गोवर्धन लीला

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कृष्ण विषय सूची
संक्षिप्त परिचय
गोवर्धन लीला
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अन्य नाम वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़ आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी (विमाता), बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सांब
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ 'गीता'
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ 'महाभारत', 'भागवत', 'छान्दोग्य उपनिषद'।
मृत्यु पैर में तीर लगने से।
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हिन्दुओं के प्रसिद्ध त्योहार दीपावली के अगले दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन, गौ-पूजन के साथ-साथ अन्नकूट पर्व भी मनाया जाता है। इस दिन प्रात: ही नहा धोकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर अपने इष्टों का ध्यान किया जाता है। इसके पश्चात् अपने घर या फिर देव स्थान के मुख्य द्वार के सामने गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाना शुरू किया जाता है। इसे छोटे पेड़, वृक्ष की शाखाओं एवं पुष्प से सजाया जाता है। पूजन करते समय निम्न श्लोक कहा जाता है-

"गोवर्धन धराधार गोकुल त्राणकारक। विष्णुबाहु कृतोच्छाय गवां कोटिप्रदो भव।"

गोवर्धन पर्वत की पूजा के बारे निम्न कथा प्रचलित है-

भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ गोपियाँ 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज के दिन वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इन्द्र का पूजन होता है। इसे 'इन्द्रोज यज्ञ' कहते हैं। इससे प्रसन्न होकर इन्द्र ब्रज में वर्षा करते हैं और जिससे प्रचुर अन्न पैदा होता है।

श्रीकृष्ण ने कहा कि इन्द्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। बहुत विवाद के बाद श्रीकृष्ण की यह बात मानी गई तथा ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण द्वारा सभी पकवान चखने पर ब्रजवासी खुद को धन्य समझने लगे। नारद मुनि भी यहाँ 'इन्द्रोज यज्ञ' देखने पहुँच गए थे। इन्द्रोज बंद करके बलवान गोवर्धन की पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं, यह बात इन्द्र तक नारद मुनि द्वारा पहुँच गई और इन्द्र को नारद मुनि ने यह कहकर और भी डरा दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें।

इन्द्र गुस्से में लाल-पीले होने लगे। उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलय पैदा कर दें। ब्रजभूमि में मूसलाधार बरसात होने लगी। बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। वही सबकी रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुँचे तो श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता-सा तान दिया और सभी को मूसलाधार हो रही वृष्टि से बचाया। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूँद भी जल नहीं गिरा। यह चमत्कार देखकर इन्द्रदेव को अपनी की हुई गलती पर पश्चाताप हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा और ब्रजवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व मनाने को कहा। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं श्रीकृष्ण थे। इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने वाले मेघों के सांवर्तक नामक गण को ब्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और कहा- "ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव से-कर्ममय यज्ञों से इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं। कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। एक तो ये यों ही धन के नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुम लोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के ब्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरूद्गणों के साथ आता हूँ।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के ब्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे ब्रज को पीड़ित करने लगे। चारों और बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे। इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकार खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब ब्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा, इसका पता चलना कठिन हो गया। इस प्रकार मूसलाधार वर्षा तथा झंझावत के झपाटे से जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठण्ड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये। मूसलाधार वर्षा से सताये जाने के कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चों की निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा लिया था और वे काँपते-काँपते भगवान की चरणशरण में पहुँचे और बोले- "प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो।"

भगवान ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्र की है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है। वे मन-ही-मन कहने लगे- "हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे ब्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा। देवता लोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा ब्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है।"[2] इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।

गोवर्धन पर्वत उठाते हुए कृष्ण

इसके बाद भगवान ने गोपों ने कहा- "माताजी, पिताजी और ब्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ। देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनीक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है।" जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया, ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रीतों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्धन के गड्ढ़े में आ घुसे।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब ब्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया। जब गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा- "मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।" भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया।

ब्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था। पर्वत को रखते ही वे भगवान श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेह से दही, चावल, जल आदि से उनका मंगल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदय से शुभ आशीर्वाद दिये। यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये।

परीक्षित! उस समय आकाश में स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करते हुए उन पर फूलों की वर्षा करने लगे। राजन! स्वर्ग में देवता लोग शंख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान की मधुर लीला का गान करने लगे। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज की यात्रा की। उनके बगल में बलरामजी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे। उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करने वाले, उसमें प्रेम जगाने वाले भगवान की गोवर्धन-धारण आदि लीलाओं का गान करती हुई बड़े आनन्द से ब्रज में लौट आयीं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 25, श्लोक 1-33
  2. भगवान कहते हैं- "जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ-यह मेरा व्रत है।"

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