गुरु हर किशन सिंह

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
गुरु हर किशन सिंह
गुरु हर किशन सिंह
पूरा नाम गुरु हर किशन सिंह
जन्म 31 मार्च, 1504
जन्म भूमि कीरतपुर, पंजाब
मृत्यु 30 मार्च, 1664
मृत्यु स्थान अमृतसर
भाषा पंजाबी
पुरस्कार-उपाधि सिक्खों के आठवें गुरु
नागरिकता भारतीय
पूर्वाधिकारी गुरु हरराय
उत्तराधिकारी गुरु तेग़ बहादुर

गुरु हर किशन सिंह अथवा गुरु हरि कृष्ण जी (जन्म: 7 जुलाई, 1656 - मृत्यु: 30 मार्च, 1664)[1] सिक्खों के आठवें गुरु थे।

जीवन परिचय

गुरु हर किशन साहेबजी का जन्म सावन सुदी 10 ( 8 वां सावन ) विक्रम संवत 1713 (7 जुलाई 1656) को किरतपुर साहेब में हुआ था। आप गुरु हर राय साहेबजी और माता किशन कौर के दूसरे बेटे थे। 8 वर्ष की छोटी -सी आयु में ही आपको गुरु गद्दी प्राप्त हुई। इन्होंने सिर्फ़ तीन वर्ष तक शासन किया, लेकिन वह बहुत बड़े ज्ञानी थे और हिन्दू धर्मग्रंथ भगवद्गीता के ज्ञान से अपने पास आने वाले ब्राह्मणों को चमत्कृत कर देते थे। इनके बारे में कई चमत्कारों का वर्णन मिलता है। बालक के ज्ञान की परीक्षा लेने के उद्देश्य से राजा जय सिंह ने अपनी एक रानी को दासी के वेश में गुरु के चरणों के पास अन्य दासियों के साथ बिठा दिया। बताया जाता है कि गुरु हर किशन ने तुरंत रानी को पहचान लिया। हर किशन के बड़े भाई राम राय, जो पहले से ही मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के समर्थक थे, ने उन्हें गुरु नियुक्त किए जाने का विरोध किया। इस मामले का फ़ैसला करने के लिए औरंगज़ेब ने आठ वर्षीय हर किशन को दिल्ली बुलाया।

गुरु गद्दी का तिलक

कीरत पुर में गुरु हरराय जी के दो समय दीवान लगते थे। हज़ारों श्रद्धालु वहाँ उनके दर्शन के लिए आते और अपनी मनोकामनाएँ पूरी करते। एक दिन गुरु हरराय जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक पाया और देश परदेश के सारे मसंदो को हुक्मनामे भेज दिये कि अपने संगत के मुखियों को साथ लेकर शीघ्र ही कीरत पुर पहुँच जाओ। इस तरह जब सब सिख सेवक और सोढ़ी, बेदी, भल्ले, त्रिहण, गुरु, अंश और सन्त-महन्त सभी वहाँ पहुँचे। आपजी ने दीवान लगाया और सब को बताया कि हमारा अन्तिम समय नजदीक आ रहा है और हमने गुरु गद्दी का तिलक अपने छोटे सपुत्र श्री हरि कृष्ण जी को देने का निर्णय किया है। इसके उपरांत गुरु जी ने श्री हरि कृष्ण जी को सामने बिठाकर उनकी तीन परिकर्मा की और पांच पैसे और नारियल आगे रखकर उनको नमस्कार की। उन्होंने साथ-साथ यह वचन भी किया कि आज से हमने इनको गुरु गद्दी दे दी है। आपने इनको हमारा ही रूप समझना है और इनकी आज्ञा में रहना है। गुरु जी का यह हुक्म सुनकर सारी संगत ने यह वचन सहर्ष स्वीकार किया और भेंट अर्पण की। इस प्रकार संगत ने श्री हरि कृष्ण जी को गुरु स्वीकार कर लिया।
यह सब गुरु हरि कृष्ण जी के बड़े भाई श्री राम राय जी बर्दाश्त ना कर सके। उन्होंने क्रोध में आकर बाहर मसंदो को पत्र लिखे कि गुरु की कार भेंट इक्कठी करके सब मुझे भेजो नहीं तो पछताना पड़ेगा। उसने इसके साथ-साथ दिल्ली जाकर औरंगजेब को कहा कि मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है। गुरु गद्दी पर बैठने का हक तो मेरा था परन्तु मुझे छोडकर मेरे छोटे भाई को गुरु गद्दी पर बिठाया गया। जिसकी उम्र केवल पांच वर्ष की है। आप उसको दिल्ली में बुलाओ और कहो कि गुरु बनकर सिक्खों से कार भेंटा ना ले और अपने आप को गुरु ना कहलाए। श्री राम राय के बहुत कुछ कहने के कारण बादशाह ने मजबूर होकर राजा जयसिंह को कहा कि अपना विशेष आदमी भेजकर गुरु जी को दिल्ली बुलाओ। जयसिंह ने ऐसा ही किया। राजा जयसिंह की चिट्टी पढ़कर और मंत्री की जुबानी सुनकर गुरु हरि कृष्ण जी ने माता और बुद्धिमान सिक्खों से विचार किया और दिल्ली जाने की तैयारी कर ली।[2]

आठवीं पादशाही गुरु

गुरु हरराय जी ने 1661 में गुरु हरकिशन जी को आठवीं पादशाही गुरु के रूप में सोंपी। बहुत ही कम समय में गुरु हर किशन साहिब जी ने सामान्य जनता के साथ अपने मित्रतापूर्ण व्यवहार से राजधानी में लोगों में लोकप्रियता हासिल की। इसी दौरान दिल्ली में हैजा और छोटी माता जैसी बीमारियों का प्रकोप महामारी लेकर आया। मुग़ल राज जनता के प्रति असंवेदनशील था। जात- पात एवं ऊंच नीच को दरकिनार करते हुए गुरु साहिब ने सभी भारतीय जनों की सेवा का अभियान चलाया। खासकर दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम उनकी इस मानवता की सेवा से बहुत प्रभावित हुए एवं वो उन्हें बाला पीर कहकर पुकारने लगे। जनभावना एवं परिस्थितियों को देखते हुए औरंगजेब भी उन्हें नहीं छेड़ सका। परन्तु साथ ही साथ औरंगजेब ने राम राय जी को शह भी देकर रखी, ताकि सामाजिक मतभेद उजागर हों। दिन रात महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा करते करते गुरु साहिब अपने आप भी तेज ज्वर से पीड़ित हो गये। छोटी माता के अचानक प्रकोप ने उन्हें कई दिनों तक बिस्तर से बांध दिया। जब उनकी हालत कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गयी तो उन्होने अपनी माता को अपने पास बुलाया और कहा कि उनका अन्त अब निकट है। जब लोगों ने कहा की अब गुरु गद्दी पर कौन बैठेगा तो उन्हें अपने उत्तराधिकारी के लिए केवल 'बाबा- बकाला' का नाम लिया। यह शब्द केवल भविष्य गुरु , गुरु तेगबहादुर साहिब, जो कि पंजाब में व्यास नदी के किनारे स्थित बकाला गांव में रह रहे थे, के लिए प्रयोग किया था जो बाद में गुरु गद्दी पर बैठे और नवमी पातशाही बने।[3]

मृत्यु

जब गुरु हर किशन दिल्ली पहुँचे, तो वहाँ हैज़े की महामारी फैली हुई थी। कई लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराने के बाद उन्हें स्वयं चेचक निकल आई। 30 मार्च सन् 1664 में मरते समय उनके मुँह से 'बाबा बकाले' शब्द निकले, जिसका अर्थ था कि उनका उत्तराधिकारी बकाला गाँव में ढूँढा जाए। अपने अन्त समय में गुरु साहिब सभी लोगों को निर्देश दिया कि कोई भी उनकी मृत्यू पर रोयेगा नहीं। बल्कि गुरूबाणी में लिखे शबदों को गायेंगे। इस प्रकार बाला पीर चैत्र सुदी 14 (तीसरा वैसाख) विक्रम सम्वत 1721 (30 मार्च 1664) को धीरे से वाहेगुरू शब्द का उच्चारण करते हुए गुरु हरकिशन जी ज्योतिजोत समा गये। दसवें गुरु गोविन्द साहिब जी ने अपनी श्रद्धाजंलि देते हुए अरदास में दर्ज किया कि :---
श्री हरकिशन धियाइये, जिस दिट्ठे सब दुख जाए।'
(यानी ...इनके नाम के स्मरण मात्र से ही सारे दुःख दूर हो जाते है )
दिल्ली में जिस आवास में वो रहते थे। आज वहाँ एक शानदार ऐतिहासिक गुरुद्वारा बन गया है जिसे सब श्री बंगला साहिब गुरूद्वारे के नाम से जानते हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. *The Eighth Master Guru Harkrishan
  2. श्री गुरु हरि कृष्ण जी गुरु गद्दी मिलना (हिंदी) आध्यात्मिक जगत। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।
  3. गुरु हरकिशन साहेब जी (हिंदी) गुरु की वाणी। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख