गंधर्व

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गंधर्व यक्ष, राक्षस, पिशच, सिद्ध, चारण, नाग, किंनर आदि अंतराभसत्व (शाश्वतकोश १०१) में स्थित देवयोनियों में गंधर्वो की भी गणना है। [1] गंधर्व शब्द की क्लिष्ट कल्पनाओं पर आश्रित अनेक व्युत्पत्तियाँ प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों ने दी हैं। सायण ने दो स्थानों पर [2] दो प्रकार की व्याख्याएँ की हैं-प्रथम गानुदकं धारयतीति गंधवोमेघ और द्वितीय गवां रश्मीनां धर्तारं सूर्य। फ्रेंच विक्षन प्रिजुलुस्की (इंडियन कल्चर ३,६१३-६२०) में गंधर्वों का संबंध गर्दभों से जोड़ा है, क्योंकि गंधर्व गर्दभनादिन्‌ [3] हैं एवं गंर्दभों के समान ही गंधर्वो की कामुकता का वर्णन है। एक परंपरा उज्जयिनि के राजा गंधर्वसेन को गर्दभिल्ल कहती है। ये सारी व्युत्पत्तियाँ दूरारूढ़ कल्पनाजन्य हैं। [4] साधारणत: मान्य वयुत्पत्ति है-गंध संगीत वाद्यादिजनित प्रमोदं अर्वति प्राप्नोति गंधर्व: स्वर्गगायक: (शब्दकल्पद्रुम)। गंध और गंधर्व की सगंधता [5] में भी व्यंजित है, फिर भी संगीतवाद्यदिजनित प्रमोद गंध का साधारण अर्थ नहीं, इसलिए यह व्युत्पत्ति भी संतोषप्रद नहीं। कुछ विद्वान ग्रीक केंतोरों (Kentauros) ईरानी गंधरव, संस्कृत गंधर्व तथा पाली गंधब्ब को एक ही स्रोत से नि:सृत मानते हैं।

ऋग्वेद में गंधर्व वायुकेश [6] सोमरक्षक, मधुर-भाषी [7], संगीतज्ञ, [8] और स्त्रियों के ऊपर अतिप्राकृत रूप से प्रभविष्णु बतलाए गए हैं। [9] में गंधर्वों की गणना देवजन, पृथग्देव और पितरों के साथ की गई है। विवाहसूक्त [10] में नवविवाहित दंपति के लिए गंधर्वों के आशीर्वचन की याचना की गई हैं। सिर पर शिखंड धारण किए अप्सराओं के पति गंधर्वों के नृत्यों का अनेकश: वर्णन है। [11] उनके हाथों में लोहे के भाले और भीम आयुध है (५,३७,८)। प्राचीन शिलालेखों में [12] गंधर्वों के उल्लेख हैं, किंतु प्रतिमाओं से ही कुछ विशिष्ट सूचनाएँ उनके विषय में उपलब्ध होती हैं। विष्णुधार्मोतर पुराण [13] में उनके लिए शिखर से शोभित किंतु मुकुट से विरहित प्रतिमाओं का विधान है। मथुरा, गांधार, गुप्त, चालुक्य और पल्लव कला केंद्रों में इनकी प्रतिमाएँ कुछ विभिन्नताओं के साथ मिलती हैं। [14][15] उनकी प्रतिमाओं की विशेषताओं का समाहार करता हुआ लिखता है : नृतं वा वैष्णंव वापि वैशाखं स्थानकंतु वा। गीतावीणा-विधानैश्च गंधर्वाश्चेति कथ्यते। रामायण, महाभारत और पुराणों में वे देवगायकों के रूप में चित्रित किए गए। जैन परंपरा में गंधर्वों को किंपुरु ष, महोरग आदि के साथ व्यंतरलोक के देवों के रूप में स्वीकार किया गया। [16] बौद्ध अवदानों और जातकों में गंधर्वों के बहुविध उल्लेख हैं। [17]संगीतशास्त्र से प्रधानत: संबद्ध गंधर्वों की कल्पना ने तक्षण और वास्तुकला में अभिनव सौंदर्योंपचायक अभिप्रायों की अभिवृद्धि की। महाकाव्य और कथाओं में, विशेषत: पूर्वमध्ययुगीन जैन कथाओं में, विद्याधर और यक्षों के साथ गंधर्वकल्पना अतिरंजित, हृद्य और काल्पनिक कथावृत्तों के सर्जन और गुंफन में सहायक हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अमरकोश,१, २ ; क्षीरस्वामी : गंधर्वास्तुम्बुरुप्रभृतय: देवयोनय:; भागवत, ३,३,११
  2. ऋग्वेद ८,७७,५ और १,१६२,२
  3. अथर्ववेद ८, ६
  4. खंडन के लिए देखिए, आ. बे. कीथ : ए न्यू एक्सप्लेनेशन ऑव द गंधर्वाज़, जर्नल ऑव इंडियन सोसाइटी ऑव ओरिएंटल आर्ट, ५, ३२-३९
  5. अथर्ववेद (१२,१,२,३)
  6. ऋक्‌ ३, ३८, ६
  7. तुलनीय, अथर्ववेद, २०, १२८, ३
  8. ऋ० १०,११
  9. अथर्ववेद (२,५,२)
  10. अथर्ववेद १४, २, ३४-३६
  11. आनृत्यत: शिखंडिन: गंधर्वस्याप्सरापते: ५,३७,७
  12. यथा राज्ञी बालश्री का नासिक में उपलब्ध अभिलेख, पंक्तियाँ ८-९, तालगुंड स्तंभाभिलेख, पद्य ३३ आदि में
  13. विष्णुधार्मोतर पुराण ३,४२
  14. द्रष्टव्य, आर. एस. पंचमुखी, गंधर्वाज़ ऐंड किन्नराज इन इंडियन आइकोनोग्राफ़ी, ३१-४९
  15. मानसार ५८, ९-१०
  16. द्र., कपाडिया, जाइगैंटिक फ़ेबुलस ऐनिमल्स इन जैन लिटरेचर, न्यू इंडियन ऐंटीक्वेरी, १९४६
  17. ओ. एच. द. ए. विजेसेकर : वेदिक गंधर्व ऐंड पाली गंधब्ब, यूनीवर्सिटी ऑव सीलोन रिव्यू, ३ भी द्रष्टव्य है

बाहरी कड़ियाँ

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