उग्रसेन

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Disamb2.jpg उग्रसेन एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- उग्रसेन (बहुविकल्पी)
संक्षिप्त परिचय
उग्रसेन
'उग्रसेन' मथुरा के ख्यातिप्राप्त राजा थे। कंस इनका ज्येष्ठ पुत्र तथा देवकी भतीजी थी।
वंश-गोत्र यदुवंशीय (कुकुरवंशी)
पिता राजा आहुक
माता काश्या
परिजन राजा आहुक, काश्या, देवक, कंस
शासन-राज्य मथुरा
अन्य विवरण जब जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया था, तब उग्रसेन उत्तरीय प्रवेश द्वार की रक्षा करते थे।
संबंधित लेख देवक, देवकी, कंस, श्रीकृष्ण, मथुरा
अन्य जानकारी उग्रसेन यादव सभा के सदस्य थे। वायु ने इन्द्र के यहाँ से लाकर इन्हें 'सुधर्मा सभा' दी थी।

उग्रसेन मथुरा के राजा थे। महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। कंस इन्हीं का पुत्र था, जिसने अपने पिता उग्रसेन को बलपूर्वक राजगद्दी से हटा दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा था। जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब उसकी अंत्येष्टि के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पुन: उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर बैठा दिया।[1] उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किये। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे।

परिचय

उग्रसेन यदुवंशीय (कुकुरवंशी) राजा आहुक के पुत्र तथा कंस आदि नौ पुत्रों के पिता थे। उनकी माता काशीराज की पुत्री काश्या थीं, जिनके देवक और उग्रसेन दो पुत्र थे। उग्रसेन के नव पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं।[2] कंस इनका क्षेत्रज पुत्र था और भाइयों में सबसे बड़ा था। इनकी पाँचों पुत्रियाँ वसुदेव के छोटे भाइयों की ब्याही गई थीं।[3]

पुत्र कंस का आसुरी स्वभाव

विधि का विधान ही कुछ विचित्र है। अनेक बार हिरण्यकशिपु, जैसे देवता, धर्म तथा ईश्वरविरोधी असुर-सदृश लोगों के कुल में प्रह्लाद-जैसे भगवद्भक्त उत्पन्न होत हैं और अनेक बार ठीक इससे उल्टी बात हो जाती है। उग्रसेन का पुत्र कंस बचपन में क्रूर था। धर्म के प्रति सदा से उसकी उपेक्षा थी। असुरों तथा आसुरी प्रकृति के लोगों से ही उसकी मित्रता थी। इतना होने पर भी कंस बलवान था, तेजस्वी था और शूर था। उसने दिग्विजय की थी। महाराज उग्रसेन अपने पुत्र की धर्मविरोधी रुचि से बहुत-दुःखी रहते थे; किंतु कंस पिता की सुनता ही नहीं था। सेना पर उसी का प्रभुत्व था। महाराज विवश थे।

जब कंस ने वसुदेव-देवकी को बन्दीगृह में डाल दिया, तब महाराज उग्रसेन बहुत असंतुष्ट हुए। इसका परिणाम उल्टा ही निकला। दुरात्मा कंस ने अपने पिता उग्रसेन को ही कारागार में बंद कर दिया और स्वयं राजा बन बैठा। धन और पद के लोभ से नीच पुरुष माता-पिता, भाई-मित्र तथा गुरु का भी अपमान करते नहीं हिचकते। वे इनकी हत्या कर डालते हैं। नश्वर शरीर में मोहवश आसक्त होकर मनुष्य नाना प्रकार के ताप करता है। कंस भी शरीर के मोह तथा अहंकार से अंधा हो गया था।

पुन: मथुरापति

कारागार में महाराज उग्रसेन को संतोष ही हुआ, उन्होंने सोचा- "भगवान ने कृपा करके पापी पुत्र के दुष्कर्मो का भागी होने से मुझको बचा दिया।" वे अपना सारा समय भगवान के चिन्तन में बिताने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र ने कंस को पछाड़ कर परमधाम भेज दिया और महाराज उग्रसेन को कारागार से छुड़ाया और उन्हें पुन: मथुरा का राजा बनाया। उग्रसेन जी की इच्छा राज्य करने की नहीं थी; किंतु श्रीकृष्ण के आग्रह को वे टाल नहीं सकते थे। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "महाराज ! मैं आपका सेवक होकर आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। देवता तक आपकी आज्ञा को स्वीकार करेंगे।"

द्वारका का ऐश्वर्य अकल्पनीय था। देवराज इन्द्र भी महाराज के चरणों में प्रणाम करते थे। त्रिभुवन के स्वामी मधुसूदन जिनको प्रणाम करें, जिनसे आज्ञा मांगें, उनसे श्रेष्ठ और कौन हो सकता हैं? परन्तु कभी भी महाराज उग्रसेन को अपने प्रभाव, ऐश्वर्य या सम्पति का गर्व नहीं आया। वे तो श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही सिंहासन पर बैठते थे। अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को ही उन्होंने बता लिया था। श्रीकृष्ण की इच्छा पूर्ण हो, वे केशव संतुष्ट रहें, इसी के लिये उग्रसेन जी के सब कार्य होते थे।

श्रीकृष्ण का सान्निध्य

महाराज उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किए थे। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे। इस प्रकार निरन्तर श्रीकृष्ण के सान्निध्य में, उन कमल लोचन का ध्यान करते हुए महाराज का जीवन बीता जब जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया था, तब उग्रसेन उत्तरीय प्रवेश द्वार की रक्षा करते थे। उग्रसेन यादव सभा के सदस्य थे। वायु ने इन्द्र के यहाँ से लाकर इन्हें 'सुधर्मा सभा' दी थी।[4] तीर्थाटन करके लौटे बलराम का इन्होंने स्वागत किया था। हरिप्रयाण के बाद अग्नि प्रवेश कर उग्रसेन की मृत्यु हुई थी।[5]


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संबंधित लेख

  1. भागवत पुराण 10.45.12; विष्णुपुराण 5.21.9-12
  2. मत्स्यपुराण 44.75
  3. भागवत पुराण 9.24.21, 24-5, 10.1.30
  4. विष्णुपुराण 5.21.13-17,32
  5. विष्णुपुराण 5.38.4