गौतम

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गौतम जिन्हें 'अक्षपाद गौतम' के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हैं, न्याय दर्शन के प्रथम प्रवक्ता माने जाते हैं। अक्षपाद गौतम ने न्याय दर्शन का निर्माण तो शायद नहीं किया, पर यह कहा जा सकता है कि न्याय दर्शन का सूत्रबद्ध, व्यवस्थित रूप अक्षपाद के न्यायसूत्र में ही पहली बार मिलता है। महर्षि गौतम परम तपस्वी एवं संयमी थे। महाराज वृद्धाश्व की पुत्री अहिल्या इनकी पत्नी थी, जो महर्षि के शाप से पाषाण बन गयी थी। त्रेता युग में भगवान श्री राम की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ, जिससे वह पुन: पाषाण से पुन: ऋषि पत्नी बनी।

धनुर्धर तथा स्मृतिकार

महर्षि गौतम बाण विद्या में अत्यन्त निपुण थे। जब वे अपनी बाणविद्या का प्रदर्शन करते और बाण चलाते तो देवी अहिल्या बाणों को उठाकर लाती थी। एक बार वे देर से लौटीं। ज्येष्ठ की धूप में उनके चरण तप्त हो गये थे। विश्राम के लिये वे वृक्ष की छाया में बैठ गयी थीं। महर्षि ने सूर्य देवता पर रोष किया। सूर्य ने ब्राह्मण के वेष में महर्षि को छात्ता और पादत्राण (जूता) निवेदित किया। उष्णता निवारक ये दोनों उपकरण उसी समय से प्रचलित हुए। महर्षि गौतम न्यायशास्त्र के अतिरिक्त स्मृतिकार भी थे तथा उनका धनुर्वेद पर भी कोई ग्रन्थ था, ऐसा विद्वानों का मत है। उनके पुत्र शतानन्द निमि कुल के आचार्य थे। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से मुक्ति प्राप्त की थी। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पतित्र किया था, जिससे वह 'गौतमी' कहलायीं। गौतमी नदी के किनारे त्र्यंबकम् शिवलिंग की स्थापना की गई, क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।

न्याय दर्शन में गौतम

उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गोतम हैं। यही 'अक्षपाद' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। न्यायवार्त्तिककार उद्योतकराचार्य ने इनको इस शास्त्र का कर्ता नहीं वक्ता कहा है-

यदक्षपाद: प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।[1]

अत: वेद विद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वस्रष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। महर्षि अक्षपाद से पहले भी यह विद्या अवश्य रही होगी। इन्होंने तो सूत्रों में बाँधकर इसे सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं पूर्णांग करने का सफल प्रयास किया है। इससे शास्त्र का एक परिनिष्ठित स्वरूप प्रकाश में आया और चिन्तन की धारा अपनी गति एवं पद्धति से आगे की ओर उन्मुख होकर बढ़ने लगी। वात्स्यायन ने भी न्यायभाष्य के उपसंहार में कहा है कि ऋषि अक्षपाद को यह विद्या प्रतिभात हुई थी-

योऽक्षपादमृर्षि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम्।

न्यायसूत्रों के परिसीमन से भी ज्ञात होता है कि इस शास्त्र की पृष्ठभूमि में अवश्य ही चिरकाल की गवेषणा तथा अनेक विशिष्ट नैय्यायिकों का योगदान रहा होगा। अन्यथा न्यायसूत्र इतने परिष्कृत एवं परिपूर्ण नहीं रहते। चतुर्थ अध्याय में सूत्रकार ने प्रावादुकों के मतों का उठाकर संयुक्तिक खण्डन किया है तथा अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समक्ष अनेक दार्शनिकों के विचार अवश्य उपलब्ध थे। महाभारत में भी इसकी पुष्टि देखी जाती है। वहाँ कहा गया है कि न्यायदर्शन अनेक हैं। उनमें से हेतु, आगम और सदाचार के अनुकूल न्यायशास्त्र पारिग्राह्य है-

न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥[2]

महाभारत में उल्लेख

महाभारत के अध्ययन से विदित होता है कि गौतमीय न्याय दर्शन के सिद्धान्त उस समय के विद्वत्समाज में अधिक प्रचलित थे। उस समय के प्रमुख राष्ट्रहित चिन्तक देवर्षि नारद को पंचाव्यवयुक्त न्यायवाक्य का ज्ञाता कहा गया है। यद्यपि न्याय का दशावयववाद भी कभी प्रसिद्ध रहा होगा, जो परवर्तीकाल में किसी एक देशीय नैय्यायिक की परम्परा में सुरक्षित रहा, किन्तु महर्षि गौतम को वह मान्य नहीं था। अत: उसका उल्लेख एवं खण्डन 'न्यायभाष्य' में देखा जाता है। महाभारत में इस दशावयववाद का संकेत नहीं मिलता है। साथ ही महाभारत में अनेक स्थलों पर पंचावयव न्यायवाक्य का उल्लेख हुआ है। शान्तिपर्व में महर्षि व्यास ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहा है कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव न्यायवाक्य प्रमेय की सिद्धि के लिए प्रयोजनीय है। ये अनेक वर्गों की सिद्धि के साधन हैं। इनमें भी प्रत्यक्ष और अनुमान निर्णय के प्रमुख आधार के रूप में स्वीकृत हैं।

प्रत्यक्षमनुमानं च उपमानं तथागम:।
प्रतिज्ञा चैव हेतुश्च दृष्टान्तोपनयौ तथा।
उक्तं निगमनं तेषां प्रमेयञ्च प्रयोजनम्।
एतानि साधनान्याहुर्वहुवर्गप्रसिद्धये॥
प्रत्यक्षमनुमानं च सर्वेषां योनिरिष्यते।[3]

आदिपर्व में वर्णित है कि कण्व ऋषि के आश्रम में अनेक नैयायिक रहा रकते थे, जो न्यायतत्त्वों के कार्यकारणभाव, कथासम्बन्धी स्थापना, आक्षेप और सिद्धान्त आदि के ज्ञाता थे।[4] युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में नैय्यायिकगण उपस्थित थे, जो परस्पर विजय की इच्छा रखते थे।

तस्मिन् यज्ञे प्रवृत्ते तु वाग्मिनो हेतुवादिन:।
हेतुवादान् बहूनाहु: परस्परजिगीषव:॥[5]

न्याय दर्शन मोक्षावस्था में धर्म तथा अधर्म आदि आत्मविशेष गुणों का उपरम स्वीकार करता है। इसका संकेत महाभारत में मिलता है-

अपुण्यपुण्योपरमे यं पुनर्भवनिर्भया:।
शान्ता: सन्न्यासिनो यान्ति तस्मै मोक्षात्मने नम:॥ [6]

न्यायभाष्य के हेय, हान, उपाय और अधिगन्तव्य रूप चार प्रसिद्ध अर्थतत्त्व महाभारत में स्पष्टत: निर्दिष्ट हैं-

दु:खं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते।
त्यागात्तेभ्यो निरोध: स्यात् निरोधज्ञो विमुच्यते॥[7]

महाराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश देते समय पितामह भीष्म ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम रूप न्यायदर्शन के प्रसिद्ध प्रमाणों से परीक्षित कर अपने तथा पराये की पहचान रखना आवश्यक है।

प्रत्यक्षेणानुमानेन तथोपम्यागमैरपि।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यश:॥[8]

इससे प्रतीत होता है कि न्यायविद्या चिरकाल से ही दृढ़मूल की तरह विशाल और वैविध्यपूर्ण रही है, जो वेद, पुराण, स्मृति तथा महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में विकीर्ण है। न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम के समक्ष सुदृढ आधारशिला की तरह न्याय दर्शन के अनेक प्रसिद्ध सिद्धान्त उपलब्ध थे। इनमें से युक्तिसंगत सिद्धान्तों का चयन कर उसे शास्त्र रूप में प्रतिष्ठित करने के श्रेयस का लाभ इन्होंने किया। फलस्वरूप आज हम लोगों को पूर्णांग, सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध न्यायदर्शन उपलब्ध है।

न्यायसूत्र के रचयिता

चरक संहिता के विमान स्थान में संभाषा विधि की चर्चा आती है, और उसमें वादमार्ग ज्ञान के लिए जानने लायक तत्वों की जो सूची मिलती है, वही सूची गौतम के सोलह पदार्थों के लिए आधारभूत थी, ऐसा तर्क किया जा सकता है। सतीश चन्द्र विद्याभूषण के मत में 'चरकसंहिता' में मिलने वाला न्याय दर्शन मेधातिथि गौतम द्वारा प्रतिपादित न्याय दर्शन है। उनके मत में अक्षपाद से पहले न्याय दर्शन के रचयिता, मेधातिथि गौतम हुए थे, जिनका उल्लेख महाभारत, भासकृत प्रतिभानाटक जैसे ग्रन्थों में मिलता है। विद्याभूषण के अनुसार अक्षपाद गौतम ने ही न्याय दर्शन को वह रूप दिया, जिस रूप में न्याय दर्शन आज उपलब्ध है। आधुनिक पंडित कहने लगे हैं कि न्यायसूत्र का कोई एक कर्ता नहीं है, बल्कि न्यायसूत्र कई भागों में विकसित हुआ, जिनमें से पहले कुछ की रचना ईसा पूर्व है। आज न्यायसूत्र का जो रूप दिखाई देता है, उसका पूर्ण रूप दूसरी सदी में सम्पन्न हुआ। जी. ओबर हैमर का कहना है कि न्यायसूत्र के पहले और आखिरी (पांचवें) अध्याय का काल बहुत ही प्राचीन है। उसके मत में तीसरे और चौथे अध्याय किसी दूसरी कृति से लिए गए थे, और चौथी सदी के बाद वे बाकी अध्यायों के साथ जोड़ दिये गए।

न्याय दर्शन के पदार्थ

एक बात निश्चित है कि अक्षपाद के नाम से प्रचलित न्यायसूत्र न केवल प्राचीन नैयायिकों के लिए, बल्कि नव्य नैयायिकों के लिए भी एक प्रमाणभूत ग्रन्थ रहा। यद्यपि न्याय दर्शन एक परिवर्तनशील दर्शन प्रतीत होता है, तथापि हर एक नैयायिक अक्षपाद गौतम को आप्त (यथार्थवक्ता) के रूप में देखता है और उनके वचनों को कभी अपनी मती के तो कभी प्रचलित न्याय परम्परा के अनुसार स्पष्टीकरण और समर्थन करने का प्रयास करना है। गौतम के न्याय दर्शन का प्रधान प्रतिपाद्य विषय प्रमाण और बाद है। इसीलिए गौतम का न्याय दर्शन मुख्यत: प्रणालीशास्त्र है। उसे मूलत: सत्ता शास्त्र कहना कठिन है। गौतम इस बात का ध्यान भी ज़रूर रखते हैं कि प्रमाण और वाद तत्वज्ञान के साधनमात्र हैं। 'पदार्थों' का अच्छी तरह से ज्ञान होने से मनुष्य मोक्ष के लायक बन सकता है, और 'पदार्थों' के ज्ञान के लिए प्रमाण और वाद साधन हैं, जिनका ज्ञान न्याय दर्शन का प्रमुख क्षेत्र है।

गौतम के न्याय दर्शन के सोलह पदार्थ इस प्रकार हैं- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान।

अध्याय संख्या

गौतम के न्यायसूत्र के पांच अध्याय हैं। पहले अध्याय में गौतम ने सोलह पदार्थों की सूची देते हुए उनके लक्षण तथा कुछ स्थूल प्रकार दिए हैं। दूसरे अध्याय में गौतम ने संशय और प्रमाण की विशेष परीक्षा की है। तीसरे और चौथे अध्याय में प्रमेयों का विशेष विवेचन किया है। पांचवें अध्याय में गौतम ने जाति और निग्रह स्थान का सविस्तार वर्गीकरण किया है। इससे मालूम होता है कि यद्यपि गौतम ने सोलह पदार्थों का लक्षण तथा वर्गीकरण किया है, तथापि प्रमाण, प्रमेय तथा संशय, इन तीन पदार्थों को उन्होंने विशेष परीक्षा की है। प्रमेयों का विवेचन गौतम ने बड़े विस्तार से किया है और यह करते समय समकालीन सत्ताशास्त्रीय सिद्धांतों की चर्चा भी गौतम ने की है। इस विवेचन में जिन मतों का खंडन मिलता है, उसमें चार्वाकों का देहात्मक, सांख्यों का परिणामवाद, अभावकारणवाद[9], ईश्वर कारणवाद 'सब कुछ अनित्य है' अभ्युपगम[10], 'सब कुछ नित्य है' यह अभ्युपगम, जो ब्रह्मवाद के नजदीक आता है, 'सब कुछ पृथक है' यह अभ्युपगम, जो 'सब कुछ स्वलक्षण है' इस बौद्धमत से सामर्थ्य रखता है, इत्यादि बहुत से सिद्धांत हैं। इसमें यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्ध दर्शन में पाये जाने वाले अनेक विचार गौतम ने पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किए हैं। गौतम ने मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति और अपवर्ग में जो कारण-कार्य संबंध बताया है[11] वह बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का आंशिक अनुकरण मालूम होती है। इस सब निर्देशों से प्रतीत होता है कि अक्षपाद गौतम बुद्ध के पश्चातवर्ती थे और अंशत: बौद्ध विचारों से प्रभावित थे।

ईश्वरकारणवाद का खंडन

परम्परा में माना गया है कि गौतम ने अभाव से भाव की उत्पत्ति होने का जो सिद्धांत पूर्वपक्ष के रूप में लिया है, वह बौद्धों का शून्यवाद है। गौतम की प्रमेय परीक्षा में और एक बात पर प्रकाश पड़ता है। परम्परा में माना जाता है कि न्याय दर्शन शुरू से ईश्वरनिष्ठ दर्शन है। लेकिन इस प्रमेय परीक्षा में गौतम ईश्वरकारणवाद का खंडन करते हुए नज़र आते हैं। टीकाकारों ने इस ईश्वर खंडन का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि गौतम ने वेदान्तियों के इस सिद्धांत का खंडन किया है कि ईश्वर जगत का उपादान करण है। लेकिन ईश्वर जगत का निमित्त कारण है, इस मत का गौतम ने समर्थन ही किया है। पर जिस सूत्र का आधार ये टीकाकार लेते हैं, उसका अर्थ निमित्त कारण ईश्वर के अनुकूल लगाना और प्रकृत संदर्भ में उसकी संतोषजनक उत्पत्ति देना कठिन है। गौतम ईश्वरवादी नहीं थे, यह सिद्ध करने के लिए दूसरा भी आधार मिलता है। गौतम के मत में अपवर्ग प्राप्ति के लिए जिन पदार्थों का ज्ञान आवश्यक था, उन पदार्थों का समावेश गौतम ने 'प्रमेय' तत्त्व में किया था। उन प्रमेयों की सूची में पहला ही प्रमेय आत्मा है। गौतम ने आत्मा का जो विवरण दिया है, उससे स्पष्ट है कि गौतम का उल्लिखित आत्मा 'जीवात्मा' ही था। गौतम की प्रमेय सूची में 'परमात्मा' का कोई स्थान नहीं है। अगर गौतम ईश्वरवादी होते तो उन्होंने प्रमेयों की सूची में ईश्वर को विशेष स्थान दिया होता। भासर्वज्ञ नामक पश्चातवर्ती नैयायिक के 'न्यायसार' में हम देख सकते हैं कि वहाँ ईश्वर ही सबसे अधिक महत्त्व रखने वाला प्रमेय माना गया है।

तत्वज्ञान की प्राप्ति

गौतम के अनुसार तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रमाणों का सहारा लेना आवश्यक है तथा तत्वज्ञान का संरक्षण तथा संवर्धन करने के लिए वाद पद्धति का सहाय्य ज़रूरी है। गौतम कहते हैं कि जिस प्रकार बगीचे को पशुओं से तथा चोरों से बचाने के लिए उसकी सीमाओं पर कांटें बिखेरने पड़ते हैं, उसी प्रकार अल्प, वितण्डा आदि वाद प्रकारों का बुरे होते हुए भी तत्वनिश्चय का रक्षण करने के लिए इस्तेमाल करना पड़ता है। नैयायिकों को चाहिए कि वे उनका इस्तेमाल जब कभी ज़रूरत हो करें।

यथार्थ ज्ञान के साधन

गौतम के अनुसार प्रमाण, यथार्थ ज्ञान के चार साधन हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। इन्द्रियों का विषय के साथ संबंध होने पर जो ज्ञान मिलता है, जो शब्दात्मक नहीं होता, तथा जो बाद में खंडित या बाधित न होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। गौतम ने, प्रमा-यथार्थ अनुभव और प्रमाण, उस यथार्थ अनुभव का कारण याने साधन, इनमें अन्तर नहीं किया, इसीलिए उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कर दिया है। पश्चातवर्ती नैयायिकों ने प्रमा और प्रमाण में होने वाला अन्तर स्पष्ट किया। जयंतभट्ट ने अपनी 'न्यायमंजरी' में दिखाया है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के इस गौतमकृत लक्षण में 'खंडित न होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान'[12] यह वर्णन सब प्रमाणों को समान रूप से लागू होता है।


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टीका टिप्पणी

  1. न्यायवार्त्तिक का मङ्गलाचरण।
  2. महाभारत शान्तिपर्व 210.22
  3. शान्तिपर्व महाभारत 24.11-14
  4. महाभारत, आदिपर्व 71.42-45
  5. आश्वमेधिकपर्व 85.57
  6. शान्तिपर्व महाभारत 47.36
  7. शान्तिपर्व महाभारत 241.19
  8. शान्तिपर्व महाभारत 56.41
  9. जिसका वर्गीकरण बौद्धों के शून्यवाद के साथ किया जाता है
  10. जो कि बौद्धों का माना जा सकता है
  11. (न्यायसूत्र 1.12)
  12. अव्यभिचारी, व्यवसायात्मक ज्ञानम्

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