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कालिय नाग

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कालिय के फन पर नृत्य करते श्रीकृष्ण

कालिय नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था। वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में कुण्ड में आकर रहने लगा था। यमुनाजी का यह कुण्ड गरुड़ के लिए अगम्य था, क्योंकि इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा डाला था, इसीलिए महर्षि सौभरि ने गरुड़ को शाप दिया था कि- "यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे"। कालिय नाग यह बात जानता था, इसीलिए वह यमुना के उक्त कुण्ड में रहने आ गया था।

कथाएँ

  • कद्रु का पन्नग जाति का नागराज कालिय रमण द्वीप में रहता था। गरुड़[1] उसे न सताएँ, इसलिए कालिय प्रतिमास उनका भोजन उन्हें भेज दिया करता था। एक बार वह स्वयं गरुड़ का भक्ष खा गया। इससे कुपित गरुड़ ने कालिय पर आक्रमण कर दिया। भयभीत कालिय नंदगांव के पास यमुना में जाकर छिप गया और अपने प्राण बचाये। उसके विष से यमुना का जल ज़हरीला हो गया। उसे पीकर गाय और गोप मरने लगे। एक बार जब खेलते समय गेंद यमुना में गिर जाने से कृष्ण उसे निकालने के लिए यमुना में कूदे और कालिय को युद्ध में हराने के बाद उसके फण पर नाचने लगे। उन्होंने गरुड़ से निर्भयता का वरदान देकर कालिय को पुन: रमण द्वीप भेज दिया। यमुना का यह स्थान आज भी 'कालियदह' कहलाता है।
  • कालीय नाग को 'नागराज' भी कहा जाता है। गरुड़ के भय से यह नागों के निवास-स्थान रमणक द्वीप से भागकर सौभरि मुनि के शाप से गरुड़ संरक्षित ब्रजभूमि में एक दह में आकर रहने लगा था। इसी के नाम से 'ब्रज' में यमुना तट पर 'कालीदह' नामक स्थान प्रसिद्ध है। ऐसा प्रसिद्ध है कि इसके वहाँ रहने से वह स्थान उजाड़-सा हो गया था। एक बार कृष्ण जब छोटे थे, तो खेलते समय उस स्थान में पहुँचकर दह में गिर पड़े। कालिय ने अन्य नागों के साथ कृष्ण को घेर लिया। ब्रज के गोप-गोपियाँ, नन्द-यशोदा आदि इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। अन्त में कृष्ण ने इसे अपने वश में कर लिया तथा इसके फन पर खड़े होकर नृत्य किया। ब्रज-मण्डल में ऐसी प्रसिद्धि है कि कृष्ण के उस समय के अंकित पद-चिह्न आज तक काले नागों में देखें जा सकते हैं। कृष्ण ने कालिय नाग को पुन: अपने समूह के साथ रमणीक द्वीप में जाकर रहने की आज्ञा दे दी थी। गरुड़ ने उस पर कृष्ण के पदाचिह्न अंकित देखकर उसे क्षमा कर दिया। हिन्दी कृष्ण-भक्त कवियों में सूरदास, ब्रजवासीदास (ब्रजविलास) तथा भागवत के भावानुवादों आदि में कालीय दमन की कथा आयी है। भक्त कवियों ने कालिय नाग को कृष्ण का भक्त एवं कृपाभागी के रूप में चित्रित किया है।
  • 'कालियदह' वह स्थान है, जहाँ श्रीकृष्ण ने कालिय नाग का दमन किया था। इसके पास में ही 'केलि-कदम्ब' है, जिस पर चढ़कर श्रीकृष्ण कालीयदह में बड़े वेग से कूदे थे। कालिय नाग के विष से आस-पास के वृक्ष-लता सभी जलकर भस्म हो गये थे। केवल यही एक केलि-कदम्ब बच गया था। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी गरुड़ अपनी माता विनता को अपनी विमाता कद्रू के दासीपन से मुक्त कराने के लिए देवलोक से अमृत का कलश लेकर इस केलि-कदम्ब के ऊपर कुछ देर के लिए बैठे थे। उसकी गंध या छींटों के प्रभाव से ही यह केलि-कदम्ब बच गया था।
  • कालिय नाग बड़ा पराक्रमी था। जब उसने कृष्ण को अपनी कुण्डली में बाँध लिया, उस समय कृष्ण कुछ असहाय एवं निश्चेष्ट हो गये थे। उस समय नागपत्नियाँ, जो कृष्ण की परम भक्त थीं, प्रार्थना करने लगीं कि भगवद विरोधी पति की स्त्री होने के बदले हम विधवा होना ही अधिक पसन्द करती हैं। किन्तु, ज्योंही कृष्ण नाग की कुण्डली से निकल कर उसके मस्तक पर पदाघात करते हुए नृत्य करने लगे, उस समय कालिय अपने सहस्त्रों मुखों से रक्त उगलते हुए भगवान के शरणागत हो गया। उस समय नाग-पत्नियाँ उसके शरणागत भाव से अवगत होकर, हाथ जोड़कर कृष्ण से उसे जीवन-दान के लिए प्रार्थना करने लगीं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तव-स्तुति से प्रसन्न होकर कालिय नाग को अभय प्रदान कर सपरिवार रमणक द्वीप में जाने के लिए आदेश दिया तथा उसे अभय देते हुए बोले- "अब तुम्हें गरुड़जी का भय नहीं रहेगा। वे तुम्हारे फणों पर मेरे चरणचिह्न को देखकर तुम्हारे प्रति शत्रुता भूल जायेंगे।" नाग-पत्नियों ने यह प्रार्थना की थी- "हे देव ! आपके जिस पदरज की प्राप्ति के लिए श्री लक्ष्मीदेवी ने अपनी सारी अन्य अभिलाषाओं को छोड़कर चिरकाल तक व्रत धारण करती हुई तपस्या की थी, किन्तु वे विफल-मनोरथ हुई, उसी दुर्लभ चरणरेणु को कालिया नाग न जाने किस पुण्य के प्रभाव से प्राप्त करने का अधिकारी हुआ है।[2]श्रीमद्भागवत के गौड़ीय टीकाकारों का यहाँ सुसिद्धान्तपूर्ण विचार है। कालिय पर भगवान की अहैतुकी कृपा का कारण और कुछ नहीं बल्कि कालिय नाग की पत्नियों की श्रीकृष्ण के प्रति अहैतुकी भक्ति ही है। क्योंकि भगवद-कृपा भक्त-कृपा की अनुगामिनी है।

कनिंघम का विचार

जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने भारतीय भूगोल लिखते समय यह माना कि 'क्लीसीबोरा' नाम वृन्दावन के लिए है। इसके विषय में उन्होंने लिखा है कि- "कालिय नाग के वृन्दावन निवास के कारण यह नगर 'कालिकावर्त' नाम से जाना गया था। यूनानी लेखकों के क्लीसोबोरा का पाठ वे 'कालिसोबोर्क' या 'कालिकोबोर्त' मानते हैं। उन्हें 'इंडिका' की एक प्राचीन प्रति में 'काइरिसोबोर्क' पाठ मिला, जिससे उनके इस अनुमान को बल मिला।[3] परंतु सम्भवतः कनिंघम का यह अनुमान सही नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्प जिसका भक्ष है।
  2. कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे
    तवाडिघ्ररेणुस्पर्शाधिकार: ।
    यद्वाच्छया श्रीर्ललनाऽऽचरत्तपो
    विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥
    (श्रीमद्भा0 10/16/36
  3. देखिए कनिंघम्स ऎंश्यंट जिओग्रफी आफ इंडिया (कलकत्ता 1924) पृ0 429 ।

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