कंधार

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कंधार अफ़ग़ानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। सामरिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत से अफ़ग़ानिस्तान जाने वाली रेलवे लाइन यहीं पर समाप्त होती है। यह नगर महत्वपूर्ण मंडी भी है। पूर्व से पश्चिम को स्थलमार्ग से होने वाला अधिकांश व्यापार यहीं पर से होता है। कंधार में सोतों के पानी से सिंचाई की अनोखी व्यवस्था है। जगह-जगह कुएँ खोदकर उनको सुरंग से मिला दिया गया है।

इतिहास

कंधार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पाँचवीं शताब्दी ई॰ पू॰ में यह फ़ारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग 326 ई॰ पू॰ में मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष के बाद सेल्यूकस ने इसे चन्द्रगुप्त मौर्य को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। उसका एक शिलालेख हाल में इस नगर के निकट से मिला है। मौर्य वंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा। दशवी शताब्दी में यह अफ़ग़ानों के क़ब्ज़े में आ गया और मुस्लिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज ख़ाँ तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अधिकार कर लिया।

1507 ई0 में इसे बाबर ने जीत लिया और 1625 ई0 तक दिल्ली के मुग़ल बादशाह के क़ब्ज़े में रहा। 1625 ई0 में फ़ारस के शाह अब्बास ने इस पर दख़ल कर लिया। शाहजहाँ और औरंगज़ेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के सारे प्रयास विफल हुए। कंधार थोड़े समय (1708-37 ई0) को छोड़कर 1747 ई0 में नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फ़ारस के क़ब्ज़े में रहा। 1747 ई0 में अहमदशाह अब्दाली ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ इस पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु उसके पौत्र जमानशाह की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंधार काबुल से अलग हो गया। 1839 ई0 में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाहशुजा की ओर से युद्ध करते हुए इस पर दखल कर लिया और 1842 ई0 तक अपने क़ब्ज़े में रखा। ब्रिटिश सेना ने 1879 ई0 में इस पर फिर से दखल कर लिया, किन्तु 1881 ई0 में खाली कर देना पड़ा। तब से यह अफ़ग़ानिस्तान राज्य का एक भाग है।


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