी शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मक्का के महादेव का नाम आता है। ह. ज्रु ल्–अस्वद् (=कृष्ण पाषाण) इन सब विचारों का केन्द्र प्रतीत होता है। यह क़ाबा दीवार में लगा हुआ है। आज भी उस पर चुम्बा देना प्रत्येक 'हाज़ी' (मक्कायात्री) का कर्तव्य है। यद्यपि क़ुरान में इसका विधान नहीं, किन्तु पुराण के समान माननीय 'हदीस' ग्रन्थों में उसे भूमक नर भगवान का दाहिना हाथ कहा गया है। यही मक्केश्वरनाथ है। जो क़ाबा की सभी मूर्तियों के तोड़े जाने पर भी स्वयं ज्यों का त्यों विद्यमान है। इतना ही नहीं, बल्कि इनका जादू मुसलमानों पर भी चले बिना नहीं रहा और वह पत्थर को बोसा देना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं, यद्यपि अन्य स्थानों पर मूर्तिपूजा के घोर विरोधी हैं। इस पवित्र मन्दिर के विषय में क़ुरान में आया है—

निस्सन्देह पहला घर मक्का में स्थापित किया गया, जो कि धन्य है तथा ज्ञानियों के लिए उपदेश है।[53]

महाप्रभु ने मनुष्य के लिए पवित्र गृह 'कअबा' बनाया।[54]

क़ुर्बानी

'क़ुरान' के अनुसार काल तथा अन्य पर्वों में 'हज्ज़' विदित है। इस्लाम की क़ुर्बानी कोई नयी चीज़ नहीं है। इष्टों और देवताओं को पशु का बलिदान करना बहुत पुराने समय से चला आता है। विक्रमपर्व अष्टम शताब्दी में, 'तिग्लतपेशर्' और 'शल्मेशर', 'असुर' राजाओं के इष्ट 'सक्कथ–वेनथ' बवेरु (बाबुल) नगर के विशाल मन्दिर में बैठे बलि ग्रहण करते थे। 'नर्गल', 'अशिम', 'निमज', 'तर्तक', 'अद्रम्लेश', 'अम्लेश', 'नाशरश', 'देगन' आदि देव–समुदाय विक्रम से अनेक शताब्दियाँ पूर्व आधुनिक लघु एशिया के पुराने नगरों 'कथ', 'ड्रामा', 'अलित', 'सफर्वेम' में रहते हुए बलि ग्रहण करते थे। मूर्ति पूजक समुदाय तो प्रायः सारा हि इस पशुबलि–क्रिया में अत्यन्त श्रृद्धालु देखा जाता है। किन्तु अमूर्ति पूजक धर्म भी इससे विंचित नहीं रहा। यहूदियों की भव्य वेदियाँ सदा पशु–रक्त से रंजित रहती रही हैं। उनकी शुष्क और दग्ध बलियाँ 'बाइबिल' पढ़ने वालों को अविदित नहीं। इस्लाम ने अधिकांश यहूदी सिद्धान्तों को ज्यों का त्यों या कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण कर लिया। बलि का सिद्धान्त भी उसी प्रकार यहूदी धर्म से लिया गया है। यहाँ पर दोनों की बलि के विषय में समता दिखाने के लिए 'तौरेत' और 'क़ुरान' दोनों से कुछ वाक्य उदधृत किए जाते हैं—

“That will offer his oblation for all his vows or for all his freewill offerings, which they will offer unto the lord for a burnt offering. Ye shall offer at your own will a male without blemish, of the beeves, of the sheep, or of the goats. Blind or broken or maimed, or having a wen, scurvy or scubbed, ye shall not offer these unto the lord, nor make an offering by fire of them upon the altar unto the lord…Ye shall not offer unto the lord, that which is bruised, or crushed, or broken or cut”[55].

"जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि परमेश्वर तुमको आज्ञा देता है कि एक गौ बलि चढ़ाओ...(वह) बोले—अपने ईश्वर से हमारे लिए पूछ कि हमें बतावे—वह कैसी हो। कहा—(ईश्वर) आज्ञा देता है कि वह गौ न वृद्धा और न ही ब्याई हो, दोनों के बीच की हो। सो जिसके लिए आज्ञा दी गई, उसके करो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, उसका रंग कैसा हो। बोला—वह (ईश्वर) कहता है, पीला चमकीला रंग जो देखने वाले को पसन्द हो। बोले—अपने ईश्वर से पूछ, किस प्रकार की गाय हो। बोला—कहता है, ऐसी गौ नहीं, जो कि परिश्रम करने वाली, खेत जोतती या खेत सींचती है। जो पूरे अंग वाली बेदाग़ हों।"[56]

पर्दा

पहले वाक्य में तो चादर ढाँकने का अभिप्राय मुसलमान जानी जाने, तथा न सतायी जाने के लिए कहा गया है। दूसरे वाक्य में भी सौन्दर्य को दिखाने से रोकने का अभिप्राय बोराबन्दी लेना अन्याय है। स्पष्ट अर्थ तो यह है कि जैसे पाश्चात्य स्त्री समाज में सौन्दर्य दिखलाने का रोग यहाँ तक लग गया है कि जाड़े–पाले में भी, आधा वक्षस्थल नंगा ही रखती हैं। कहीं वही बात स्त्रियों में न घुसने लगे। दरअसल इस प्रकार की बीमारी स्त्री–पुरुष दोनों समाजों में भी किसी प्रकार से आना ठीक नहीं है। कहावत है कि 'शैतान भी अपने मतलब को सिद्ध करने के लिए शास्त्र की दुहाई देता है', उसी प्रकार यह मुसलमान पतियों का सरासर अन्याय है, जो कि क़ुरान में लिखे पर्दा ही पर सन्तोष न कर उन्होंने स्त्रियों को सात संगीन पर्दे में बंद रखा है। क़ुरान ने तो विशेष श्रृगार आदि के न दिखाई देने के लिए कुछ विशेष अंगों को ढाँकने के लिए कहा, किन्तु यहाँ लोगों ने सारे बदन को ही ढाँकने पर बस न की, ऊपर से सात तालों के अन्दर भी उन्हें बन्द करना उचित समझा। यह केवल मुसलमान पुरुषों की ही बात नहीं, सच कहते हैं 'गुरु तो गुरु ही रह गए, चेला चीनी हो गया।' हिन्दुओं के पुरुषों ने कभी न सुना होगा कि पर्दा–प्रथा किस चिड़िया का नाम है। आज भी महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मालाबार इत्यादि आधे से अधिक भारतवर्ष के हिन्दू पर्दा को नहीं जानते। किन्तु जिस प्रकार आज अंग्रेज़ी राज्य में बहुत से अंग्रेज़ों का खान–पान, रहन–सहन गौरवपूर्ण समझ हिन्दुओं ने मुसलमानों की इस रीति को अपनाकर उसने और तरक्की की। पहले–पहल इन रीतियों को धनिकों और बड़े आदमी कहे जाने वाले लोगों ने लिया, पीछे बड़े आदमी बनने की इच्छा वाले सभी लोगों ने अपनी स्त्रियों पर इस नये दण्ड–विधान का प्रयोग आरम्भ कर दिया। शरीर में कोमलता की वृद्धि के लिए राजदाराओं को 'असूर्यपश्या' तो देखा गया है, किन्तु 'अचन्द्रपश्या' होने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हुआ है। 'इहैवास्तं मा वियौष्ठम्' (दोनों यहाँ ही रहो, मत अलग हो) इस विवाह–सम्बन्धी वेदमंत्र में स्पष्ट विवाहित जोड़े को अलग होने का निषेध किया है। इस प्रकार अर्थ (हिन्दू) धर्म विवाह सम्बन्ध को अखंडनीय मानता है। किन्तु कई धर्म विशेष स्थिति में विवाह सम्बन्ध त्याग या 'तलाक़' की अनुमति देते हैं। क़ुरान कहता है— जो अपनी स्त्रियों से (तलाक़ की) शपथ खा लेते हैं, उनके लिए चार मास की अवधि है। (इसी बीच में) यदि मेल कर लें तो ईश्वर क्षमाशील और कृपालु है। यदि 'तलाक़' का निश्चय कर लिया, तो भगवान (उसका) सुनने वाला और जानने वाला है। 'तलाक़' दी गई स्त्रियाँ तीन ऋतुकाल तक प्रतीक्षा करें; उनके योग्य नहीं की जो ईश्वर ने उनके उदर में उत्पन्न किया, उसे छिपा रखें....उनके पतियों को भी इतने दिन तक उन्हें फिर से ले लेने का अधिकार है, यदि सुधार चाहें। स्त्रियों को भी न्यायनुसार वैसा अधिकार है, किन्तु पुरुषों का उन पर दर्जा है।[57]

यद्यपि यहाँ पर कुछ शर्तों के साथ तलाक़ की अनुमति दे दी गई है। किन्तु तो भी इसे अच्छा नहीं माना गया है। यह महात्मा मुहम्मद के इस वचन से भी प्रकट होता है

मूर्तिपूजा खण्डन

मनुष्य जिसे शुभ कर्म समझता है, करता–कराता है और जिसे अशुभ, उसे न कराने और न करने देने का प्रयत्न करता है। ऊपर शुभ कर्मों का वर्णन किया जा चुका है। अशुभ कर्मों में 'क़ुरान' मूर्ति–पूजा को भी परिगणित करता है। अतः उसके विषय में यहाँ पर कुछ वर्णन कर देना आवश्यक प्रतीत होता है।

विक्रम से कई शताब्दियों पूर्व मिस्र, असुर, अल्दान, फ़िलिस्तीन, मीडिया, यवन, रोम आदि देशों में अनेक देवी–देवों की मूर्तियों की पूजा की जाती है। अरब में भी ऐसे अनेक देवालय थे जिनमें मक्का का 'क़ाबा' सर्वश्रेष्ठ था।

'तदद', 'सुबाअ', 'यगूस', 'यऊक', 'नस्र'[58] तथा 'हुब्ल', 'मनात', 'उज्जा' आदि कितनी ही देव–प्रतिमाओं का नाम क़ुरान में भी आया है। 'कल्ब', 'हम्दान', 'मज्हाज', 'मुदर' और 'हमयान' जातियों के क्रमशः नराकृति 'वदद', रत्र्याकृति 'सुबाअ', सिंहाकृति 'यग़ूस', अश्वाकृति 'यऊक' और श्येनाकृति 'नस्र' इष्ट थे। 'क़ाबा' की प्रधान देव–प्रतिमा 'हुब्ल' को (अकाल के समय वर्षा करती है—सुनकर) 'अम्रू' ने सिरिया के 'बल्का' नगर से लाकर क़ाबा में स्थापित किया। इस समय के अरब निवासियों में इन मूर्तियों का बड़ा प्रभाव था। जिस समय मक्का–विजय होने पर मुहम्मद ने मुसलमानों को क़ाबा की मूर्तियों को तोड़ने को कहा, तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। इस पर स्वयं अली ने इस काम को किया।

सदाचार

  • क़ुरान के अनुसार कृपणता भी एक अपराध है। एक जगह कहा है—

जो कृपणता करते हैं और दूसरे को भी वैसा ही करने के लिए सिखाते हैं, जो कुछ भगवान ने अपनी कृपा से दिया, उसे छिपा रखते हैं, ऐसे नास्तिकों के लिए महायातना तैयार की गई है।[59]

  • किन्तु साथ ही अपव्ययता के बारे में भी कहा है—

'अल्लाहु ला याहिब्बुल्मुस्रिफीन्'[60] (भगवान फ़जुल–ख़र्चों पर खुश नहीं रहता)।

  • विस्तार भय से अधिन न लिखकर दो–तीन क़ुरान के आचार सम्बन्धी उपदेश उदधृत किए जाते हैं—
  1. "शुभ कार्य कर और क्षमा माँग ले, अज्ञानियों से उपेक्षा कर।"[61]
  2. "जो अपने ऊपर किए गए अन्याय का बदला लेवे, उसके लिए कुछ कहना नहीं। कहना तो उन पर है जा लोगों पर अन्याय करते हैं और दुनिया में व्यर्थ (धर्मात्मा होने) की धूम मचाते हैं। उन्हीं के लिए घोर यातना है। जो क्षमा और सन्तोष करे, तो (उसका) यह (काम) निस्सन्देह अत्यन्त साहस का है।"[62]
  3. "तुम्हारी सन्तान....हमारे (ईश्वर के) समीप तुम्हें दर्जा नहीं दिला सकती है। हाँ, जो श्रृद्धालु और अच्छा काम करने वाले हैं, उनके लिए फल दूना है।"[63]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस्लाम का इतिहास (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010
  2. ‘अलल्-हुब्ल’
  3. प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘रकूअ’ और प्रत्येक ‘रकूअ’ में अनेक ‘आयते’ होती हैं।
  4. (72:2:4)
  5. (33:3:1)
  6. (33:5:6)
  7. कुरआन नूर की हिदायत (हिन्दी) (एच टी एम) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010
  8. (56 : 3 : 3-5)
  9. (53 : 1 : 3-5)
  10. (59 : 3 : 4)
  11. (2:22:1)
  12. (7:13:3)
  13. (7:22:5)
  14. (क़ुरान 2:4:9)
  15. (क़ुरान 16:1:2-5)
  16. (क़ुरान 4:7:2)
  17. (क़ुरान 39:6:10)
  18. (क़ुरान 35:5:4)
  19. (क़ुरान 53:3:12)
  20. (क़ुरान 13:1:6)
  21. (क़ुरान 3:13:8)
  22. (क़ुरान 31:3:11)
  23. (क़ुरान 21:4:6)
  24. (क़ुरान 2:34:2)
  25. (क़ुरान 112:1:3)
  26. (क़ुरान 2:32:3) (क़ुरान 57:2:1)
  27. (क़ुरान 57:2:8)
  28. (क़ुरान 2:4:5) (क़ुरान 20:7:1)
  29. (क़ुरान 17:7:1)
  30. (क़ुरान 20:116)
  31. (क़ुरान 3:18:4)
  32. (क़ुरान 8:6:4)
  33. (क़ुरान 26:6:5)
  34. (क़ुरान 15:2:1-3)
  35. (2:9:4)
  36. (4:7:4)
  37. (क़ुरान 2:2:1,2)
  38. (क़ुरान 2:2:7)
  39. (क़ुरान 3:21:2)
  40. (क़ुरान 3:21:4)
  41. (क़ुरान 71:1:23)
  42. (क़ुरान 11:3:11)
  43. (क़ुरान 16:14:3)
  44. (क़ुरान 17:10:7,10)
  45. (46:1:3), (42:2:9), (45:3:1)
  46. (क़ुरान 2:3:8-9)
  47. (6:12:3:5)
  48. (35:4:1,2)
  49. (2:3:5)
  50. (36:4:5-7)
  51. (2:23:1-3)
  52. (3:32:3-4)
  53. (5:13:4)
  54. (5:13:4)
  55. Leviticus 22: 20-24
  56. (2:8:6-9)
  57. (2:28:5-7)
  58. (72:2:3)
  59. (4:6:4)
  60. (7:3:6)
  61. (7:24:11)
  62. (52:4:12-14)
  63. (34:5:1)

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